गुत्थियों के समाधान (kahani)

March 1976

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नगर सेठ अपनी गुत्थियों के समाधान में सहायता प्राप्त करने के लिए मन्दिर में पहुँचे। देवता को प्रसन्न करने के लिए वे थाल भर कर मोती और नैवेद्य लाये थे।

मन्दिर छोटा था। उसमें एक भक्त पहले से ही घुसा बैठा था। झरोखे में से झाँककर सेठ ने देखा तो वह फटे कपड़े वाला, अस्थिपिंजर जैसा कोई दरिद्र व्यक्ति था, पर वह कृतज्ञता और प्रसन्नता भरे अश्रु बिन्दु देवता के चरणों पर चढ़ाता हुआ प्रार्थना कर रहा था और कह रहा था कि धन्य है आप का वरदान कि मैं सुख की नींद सोता हूँ और कोई मुझे से ईर्ष्या नहीं करता।

सेठ ने पूजा तो की पर यह प्रश्न उसके मन में उफनता ही रहा। मैं इतने समय से पूजा करता आ रहा हूँ, पर मेरे ईर्ष्यालु बढ़ते ही जा रहे हैं और मेरा सुख−चैन घटता ही जा रहा है। कहाँ मेरी बहुमूल्य पूजा सामग्री और कहाँ इस दरिद्र के अकिंचन से उपहार? क्यों मेरी उपेक्षा और क्यों दरिद्र पर अनुग्रह?

संदेह को लेकर सेठ प्रधान याजक के पास पहुँचे। याजक ने देवता से पूछकर तीसरे दिन उत्तर देने को कहा।

तीसरे दिन अपने असंतोष का समाधान प्राप्त करने के लिए सेठ सवेरे ही याजक के पास जा पहुँचे। उनने देवता का अभिमत सुनाया−आप देवता पर सेवक की तरह काम करने का दबाव डालते हैं और दरिद्र ने उन्हें स्वामी मानकर अपने हृदय में उन्हें स्थान दिया हुआ है। सो देवता ने सेवक बनने वाले की अपेक्षा हृदय में स्थान देने वाले को अपना सच्चा वरदान देने का निश्चय किया है।

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