गायत्री गान से सबका सब प्रकार कल्याण

March 1976

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शब्द का साधारण प्रभाव जानकारी देने तक सीमित रहता है। पैरों की चाप सुनकर अमुक प्राणी के आगमन का पता चल जाता है। बादलों की गड़-गड़ाहट, पत्तों की खड़-खड़ाहट, हवा की सन-सनाहट सुनकर बिना देखे भी मौसम का अनुमान लगा लिया जाता है। मुख की आवाज सुनकर यह पता चलता है कि यह शब्द किस प्राणी का है और वह कहाँ है? बात-चीत से घटनाओं, परिस्थितियों एवं समस्याओं की जानकारी मिलती है। सामान्यतया शब्दोच्चार जानकारी के आदान-प्रदान में प्रयुक्त होता है। स्कूलों में, कारखानों में, यात्राओं में, व्यवसाय में, कुटुम्ब में, मित्रों में प्रायः इसी प्रकार का वार्तालाप होता पाया जाता है।

शब्द की एक विशेष स्थिति है, जिसमें जानकारी के आदान-प्रदान की मस्तिष्कीय आवश्यकता तो कम पूरी होती है, पर उसमें अन्तरात्मा की भाव सम्वेदनाएँ पर्याप्त मात्रा में जुड़ी रहती हैं। ऐसे शब्दों को ‘गान’ कहते हैं। स्थूल शरीर हलचलें करता है और आवाज निकालता है। सूक्ष्म शरीर शब्द द्वारा जानकारियों का आदान-प्रदान करता है। कारण शरीर की सत्ता भाव परक है। जब अन्तःकरण बोलता है तो उसमें भावनाएँ भरी रहती हैं। ‘गान’ का यही स्वरूप है।

‘गान’ का प्रत्यक्ष स्वरूप गीत है। शब्दों को लयबद्ध करके गाया या गुन-गुनाया जाना- उसमें भावनात्मक मस्ती का जुड़ा रहना ‘गान’ है। इसे और भी अधिक सुसंस्कृत किया जाता है तो ताल स्वर आदि का समावेश हो जाता है। ऐसी स्थिति में उसे छन्द नाम दे दिया जाता है। काव्य या कविता इसी लयबद्ध भाव प्रवाह को कहते हैं। उसे जब वाद्य यन्त्रों के साथ मिला दिया जात है तो संगीत बन जाता है।

वेदों की ऋचाएँ छन्द कही जाती हैं। मन्त्रों की शक्ति में शब्द गुंथन का असाधारण महत्व है। गायत्री मन्त्र को ही लें। उसका शब्दार्थ बहुत सामान्य-सा है। तेजरूप भगवान से सद्बुद्धि की याचना भर उसमें की गई है। इस अर्थ की बोधक अनेक कविताएँ प्रायः सभी भाषाओं में मौजूद हैं अथवा बन सकती हैं। इनका प्रभाव वह नहीं हो सकता जो गायत्री मन्त्र का है। कारण कि उन कविताओं शब्द विज्ञान और भाव विज्ञान का उतना अद्भुत समन्वय सम्भव नहीं है। सूक्ष्मदर्शी तत्व-वेत्ताओं की विशेष मनःस्थिति में ही ऐसे दिव्य अवतरण सम्भव होते हैं। इसलिए वेद मन्त्रों की संरचना को ‘अपौरुषेय’ कहा गया है।

गायत्री वह जो गाई जाने पर अपना चमत्कार प्रस्तुत करे। इस तथ्य का रहस्योद्घाटन करने वाले अनेकों प्रमाण मौजूद हैं। यहाँ गायन का अथ संगीत से नहीं, वरन् यह है कि भावनापूर्वक- भावभरी मनःस्थिति में उसका उपासना क्रम चलना चाहिए। साधक के अन्तस् में मस्ती छाई रहनी चाहिए और बेगार भुगतने की तोता रटन्त की तरह नहीं, भाव तरंगों में लहराते हुए उसे गाया, गुन-गुनाया जाना चाहिए। जिह्वा का शब्दोच्चार मात्र तो बकवास कहलाता है। अन्य प्राणी, छोटे बच्चे अथवा अविकसित मस्तिष्क वाले प्रायः बेसिलसिले की बकझक करते रहते हैं। वाणी की प्रौढ़ता, सुविज्ञ मस्तिष्क की ज्ञान सम्पदा जुड़ जाने से बनती है। वह प्रखर भी होती है और प्रभावशाली है। इस उच्चारण से बोलने वाले का भी लाभ होता है और सुनने वाले का भी। इसके बाद दिव्य वाणी है जिसमें परिष्कृत व्यक्तित्व के साथ जुड़ी रहने वाली उच्चस्तरीय भाव सम्वेदना का समावेश होता है। ऋचाओं का यही स्तर है। उनकी विशेषता साम गान को निखरती है। उपासना प्रक्रिया में भी मन्त्रोच्चार के साथ श्रद्धा भरी अनन्य तन्मयता का समावेश होना चाहिए। ऐसा समावेश जिसमें क्रमबद्ध, लयबद्ध, स्वरबद्ध गुन-गुनाहट तो हो ही साथ ही इष्ट के साथ एकाकार होने की आकुलता भी हो। इसी को भक्ति भावना कहते हैं। मन्त्रों का वास्तविक लाभ इसी ‘गान’ मनःस्थिति में मिलता है।

‘गायत्री’ शब्द के अनेक अर्थ हैं। ‘गय’ प्राण को भी कहते हैं ‘गीत’ भी। गीता में भगवान ने ‘‘गायत्रीच्छन्दसामहम्’’ वाक्य में गायत्री छन्द को अपना रूप बताया है। यहाँ छन्द से तात्पर्य ‘गीत’ से है। यह मनोरंजन के लिए नहीं। दिव्य तन्मयता की भाव भरी लहरों में लहराने के लिए प्रयुक्त किया जाने वाला ‘नाद-ब्रह्म’ है। यह ‘गान’ गायनकर्त्ता को ऐसी भाव भूमिका में उड़ा ले जाता है तो सर्वतोमुखी कल्याण का अनुदान दे सके। गाने वाले का त्राण करने वाली मन्त्र शक्ति को गायत्री कहा गया है। प्राण का त्राण करने वाली भी उसका एक अर्थ है जिस पर अन्यत्र चर्चा होगी यहाँ तो उसके उस स्वरूप पर विचार करना है जिसमें उसे ‘गाने वाला’ का त्राण करने वाली कहा गया है।

बसन्तः प्राणायनो गायत्री बासन्ती।

-यजु. 13।25

गायत्री वह है जो बसन्त में गाई जाती है और गाने वाले की रक्षा करती है।

गायन्ति त्वागायत्रिणोऽर्चन्त्यर्कमर्किणः।

-ऋग्वेद 1।10।1

गायत्री का गान करने वाले तेरे ही गुण गाते हैं। तेज के उपासक उसी से सूर्य की उपासना करते हैं।

यद्गायत्रे अधिगायत्र महितम्।

-ऋग्वेद 1।164।23

जिसका गायन करते हैं, उसे गायत्री कहते हैं।

यद् गायत तद् गायत्री।

-शत.

जिसे गाते हैं वह गायत्री।

गायन्तं त्रायतं इति गायत्री।

-गोपथ.

जो गाने वाले का त्राण करे वह गायत्री।

त्रायन्ती गायतः सर्वान् गायत्रीत्यभिधीयते।

-अहि. बु. स. 3।16

सभी गान करने वालों की रक्षा करती है इसे गायत्री कहते हैं।

तमेत देव गायत्रं साम गायन्न त्रायत।

यद् गायन्न त्रायत तद् गायत्र स्य गायत्रत्वम्।।

-जै. व्रा. 3।38।4

जो गायत्री का गान करता है, गायत्री उसकी रक्षा करती है।

गायत्री प्रोच्यते तस्यात् गायन्तं त्रायते यतः।

गायनात् त्रायते यस्मात् गायत्री तेन कथ्यते।

गायन करने वाले का त्राण-उद्धार करती है इसलिए इस महा शक्ति को गायत्री कहते हैं।

गायन्तं त्रायते यस्माद् गायत्री तिस्मृता बुधै।

-भारद्वाज स्मृति 6।146

अर्थात्- ‘‘गायन करने वाले का त्राण करने वाली होने से यह गायत्री कहलाती है।’’

गातार त्रायते यस्माद् गायत्री ते न गीयते।

-स्कन्द पुराण काशी खण्ड

‘‘गाने वाले की रक्षा करती है, इसी से इसको गायत्री कहा जाता है’’

गायत्री प्रोच्यते तस्मात् गायंतं त्रायते यतः।

गायनात् त्रायते यस्मात् गायत्री तेन कथ्यते।

गायन करने वाले के प्राणों का उद्धार करती है। जिसका गान करने से उत्कर्ष होता है, उसे गायत्री कहते हैं।

गायतो मुखाद् उदपतदिति गायत्री

-निरक्त 7।12

सबसे प्रथम गान करते हुए परमेश्वर के मुख से जो गीत निकला वही गायत्री है।

सर्वेषामेव वेदानां गुह्योपषिदां तथा।

सार भूता तु गायत्री निर्गता ब्रह्मणो मखम्।

सब वेदों और गुह्य उपनिषदों का सार रूप ब्रह्माजी के मुख से गायत्री मन्त्र प्रकट हुआ।

मन्त्र छन्द की दो विशेषताएँ हैं एक तो उसमें साधक की अन्तरात्मा के गहन मर्मस्थल से निकलने वाली दिव्य सम्वेदनाएँ घुली रहती हैं दूसरे विशिष्ट शब्द गुंथन के आधार पर रचे हुए मन्त्र जब गुन-गुनाये जाते हैं तो उनसे अलौकिक ध्वनि तरंगें निसृत होती है। इस दुहरे समन्वय से शब्द की अणु विस्फोट स्तर जैसी प्रचण्ड शक्ति का उद्भव होता है। इसका प्रभाव साधक के समूचे व्यक्तित्व पर छा जाता है और समीपवर्ती वातावरण के विशेष रूप में तथा दूरवर्ती वातावरण को सामान्य रूप में प्रभावित करता चला जाता है। इसी मन्त्र साधना से व्यष्टि और समष्टि को समान रूप से लाभ मिलता है।

मन्त्रों में अक्षरों का गुँथन स्वर शास्त्र की विशिष्ट प्रक्रिया के साथ सम्पन्न हुआ है। उनके उच्चारण में जो ध्वनि तरंगें निकलती हैं वे न केवल साधनकर्त्ता को वरन् समस्त वातावरण को प्रभावित करती हैं। किसी विशेष प्रयोजन के लिए भी उनका प्रयोग हो सकता है। जिस चूल्हें में आग जलाई जाती है वह गरम होता है। उसके निकट बैठने वाला शीत कष्ट से मुक्त होता है। चूल्हे के समीपवर्ती वातावरण में गर्मी आती है और फिर उस आग पर दाल पकाने जैसा कोई काम लेना हो तो वह भी पूरा होता है। मन्त्रानुष्ठान को चूल्हा जलाने की उपमा दी जा सकती है जिससे कई प्रयोजन एक साथ सिद्ध होते हैं।

सर्प को संगीत शास्त्र का ज्ञान नहीं होता और न वह उस वादन के साथ गाये जा रहे गीत का भाव समझता है इस पर भी स्वर लहरी मात्र से वह तरंगित हो उठता है। बहेलियों द्वारा बजाये हुये मधुर वादन पर मोहित होकर हिरन खड़े हो जाते हैं और उस सरसता पर मुग्ध होकर अपने तन की सुधि−सुधि गँवा बैठने से पकड़े जाते हैं। छोटे बच्चे तथा अन्य प्राणी जिन्हें संगीत के रहस्यों की जानकारियाँ नहीं हैं वे भी उन मधुर ध्वनि तरंगों पर प्रसन्नता व्यक्त करते देखे जाते हैं। यह स्वर लहरी अपने आप में अतीव उल्लास भरी होती है और अपनी अदृश्य क्षमता से प्राणधारियों में अद्भुत हलचल उत्पन्न करती है। यह भौतिक वाद्य यन्त्रों और उनके द्वारा निसृत कानों द्वारा सुनी जा सकने वाली संगीत ध्वनियों की बात हुई। मानव शरीर रूपी वाद्य यन्त्र अपने ढंग का अद्भुत है इसमें षट्चक्र और सप्तम सहस्रार कमल सात स्वर दिव्य संगीत के आधार हैं। इस वीणा का मध्य भाग मेरुदंड, ऊर्ध्व भाग सिर और नीचे का हिस्सा नितम्ब क्षेत्र है। नासिका द्वारा पहुँचने वाली वायु, इड़ा, पिंगला के रूप में दो उँगलियों के सहारे इससे जो दिव्य ध्वनियाँ प्रवाहित करती हैं उनका संगीत यदि सुना जा सके तो प्रतीत होगा कि नाद ब्रह्म के श्रवण का ब्रह्मानन्द कितना दिव्य एवं कितना आह्लादकारी है। इससे न केवल साधक वरन् सृष्टि का कण−कण गुँजित और प्रतिध्वनित होता है।

गायत्री मन्त्र तारवाद्य से निनादित जो स्वर लहरी उत्पन्न करता है उसे एक शब्द में अलौकिक ही कह सकते हैं। मेरुदंड लगे कोटि−कोटि तार जब झंकृत होते हैं और चक्र संस्थानों में जब अनाहत नादों का गुँजन होता है तो उसे नादयोग के साधनकर्त्ता सुनते−सुनते मन्त्र मुग्ध बनकर रह जाते हैं।

संगीत वाद्य यन्त्रों में स्वर सप्तक एक व्यवस्थित क्रम शृंखला से लगाये जाते हैं और अमुक ध्वनि बजाने के लिए उँगलियों का संचालन एक विशेष क्रम से किया जाता है ठीक वही प्रक्रिया शरीर में लगे सूक्ष्म शक्ति स्रोतों की मूर्छना जगाकर प्रखरता उत्पन्न करने के लिए कार्यान्वित की जाती है। गायत्री मन्त्र में अक्षर इसी क्रम से जुड़े हैं कि उनका उच्चारण सूक्ष्म शक्तियों के जागरण में आवश्यक गतिशीलता उत्पन्न कर सकें। उसका उच्चारण क्रम भी अपने आप में ऐसा अद्भुत है कि उससे उत्पन्न गतिशीलता एक नहीं अनेक दिव्य उत्पादनों के रूप में परिलक्षित हो सकती है।

जानुदघ्नं चिन्वीत प्रथमं चिन्वानो गायत्रिय वेमं लोकमभ्यारोहति नाभिदघ्नं चिन्वीत।

−तैं॰ स॰ 5। 6। 8

गायत्री का उच्चारण मुख से लेकर नाभि पर्यन्त अपना प्रभाव विस्तीर्ण करता है।

एकः शब्दः सम्यग् ज्ञातः सुष्टु प्रयुक्तः स्वर्गे लोके च कामधुग् भवति। (श्रुति)

“शब्द के अर्थ का सम्यक् ज्ञान होने और उसका उचित रीति से प्रयोग करने से स्वर्गलोक और समस्त मनोरथों की पूर्ति होती है।”

शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है−

शब्दो वै ब्रह्म।

अर्थात्−शब्द निश्चित रूप से ब्रह्म है।

तीक्ष्णेषवो ब्राह्मणा हेतिमन्तो, यामस्यन्ति शरव्या न सा मृषा। अनुहाय तपसा मन्युना चोत, दूरादेव भिन्दन्त्येनम्॥

−अथर्व 5। 18। 9

जीभ जिसकी प्रत्यंचा है उच्चारण किया हुआ शब्द जिसका बाण है। संयम जिसका वाणाग्र है, तप से जिसे तीक्ष्ण किया गया है, आत्मबल जिसका धनुष है, ऐसा ब्राह्मण अपने मन्त्र बल से समस्त देवद्रोही तत्वों को बेध डालता है।

श्रीमद् भागवत के छूटे स्कन्द के सोलहवें अध्याय में आता है−

“शब्द ब्रह्म परब्रह्म मागेभ्या शाश्वती तनु”

अर्थात् ‘शब्द ब्रह्म’ और ‘परब्रह्म’ यह दोनों ही भगवान के नित्य और चिन्मय शरीर हैं।

ब्राह्मण ग्रन्थों में, समस्त लोकों में संव्याप्त और उसका निर्धारण नियन्त्रण करने वाली प्रकृति सत्ता को गायत्र कहा गया है−

“तमेत देव साम गायन्न त्रायत। यद् गायन्न त्रायत तद् गायत्रस्य गायत्र त्वम्।

जै॰ उ॰ 3। 38। 4

अर्थात्−समस्त लोकों में संव्याप्त साम गान को ऋषियों ने गायत्र्य कहा है।

वाणी का स्थान मुख है। इसलिए मुख को भी गायत्री कहा गया है।

मुखं गायत्री। −कौ0 11। 2

मुखमेव गायत्री। −ताण्ड0 7। 3। 7

मुख भी गायत्री ही है।

वाग्वै गायत्री, गायत्री वा इदं सर्वभूतम्।

−शत पथ

वाणी गायत्री है। सम्पूर्ण विश्व गायत्री से ओत−प्रोत है।

गायत्री की शब्द−शक्ति लय एवं ताल शक्ति से उत्पन्न ध्वनि प्रवाह के प्रभाव परिणाम को देखते हुए उसे वाक् देवी के नाम से पुकारा गया है। शब्द शक्ति की महिमा तथा गायत्री से निसृत ध्वनि प्रवाह की चर्चा शास्त्रों में इस प्रकार आती है।

गायत्री वा इद डडड सर्व भूतं यदिदं किचवाग्वे।

गायत्रा वाग्वा इद डडड सर्व भूतं गायत्री च त्रायत्रे च।

(छान्दोग्य−3)

“यह जो कुछ है, निश्चय ही गायत्री है। गायत्री ही समस्त जगत की सार और वाणी है। वाणी ही सारे संसार को गाती और बचाती है।”

गायत्री में सन्निहित शब्द शक्ति के साथ जो ब्रह्म वर्चस जुड़ा हुआ है उसका लाभ श्रद्धापूर्वक साधना करने वाला वाला सहज ही उठा लेता है।

गायत्री की ऐसी ही विशेषताओं को देखते हुए श्रद्धा भरा साधक स्तवन करता है।

सच्चिदानन्द रूपां तां गायत्री प्रतिपादिताम्। नमामि ह्रीं मंत्री देवी धियो यो नः प्रचोदयात॥

ततः परा-परा शक्तिः परमात्वे हि गीयसे। इच्छा शक्तिः क्रिया शक्ति र्ज्ञानशक्ति स्त्री शक्तिदा॥

त्वमेव ब्राह्मणोलोके अमर्त्यानुग्रह कारिणी। सप्तर्षि प्रिति जननी त्रिपदा वहु वर प्रदा॥

आदि शक्ते जगत्माता भक्तानुग्रह कारिणी। सर्वत्र कादिके अनन्तेश्ची संध्येतेनमो प्रस्तुते॥

त्वमेव संध्या गायत्री सावित्री च सरस्वती।

−गायत्री स्तोत्र

अर्थात्−गायत्री सत्चित्, आनन्द स्वरूपा, ह्रीं बीज वाली, सद्बुद्धि को प्रेरित करने वाली, पराशक्ति इच्छा शक्ति, ज्ञानशक्ति, क्रिया शक्ति, शक्तिदात्री नारी है। ब्रह्मलोक निवासिनी, देव अनुग्रह करने वाली, सप्त ऋषियों की जननी, त्रिपदा, वरदायिनी, आदिशक्ति, विश्व माता, भक्तों पर अनुग्रह करने वाली, सर्वव्यापी, अनन्त और संध्या गायत्री ही है। वही सावित्री और सरस्वती भी है।

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