सर्वतोमुखी समर्थता की अधिष्ठात्री गायत्री महाशक्ति

March 1976

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

इस विश्व में दो शक्तियाँ काम करती हैं− एक चेतन दूसरी जड़। पदार्थ देखने में ही स्थिर प्रतीत होते हैं पर वस्तुतः उनमें भी अद्भुत क्रियाशीलता विद्यमान है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई है− परमाणु। वह चर्मचक्षुओं से स्थिर स्तब्ध दिखाई पड़ता है, पर जब सशक्त सूक्ष्म दर्शक यन्त्रों से उनकी अन्तरंग स्थिति को देखा जाता है, तो प्रतीत होता है कि कितनी प्रचण्ड शक्ति और कितनी द्रुतगामी हलचल उनके भीतर काम कर रही है। अणु विश्लेषण−अणु विस्फोट के प्रयोगकर्त्ता जानते हैं कि पदार्थ का सबसे छोटा यह घटक भी अपने भीतर कितनी भयंकर क्षमता दबाये हुए है और वह क्षमता स्थिर न रहकर कितनी सक्रिय हलचलों में संलग्न है। अणु भट्टियों से उत्पन्न ताप द्वारा जो विशालकाय विद्युत उत्पादन योजनाएं चल रही हैं और अणु आयुधों द्वारा संसार भर का सर्वनाश करने की जो विभीषिका सामने खड़ी है, उसके मूल में परमाणु के अन्तराल में काम करने वाली प्रचण्ड सक्रियता ही मूल कारण है।

रेत, पर्वत, तालाब आदि को यों मोटी दृष्टि से स्थिर समझा जा सकता है, पर उनमें सृजन, अभिवर्धन और परिवर्तन का जो अनवरत क्रम चलता रहता है, उसे गम्भीरतापूर्वक देखने से प्रतीत होता है कि जीवधारी जिस प्रकार अपने विभिन्न प्रयोजनों में निरन्तर कुछ न कुछ सोचते और करते रहते हैं उसी प्रकार पदार्थ की दृश्य और अदृश्य गतिशीलता भी इस संसार को हलचल युक्त बनाये हुए है। अपनी पृथ्वी से लेकर असंख्य ग्रह−नक्षत्रों तक सभी ब्रह्माण्डीय पिण्ड द्रुतगति से अपनी धुरी और कक्षा पर भ्रमण कर रहे हैं और अपनी आकर्षण शक्ति के द्वारा एक दूसरे के साथ बँधे जकड़े हैं। इतना ही नहीं उनके अन्तः क्षेत्र में भी चित्र विचित्र गतिविधियाँ अत्यन्त तीव्रगति से चलती रहती हैं। पदार्थ के साथ यह सक्रियता अविच्छिन्न रूप से जुड़ी होने के कारण ही उसका अस्तित्व बना हुआ है। पदार्थ की संरचना प्रचण्ड क्रियाशीलता के साथ हुई है। इसी के कारण वस्तुएँ स्वयमेव−उपजती और बदलती रहती हैं। पदार्थ की इस क्रियाशीलता को अपरा प्रकृति कहा गया है।

परमाणु की तरह दूसरा घटक है−जीवाणु। जीवाणु का शरीर कलेवर तो रासायनिक पदार्थों से ही बना होता है, पर उसकी अन्तःचेतना मौलिक है जो पदार्थ की शक्ति से उत्पन्न नहीं होती, पर अपने प्रभाव से कलेवर को तथा समीपवर्ती वातावरण को प्रभावित करती है। इसे चेतना कहते हैं। चेतना के दो गुण हैं एक इच्छा एवं आस्था, दूसरी विवेचना एवं विचारणा है। इच्छा को भाव और विचारणा को बुद्धि कहते हैं। एक को अन्तरात्मा दूसरी को मस्तिष्क कह सकते हैं। मस्तिष्क जो सोचता है उसके मूल में आकाँक्षा, आस्था, विवेचना एवं विचारणा की सम्मिलित प्रेरणा ही काम करती है। इस जीव चेतना को परा प्रकृति कहते हैं।

परमाणु उसका सबसे छोटा घटक है, इसका संयुक्त रूप ब्रह्माणु अथवा ब्रह्माण्ड हैं। व्यष्टि और समष्टि के नाम से भी इस लघुता और विशालता को जाना जाता है। जीवाणु की चेतन सत्ता आत्मा कहलाती हैं और उसकी समष्टि विश्वात्मा परमाणु है। ब्रह्माण्ड में भरी क्रियाशीलता से परमाणु प्रभावित होता है। इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि परमाणुओं की संयुक्त चेतना ब्रह्माण्ड−व्यापी हलचलों का निर्माण करती है। इसी प्रकार चेतना के क्षेत्र में इसी तथ्य को परमात्मा द्वारा आत्मा को अनुदान मिलना अथवा आत्माओं की संयुक्त चेतना के रूप में परमात्मा का विनिर्मित होना कुछ भी कहा जा सकता है।

परमाणु का गहनतम विश्लेषण करने पर जाना गया है कि वह मूलतः ऋण और धन विद्युत प्रवाहों के मिलन के उत्पन्न होने वाली हलचल मात्र है। परिस्थिति के अनुसार यह हलचल ही दृश्य रूप धारण करती और पदार्थ के रूप में दृश्य होती चली जाती है। इसी प्रकार जीवात्मा भी यों स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर धारण किये अनेक प्रकार के साधन उपकरण संभाले दीखता है, उसकी अपनी अहंता और इच्छा भी है किन्तु मूलतः वह व्यापक चेतना का एक स्फुल्लिंग मात्र है। उसे विभिन्न प्रकार की क्षमताएँ विश्वात्मा के महा समुद्र में से ही मिलती हैं। मछली का शरीर, आहार, निर्वाह सब कुछ जलाशय पर ही अवलम्बित है इसी प्रकार जीव भी ब्रह्म पर आश्रित है। इतने पर भी विचित्रता यह है कि मछली तालाब को गन्दा कर सकती है और जीव ब्रह्म को प्रभावित कर सकता है।

गायत्री क्या है? इस ब्रह्माण्ड में संव्याप्त उस चेतना मानसरोवर को गायत्री कह सकते हैं जो प्राणियों में ज्ञान सम्वेदना और पदार्थों में सृजन परिवर्तन वाली क्रियाशीलता बनकर काम करती है। इसे ब्रह्म चेतना से उद्भूत माना गया है। ज्ञान से कर्म बना और दृश्य ने अपना दृश्य कलेवर धारण कर लिया। इस प्रकार यह विश्व मूलतः अद्वैत होते हुए भी द्वैत बन गया। ब्रह्म से प्रकृति बनी और फिर वे दोनों मिल−जुलकर सृष्टि का इतना विकास कर सके जैसा कि हमें दृष्टिगोचर होता है। इसी तथ्य को पुराणों में अनेकों अलंकारिक कथा, उपाख्यानों के रूप में बताया गया है।

ब्रह्माजी की दो पत्नियाँ थीं−एक गायत्री दूसरी सावित्री। ब्रह्म की दो क्षमताएँ हैं− एक परा प्रकृति चेतन सत्ता, दूसरी अपरा प्रकृति पदार्थ सत्ता। एक का धर्म ज्ञान दूसरी का कर्म है। एक अदृश्य है दूसरी दृश्य। एक सजीव है दूसरी निर्जीव। इतने पर भी उनका उद्गम स्रोत एक है। हिमालय के अन्तराल में से गंगा और यमुना दोनों ही धारा निकली हैं। ब्रह्म से ही परा और अपरा प्रकृति का उद्भव हुआ है।

गायत्री को मूलतः ब्राह्मी शक्ति कह सकते हैं। समुद्र की असंख्य लहरें पृथक् पृथक् दीखती हैं और उनकी आकृति−प्रकृति में भी भिन्नता रहती है। इतने पर भी समुद्र की सतह पर होने वाली हलचल ही इन लहरों का सृजन करने का मूलकारण हैं। गायत्री महा शक्ति के चेतन और जड़ विभाजन तो आरम्भिक हैं। आगे चलकर गंगा और यमुना में उठने वाली अनेकों लहरें, धाराएँ तथा भँवर आदि के रूप में उत्पन्न होने वाली हलचलों की तरह उस ब्रह्म शक्ति की भी अनेकानेक धाराएँ हैं। इन्हें विभिन्न नाम दिये गये हैं। गायत्री के भी अनेकों नाम, रूप हैं। गायत्री सहस्रनाम में उसके एक हजार नाम गिनाये गये हैं। इन्हें उस महान शक्ति सागर की लहरें, तरंगें कह सकते हैं। हर सहस्रनाम से तात्पर्य उस ब्राह्मी शक्ति के प्रकारों को अमुक गणना में सीमाबद्ध कर देना नहीं वरन् उसका तात्पर्य है−असंख्य। सहस्रनाम तो नमूने भर के लिए गिनाये गये हैं।

गायत्री ब्रह्म शक्ति के स्वरूप क्रिया−कलाप एवं उपयोग को शास्त्रों में अनेक उदाहरणों के साथ बताया गया है। कहीं तो उस शक्ति ने स्वयं ही अपने स्वरूप का परिचय दिया है और कहीं देवताओं ने अथवा ऋषियों ने स्तवन के रूप में उसके स्वरूप का गुण−गान सहित वर्णन किया है। इन वर्णनों के आधार पर यह जाना जा सकता है कि गायत्री शक्ति तत्व का इस संसार में कहाँ किस प्रकार उपयोग हो रहा है?

गायत्री परदेवतेति गाहिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी।

यह गायत्री सबसे परा देवता है−ऐसा कहा गया है। यह चित् स्वरूप वाली साक्षात् ब्रह्म ही है।

गायत्री तु तरं तत्वं गायत्री परमागतिः।

−वृद्ध पारासर 5। 4

गायत्री ही परम तत्व है। गायत्री ही परमगति है।

गायत्री सा महेशानी परब्रह्मात्मिका यता।

−रुद्र तन्त्र

यह गायत्री ही परब्रह्मात्मिका और महेश्वरी है।

गायत्री परदेवतेति गदिता ब्रह्मैव चिद्रूपिणी।

−गायत्री पुरश्चरण पद्धति

पर देवता, चित् रूपिणी एवं साक्षात् ब्रह्म गायत्री ही है।

तदक्षरं तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा च तस्याः प्रसृता परा सा।

−गुह्योपनिषद

वही अक्षर ब्रह्म है। वह तत्सवितुर्वरेण्यं प्रज्ञा है। सुविस्तृत परा शक्ति है।

या देवी सर्व भूतेषु शक्तिरुपेण संस्थिता। नमस्तत्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ इन्द्रियाणामधिष्ठात्री भूतानां चाखिलेषु या। भुतेषु सततं तस्यै व्याप्तयै देव्यै नमो नमः।

−मार्कण्डेय पुराण

जो महाशक्ति सम्पूर्ण प्राणियों में शक्ति रूप विद्यमान है। इन्द्रियों की अधिष्ठात्री देवी है एवं पंच तत्वों की संचालिका है उसे बार−बार नमस्कार।

गायत्री वा इदœसर्वं भूतं यदिदं कि च बाग्वै गायत्री बाग्वा इदœसर्वं भूतं गायति च त्रायते च।

या वै सा गायत्रीयं वाव सा येयं पृथिव्यास्या−œहीदœसर्वं भूतं प्रतिष्ठितमेतामेव नातिशीयते।

−छान्दोग्य 3। 12। 12

गायत्री समस्त पंच भूतों में व्याप्त है। जो कुछ यहाँ है सो सब गायत्री ही है। वाणी ही गायत्री है। यह वाणी ही वर्णन और रक्षण करती है। यह पृथ्वी गायत्री है जिसमें सम्पूर्ण प्राणी रहते हैं।

सैषा चतुष्पदा षड्विधा गायत्री तदेतदृचा भ्यनूत्तम। तावानस्य महिमा ततों ज्यायाœश्च पूरुषाः। पादोऽस्य सर्वाभूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवीति।

−छान्दोग्य 3। 12। 5

यह गायत्री चार पद वाली और छह भेदों वाली है। इस गायत्री की अविच्छिन्न महिमा है। यह तीन पाद वाला परम पुरुष अमृत और प्रकाश बनकर आत्मा में स्थित हो। इसका एक पद सन्तोष विश्व है।

गायत्री की चेतनात्मक धारा सद्बुद्धि के−ऋतम्भरा प्रज्ञा के रूप में काम करती है और जहाँ उसका निवास होता है वहाँ ब्राह्मणत्व एवं देवत्व का अनुदान बरसता चला जाता है, साथ ही आत्मबल के साथ जुड़ी हुई दिव्य विभूतियाँ भी उस व्यक्ति में बढ़ती चलीं जाती हैं। इस तथ्य का उल्लेख शास्त्रों में इस प्रकार हुआ है−

सर्वदा स्फुरसि सर्वहृदि वासयसि। नमस्ते परारुपे नमस्ते पश्यन्तीरुपे नमस्ते मध्यमारुपे नमस्ते वैखरीरुपेसर्व तत्त्वात्मिके सर्वविद्याऽऽत्मिके।

सर्वक्त्यात्मिके सर्वदेवात्मिके वशिष्ठेम मुनिनाऽऽराधिते विश्वामित्रेण मुनिनोपसेव्यमाने नमस्ते नमस्ते।

−अक्षिमालिकोपनिषद

हे महाशक्ति तुम सर्व विद्यमान हो, सर्वत्र स्फुरण करती हो, सभी हृदयों में तुम्हारा निवास है, परा पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी वाणियाँ तुम्हारे ही रूप हैं, तुम तत्व रूपिणी हो, सर्व विद्यामय हो, समस्त शक्तियों की अधिष्ठात्री हो, सब देवताओं की आराध्य हो। वशिष्ठ और विश्वामित्र ऋषियों ने तुम्हारी ही उपासना करके सिद्धि पाई। तुम्हें बार−बार नमस्कार है।

मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञान रूपिणीं। ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी॥

वह महाशक्ति मन्त्रों में मातृका रूप, शब्दों में ज्ञान रूप, ज्ञानियों में चिन्मयातीत और शून्य वादियों में शून्य रूप हैं।

ब्रह्माविद्यां जगद्धीत्रीं सर्वेषां जननीं तथा। यया सर्वमिद व्याप्तं त्रैलोक्यं सचराचरम्॥

त्वं भूमिः सर्वभूतानां प्राणः प्राणवतां तथा। धीः श्रीः काँतिः क्षमा शाँतिः श्रद्धाः मेधाः धृतिः स्मृतिः त्वमुद्गोथेऽर्धमात्राऽसि गायत्री व्याहृतिस्तथा। जया च विजया धात्री लज्जा कार्तिः स्पृहा दया।

−देवी भागवत

आप ही समस्त भूतों की भूमि और प्राणियों की प्राण हो। आप ही जगद्धात्री ब्रह्म विद्या हैं। धी, श्री, कान्ति, क्षमा, शान्ति, श्रद्धा, मेध, धृति स्मृति आप ही हैं। आप ही ओंकार के मस्तक पर विराजमान अर्ध बिन्दु हैं। गायत्री व्याहृति, जया, विजया, धात्री, लज्जा, कीर्ति, स्पृहा, और दया आप ही हैं।

गायत्री द्वारेण चोच्यते ब्रह्म ब्रह्मणः सर्व विक्षेप रहितस्य नेति नेतीत्यादिविशेष प्रतिषेध गम्यस्य दुर्वाध त्वात्। सत्स्वने केषु छन्दःसु गायत्र्या एव ब्रह्म ज्ञान द्वारतयोपादानं प्राधान्यात्। सोमा हरणात् इतरछन्दोऽक्षराहरणे नेतरछन्दो व्याप्त्या च सर्व सघन व्यापकत्वाच्च यज्ञे प्राधान्यं गायत्र्याः। गायत्री सारत्वाच्च ब्राह्मणस्य मातर−मिव हित्वा गुरुतरां गायत्रीं ततोऽन्यद् गुरुतरम् न प्रतिपद्यते यथोक्तं ब्रह्मापीति। तस्यामव्यन्त गौरवस्य प्रसिद्ध त्वात। अतो गायत्री मुखनैव ब्रह्मोच्यते।

-छान्दोग्य 3। 12। 1 शंकरभाष्य

अर्थात्−ब्रह्म का निरूपण गायत्री के द्वारा ही किया जाता है। ब्रह्म जाति गण रहित, नेति−नेति और निर्निवेष होने से जानने में बहुत ही कठिन दुर्विज्ञेय है। पर वह गायत्री द्वारा जाना जा सकता है। यों अनेक मन्त्र हैं, पर ब्रह्म ज्ञान को प्राप्त कराने वाला प्रधान छन्द गायत्री ही है। सोमरस की प्रधानता, इतर छन्दों का सारतत्व एवं समस्त कर्मों के उपयुक्त होने के कारण यज्ञ कर्म में गायत्री की ही प्रधानता मानी गई है। ब्राह्मणत्व का सारतत्व गायत्री है। अर्थात् जिसमें यह गायत्री तत्व सन्निहित है वही सच्चा ब्राह्मण है। माता के सामान इस अनन्त महिमामयी गायत्री को छोड़कर अन्यत्र नहीं भटकना चाहिए। यही सर्वोत्तम सिद्धि मन्त्र है। स्फुट ब्रह्म का प्रतिपादन इसी में है। सर्वाधिक गुण गरिमा युक्त गायत्री का गौरव प्रसिद्ध है। ब्रह्म का निरूपण गायत्री द्वारा ही किया जाता है।

गायन्तित्वा गायत्रिणों ऽर्चन्त्यर्क मर्किणः। ब्रह्मणस्त्वा शतक्रता उदवंशमिव मेमिरे॥

−ऋग्वेद 1। 10। 1

हे माता गायत्री, मन्त्रवेत्ता तेरा ही गुण गान करते हैं। गायत्री मन्त्र द्वारा यजन करने वाले कर्मयोगी, याजक यज्ञ याग द्वारा सविता शक्ति सावित्री की ही अर्चना करते हैं। हे करुणामयी माँ, वेद वेत्ता विद्वान तेरे ही नाम की यश पताका लिये फिरते हैं।

देवी दात्री च भोक्त्री च देवी सर्व मिदंजगत्। देवी जयति सर्वत्र या देवी साहमेव च॥

सर्वात्मना हि सा देवी सर्व भूतेषु संस्थिता। गायत्री मोक्ष हेतुर्वैं मोक्ष स्थानम लक्षणम्॥

−ऋष्यसृंग

अर्थात्−‘‘गायत्री देवी देने वाली और भोगने वाली है यह समझ लेना चाहिए कि समस्त जगलडडडड गायत्रीमय ही है। सर्वत्र देवी की ही विजय होती है और जो गायत्री देवी है वही मैं हूँ। वहाँ देवी सबकी आत्मा है जो सब में निवास करती है। गायत्री मोक्ष का हेतु है और वही मोक्ष का लक्ष्य है।’’

ब्राह्मण्यशक्तिर्विप्रेषु देवशक्तिः सुरेषु सा। तपस्विनां तपस्या गृहिणां गृहदेवता।

मृक्तिशक्तिश्च मुक्तानामाशा सांसारिकस्य सा। मद्भक्तानां भक्ति शक्ति र्मयि भक्तिप्रदा सदा।

−ब्रह्मबैवर्त

वह ही विप्रों में ब्राह्मण्य शक्ति होती है और सुरीं में वही देवशक्ति है। तपस्वियों में वही तपस्या है और गृहियों में गृह देवता भी वही होती है। मुक्त जनों में वही मुक्त शक्ति होती है और साँसारिक पुरुष में वह ही आशा होती है और साँसारिक पुरुष में वह ही आशा होती हैं तथा मेरे भक्तों में वही भक्ति के रूप में रहा करती है जो मुझ में सदा भक्ति प्रदा होती है।

या देवी सर्वभूतेषु चैतन्येत्यभिधीयते। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥

जो शक्ति सब प्राणियों में चेतना रूप से विद्यमान है, उसे अनेक बार नमस्कार।

सं उतत्वः पश्यन्नददर्शवाचमुतत्तः शृवन्नशृणोत्येनाम् उतो त्वस्मैतन्वां विसस्रे जायेपत्यवउशतीसुवासाः

−सरस्वती रहस्योपनिषद्

हे भगवती वाक् तुम्हारी कृपा से ही सब लोग बोलते हैं। तुम्हारी कृपा से ही विचार करना संभव होता है। तुम्हें जानते हुए भी जान नहीं पाते। देखते हुए भी देख नहीं पाते। जिस पर तुम्हारी कृपा होती है वही तुम्हें समझ पाता है।

सच्चिदानन्दरुपाम् ता गायत्री प्रतिपादिताम्। नमामि ह्रींमयीं देवी धियो यो नः पचोदयात्॥

−देवी भागवत

ह्री शक्ति सम्पन्न, सच्चिदानन्द रूप में प्रतिपादित महिमामयी गायत्री माता को नमस्कार। वे हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग पर प्रेरित करें।

पुरस्सरी में पुरुषार्थदात्री मित्रो भवित्री भजताभवित्री पवित्रयन्ती सुपदक्रमैर्गा सावित्री वेलार्चित ॐन्नमस्ते॥

“मेरे सम्मुख चलने वाली, पुरुषार्थ देने वाली, मित्र होने वाली, भक्तों का रक्षण करने वाली, सुन्दर चरणों के विन्यास से भूतल को और सुन्दर वचनों की रचनाओं से वाणी को पवित्र करने वाली, याज्ञिकों से त्रिकाल पूजित हे माता! प्रणव स्वरूप तुझको नमस्कार है।”

या प्राणेन सम्भवत्यदितिर्देवतामयी जुहां प्रविश्य तिष्ठन्ती या भूतेभिर्व्य जायत। एतद्वैतत्।

-कठ॰ 2। 1। 7

अर्थात्−‘‘जो देवतामयी अदिति प्राण रूप से प्रकट होती है तथा जो बुद्धि रूप से गुहा (हृदय) में स्थिति है और सब भूतों (पंचभूतों) के साथ उत्पन्न हुई है, उसे देखो। निश्चय ही यही वह तत्व है।’’

नमस्ते देवि गायत्रि, सावित्रि त्रिपदेऽक्षरे। अजरे−अमरे मातस्त्राहि मां भवसागरात्। नमस्ते सूर्य संकाशे सूर्य सावित्रि केऽयले। ब्रह्मविद्ये महाविद्ये वेद मातर्नमोस्तुते। अननन्त कोटि ब्रह्माण्डव्यापिनि ब्रह्मचारिणि॥

नित्यानन्दे महामाये परेशानि नमोस्तुते। त्वं ब्रह्मा त्वं हरिः साक्षात् सद्रस्त्वं चेन्द्र देवता। भिन्नस्तं वरुणस्त्वं च त्वमग्निरश्विनौ भगः। पूषाऽर्यमा मरुत्वांश्च ऋषियोऽपि मुनीश्वरा। पितरों नागयक्षाश्च गन्धर्वाप्सर सां गणाः। रक्षो भूतपिशाचा त्वमेव परमेश्वरि॥

ऋग्यजुः सामवेदा श्व अथर्वांगिरसानि च। त्वमेव पंच भूतानि तत्वानि जगदीश्वरि। ब्राह्मी सरस्वती सन्ध्या तुरीयां त्वं महेश्वरी। त्वमेव सर्वशास्त्राणि त्वमेव सर्व संहिताः। पुराणि च तन्त्राणि महागममतानि च। तत्सद् ब्रह्म स्वस्पा त्वं किञ्चित्सद सदात्मिका परात्परेशी गायत्री नमस्ते मातरम्बिके। चन्द्रे कलात्मिके नित्ये कालरात्रि स्वघेस्वरे॥

स्वाहाकारे अग्निवक्त्रेत्वां नमानि जगदीश्वरि। नमो नमस्ते गायत्रि सावित्रि त्वांनमान्यहम्। सरस्वति नमस्तुभ्यं तुरीये ब्रह्म रूपिणि।

−वशिष्ठ संहिता

हे देवि गायत्री, सावित्री, त्रिपदे, अक्षरे, अजरे, अमरे आपको नमस्कार है। मेरी भवसागर से रक्षा करें। हे सूर्य सदृश्य तेजस्विनी, सविता की शक्ति सावित्री, निर्मल, आपको नमस्कार है। ब्रह्मविद्या, महाविद्या, वेदमाता, अनन्त कोटि ब्रह्माण्डों में व्याप्त, ब्रह्म में विचरण करने वाली, नित्य आनन्द स्वरूप, महामाया आपको नमस्कार है। आप ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश,चन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, अश्विनी कुमार, भग, पूषा अर्यमा मरुत हैं। आप ही ऋषि, मुनि, पितरनाग यक्ष गन्धर्व अप्सरा गण, भूत, पिशाच आदि में व्याप्त हैं। आप ही चारों वेदों में तथा अंगिरस मन्त्र में संव्याप्त हैं। पंचभूत एवं तत्व आप ही हैं। ब्राह्मी, सरस्वती, संध्या, तुरीयावस्था, महेश्वरी, आप ही हैं। समस्त शास्त्र, संहिताएँ, पुराण, तन्त्र महागम, यत, सत−असत् एवं ब्रह्म स्वरूप परात्पर आप को नमस्कार है। माता, अम्बिका, चन्द्रकला, नित्य, कालरात्रि स्वधा, स्वाहा, अग्निमुख, हे गायत्री सावित्री आपको बारबार नमस्कार है।

यह दृश्य जगत् पदार्थमय है। इसमें जो सौन्दर्य, वैभव, उपभोग सुख दिखाई पड़ता है वह ब्रह्म की अपरा प्रकृति का अनुदान है। यह सब गायत्री मय है। सुविधा की दृष्टि से इसे सावित्री नाम दे दिया गया है ताकि पदार्थ क्षेत्र में उसके चमत्कारों को समझने में सुविधा रहे। गायत्री की स्थूल धारा सावित्री को जो जितनी मात्रा में धारणा करता है वह भौतिक क्षेत्र में उतना ही समृद्ध सम्पन्न बनता जाता है। इस विश्व में बिखरी हुई शोभा सम्पन्नता को उसी महाशक्ति का इंद्रियों से अनुभव किया जा सकने वाला स्वरूप कह सकते हैं। इसकी चर्चा इस प्रकार हुई है−

ईश्वरोऽहम् च सूत्रात्माविराडात्माऽहमस्मि च। ब्रह्माऽहम् विष्णुरुद्रौ च गौरी ब्राह्मी च वैष्णवी। सूर्योऽहम् तारकाश्चाहं तारकेशस्तथाऽम्यहम्। यच्च किंचित्कवचिद्वस्तु दृश्यते श्रूयतेऽपि वा। अन्तर्बहिश्च तत्सर्वं व्याप्याहम् सर्वदा स्थिता।।

अपश्यस्ते महादेव्या विराड्रूपं परात्परम्। द्यौर्मस्तकं भवेद्यस्य चन्द्रसूर्यौ च चक्षुषी॥

दिशः श्रोत्रे वचो वेदाः प्राणो वायुः प्रकीर्तितः। विश्वं हृदयमित्याहुः पृथ्वी जघन स्मृतम्। नभस्तल नाभिसरो ज्योतिश्चक्रमूरः स्थलम्। महर्लोकस्तु ग्रीवा स्याज्जन लोको मुख स्मृतम्। तपोलोको रराटिस्तु सत्यलोकादधः स्थितः। इन्द्रादयो बाहवः स्युः शब्दः श्रोत्रं महेशितुः। नासत्यदस्रौ नासे स्तो गन्धो घ्राणं स्मृतो वुधैः। मुखमग्नि समाख्यातो दिवारात्री च पक्ष्मणी। एतादृशं महारुपं ददृशः सुरपुंगवाः। ज्वालामालासहस्राढ्यं लेलिहानं च जिह्वया। सहस्रशीर्षनयनं सहस्रचरणं तथा। कोटि सूर्य प्रतोकाश विद्युत्काटिसमप्रभम्। भयकरं महाघोरं हृदक्ष्णोस्व्रासकारकम्।

−देवी भागवत

मैं ही अणु, मैं ही विक्षु हूँ। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, गौरी, ब्राह्मी, वैष्णवी मैं ही हूँ। सूर्य चन्द्र, तारागण मैं ही हूँ। जो कुछ भी दिखाई पड़ता है या सुना जाता है जो कुछ भीतर बाहर है। उस सब में मैं ही व्याप्त हूँ।

देवताओं ने उसका विराट् रूप देखा। उसका मस्तक−आकाश, सूर्य−चन्द्रमा−नेत्र, दिशायें, कान, वेद−वाणी, वायु−प्राण, विश्व−हृदय, पृथ्वी−जंघा, पाताल−नाभि, महःलोक ग्रीवा, जनःलोक−मुख, सत्यलोक−अधः, तपोलोक−ललाट, इन्द्र−बाहु, शब्द−कान, अश्विनी कुमार−नासिका, गन्ध−नासिका, दिन−रात पलकें देखी।

देवताओं ने भगवती के ऐसे विराट् रूप के दर्शन किये। उसके शरीर में से असंख्य ज्वालाएँ निकल रही थीं। उसके हजारों सिर, हजारों नेत्र, हजारों चरण थे। करोड़ों सूर्यों और बिजलियों जैसी दीप्ति निकल रही थी।

शक्तिवान के साथ शक्ति जुड़ी होती है। यह ब्रह्म शक्ति का समन्वय युग्म है। प्रत्येक शक्तिवान की सामर्थ्य को उसी संव्याप्त क्षमता का स्वरूप कहा जा सकता है। इसे पति−पत्नी के रूप में उदाहरणों सहित चित्रित किया गया है। समर्थों की सामर्थ्य के रूप में विशिष्टों की विशेषता के रूप में इस महाशक्ति के दर्शन स्थान−स्थान पर किये जा सकते हैं। इसका अलंकारिक वर्णन देवी भागवत में इस प्रकार हुआ है।

ईशानपत्नी सपंत्तिः पूजिता च सुरैर्नरैः। सर्वे लोका दरिद्राश्च विश्वेषु च यया बिना। पुण्यपत्नी प्रतिष्ठा सा पूजिता पुण्यदा सदा। सुकर्मपत्नी संसिद्धा कार्तिधन्यैश्च पूजिता। क्रिया तूद्योगपत्नी च पूजिता सर्व संमता। शान्तिलज्जा च भार्ये द्वे सुशीलस्य च पूजिते। ज्ञानस्य तिस्रो भार्याश्च बुद्धिर्मेधा धृतिस्तथा। कालाग्नी रुद्रपत्नी च निद्रा सा सिद्धयोगिनी। कालस्य तिस्रो भार्याश्च संध्या रात्रिर्दिनानि च। निद्रा कन्या च तन्द्रा सा प्रीतिकन्या सुखाप्रिये। नैराग्यस्य च द्वे भार्ये श्रद्धा भक्तिश्च पूजिते। अहिल्या गौतमस्त्री साऽप्यनसूयाऽत्रिकामिनी।

−देवी भागवत

ईशान पत्नी सम्पत्ति तुम्हीं हो। तुम्हारे बिना समस्त संसार दरिद्र हो जाता है। पुण्य की पत्नी प्रतिष्ठ तुम्हीं हो। सुकर्म की पत्नी कीर्ति के रूप में तुम्हीं को देखा जाता है। उद्योग की पत्नी क्रिया−शील की दो पत्नियाँ शान्ति और लज्जा तुम्हारी ही प्रतीक हैं। ज्ञान की तीन पत्नियाँ बुद्धि, मेधा और धृति तुम्हीं हो। धर्म की पत्नी−कान्ति, रुद्र, पत्नी तुम्हीं हो। काल की संध्या, रात्रि और दिन के रूप में तुम्हीं दृश्यमान हो। वैराग्य की दो पत्नियाँ श्रद्धा और भक्ति के रूप में तुम्हीं पूजी जाती हो। बृहस्पति की पत्नी तारा, वशिष्ठ की पत्नी अरुन्धती, गौतम की पत्नी अहिल्या, अत्रि पत्नी अनुसूया तुम्हीं हो।

संसार में जितने भी अभाव और कष्ट हैं जितनी भी आधिक व्याधियाँ हैं उन सब को शक्ति की न्यूनता का प्रतिफल ही समझा जाना चाहिए। आत्म शक्ति के अभाव में मनुष्य की विचारणा निकृष्ट बनती है और प्रतिभा के अभाव में सुख−साधनों से वंचित रहना पड़ता अस्तु शक्ति संचय के निरन्तर प्रयत्न करने चाहिए भौतिक समर्थता किस प्रकार प्राप्त होती है इसे सब जानते हैं पर आत्मिक तेजस्विता किस प्रकार पाई जा सकती है इसका मार्ग अध्यात्म विज्ञान में बताया गया है। गायत्री साधना उसी के लिए की जाती है। शक्ति के अभाव में दुर्बलता और दुर्गति होने की चर्चा इस प्रकार आती है।

अनुमानमिदं राजन्कर्त्तव्यं सर्वथा बुधैः। दृष्ट्वा रोगयुतान्दीनान्क्षुधितान्निर्धनाञ्छठान्॥

जनानार्तास्तथा मूर्खान्पीडितान्वैरिभिः सदा। दासानाज्ञाकरान्क्षुद्रान्विकलान्विह्वलानथ। अतृप्तान्भोजने भोगे सदार्तांनजितेंद्रियान्। तृष्णाधिकानशक्तांश्च सदाधिपरिपीडितान॥

−देवी भागवत

हे राजन् तुम कहीं पर लोगों को रोगी, दीन दरिद्र भूखे−प्यासे, शठ, आर्त, मूर्ख, पीड़ित, पराधीन, क्षुद्र, विकल, विह्वल, अतृप्त, असंतुष्ट, इन्द्रियों के दास, अशक्त और मनोविकारों से पीड़ित देखो तो समझना इन्होंने शक्ति का महत्व नहीं समझा और उसकी उपेक्षा अवहेलना की है।

गायत्री उपासना आत्म शक्ति अभिवर्धन का सरल किन्तु श्रेष्ठतम उपाय है। जो इसके लिए प्रयत्न करते हैं वे समर्थ, सफल और सार्थक जीवन जी कर धन्य बनते हैं।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118