शक्ति का अजस्र स्रोत−आत्मविश्वास

March 1976

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स्वामी रामतीर्थ ने कहा था “कि धरती को हिलाने के लिए धरती से बाहर खड़े होने की आवश्यकता नहीं है, आवश्यकता है आत्मा को जानने की। आत्मशक्ति का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है। जिसका साक्षात्कार करके कोई भी आदमी धरती को हिला सकता है।” विवेकानन्द, बुद्ध, ईसा सुकरात और गाँधी ने इसी प्रचण्ड आत्मशक्ति का सहारा लेकर उन्नति की है। महात्मा गाँधी के विपक्ष में शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य था। भारतवासी सदियों की पराधीनता, अशिक्षा और जड़ता के मारे हुए थे। भारतवासियों के दुःख के आँसू गाँधी से देखे न गये और उन्होंने अपनी दृढ़ संकल्प शक्ति तथा आत्मविश्वास के सहारे वैभवशाली ब्रिटिश साम्राज्य को परास्त किया। स्वामी विवेकानन्द जब संन्यासी वेश धारण कर अमेरिका गये थे तो लोगों ने उनका मजाक बनाया था किन्तु बाद में उन्होंने अपने आत्म−विश्वास से−महिमा मण्डित व्यक्तित्व से−जो कुछ किया वह अद्वितीय है।

आत्म−विश्वास के आगे दुनिया की बड़ी से बड़ी शक्ति झुकती रही हैं और झुकती रहेगी। विश्वास होने से ही आत्मा और परमात्मा में एकता उत्पन्न होती है। जिससे हमारे अन्तःकरण में अनन्त शक्ति एवं ज्ञान का सूर्योदय होता है। आत्म−विश्वास वह अद्भुत शक्ति है जिसके सहारे मनुष्य हजारों विपत्तियों का सामना अकेला कर सकता है, अपनी मंजिल तक पहुँच सकता है।

मानव जाति की उन्नति का श्रेय ऐसे ही महापुरुषों को है जिनका आत्म−विश्वास असीम था। उन्होंने ऐसे रास्ते तय किये जिनमें असफलता ही दीख पड़ती थी, किन्तु फिर भी उन्होंने विश्वास न छोड़ा और सफलता उपलब्ध की। आत्म−विश्वास का जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है। यह वह पदार्थ है, जिससे हमें निराशा में भी आशा की झलक दीखती है। दुःख में भी सुख का आभास होता है और इससे हम बड़े से बड़े कार्य सम्पन्न कर सकते हैं।

हमारी समस्त शारीरिक और मानसिक शक्तियों की बागडोर आत्म−विश्वास के हाथ में है। जब तक आत्म−विश्वास रूपी सेनापति आगे नहीं आता है तब तक अन्य सारी शक्तियाँ भी सुप्तावस्था में पड़ी रहती हैं। जैसे ही आत्म विश्वास जागृत होता है, अन्य शक्तियाँ भी उत्साहित होकर उठ खड़ी होती हैं और आत्म−विश्वास के सहारे चौगुना काम करने लगती हैं।

किसी भी कार्य की सफलता विश्वास पर टिकी रहती है। करो या मरो की भावना से ओत−प्रोत होकर हम किसी कार्य को प्रारम्भ करेंगे तो विजय श्री दौड़ी चली आयेगी। विश्वास के अभाव में ही दुनिया की बहुत सी श्रेष्ठतम् उपलब्धियों से हम वंचित रह जाते हैं। असफलताओं का कारण यह है कि लोग अपनी महत्ता को नहीं पहचान पाते हैं और अपने को अयोग्य समझते हैं। जब हम पहले ही अपने को अयोग्य, असमर्थ और अभागा समझेंगे तो फिर हम योग्य समर्थ और सौभाग्यशाली कैसे बन सकते हैं? बड़े−बड़े काम कर सकने में समर्थ होने वाले व्यक्ति भी अपनी पूरी शक्ति से अपरिचित होने के कारण उसका सदुपयोग नहीं कर पाते हैं, वास्तविकता यह है कि बहुत कम लोग अपनी शक्तियों का मूल्य समझ नहीं पाते हैं और उनका उपयोग करते हैं।

व्यक्ति जब अपने अन्दर छिपी हुई शक्तियों के स्रोत को जान लेता है तो वह भी देव तुल्य बन जाता है। ज्यों ही हमारे अन्दर विश्वास जागृत होता है आत्मा में छुपी हुई शक्तियाँ प्रस्फुटित हो उठती हैं। हमारे अन्दर से श्रेष्ठ विचार महत्वपूर्ण कार्य के रूप में परिणित हो जाते हैं इसके विपरीत अविश्वास करने से शक्ति के स्रोत सूख जाते हैं और हम दीन तथा दरिद्र बने रहते हैं। अपने ऊपर विश्वास करना ईश्वर पर विश्वास करना है। इस शक्ति से मनुष्य लघु से विराट् बन जाता है। क्षुद्र तो हम तभी बनते हैं जब अपने को क्षुद्र मान लेते हैं। मनुष्य अपने को जैसा समझ लेता है वैसा ही बन जाता है।

जो व्यक्ति अपने को मिट्टी का समझता है वह अवश्य कुचला जाता है। धूल पर सभी पाँव रखते हैं किन्तु अंगारों पर कोई पैर नहीं रखता है। जो व्यक्ति कठिन से कठिन कार्यों को भी अपने करने योग्य समझते हैं, अपनी शक्ति पर विश्वास करते हैं, वे अपने चारों ओर अपने अनुकूल परिस्थितियाँ ही उत्पन्न कर लेते हैं। जिस पल व्यक्ति दृढ़तापूर्वक किसी कार्य को सम्पन्न करने का निश्चय कर लेता है, तो समझना चाहिए आधा कार्य पहले ही पूर्ण हो गया। दुर्बल प्रकृति के व्यक्ति केवल स्वप्न ही देखते रहते हैं किन्तु सबल व्यक्ति अपने स्वप्नों को कार्य रूप में परिणित कर दिखाते हैं।

जहाँ शक्तिशाली दो हाथ आगे बढ़ते हैं वहाँ दस हाथ सहयोग करने के लिए भी आगे आ जाते हैं। कार्य की नींव आत्म−विश्वास है। हम इस नींव को विश्वास के जल से सीचेंगे तो अवश्य ही उच्च कार्य सम्पन्न करने में सफलता मिलेगी। दृढ़−निश्चयी मनुष्य सदा आगे ही बढ़ता है उसके कदम पीछे नहीं हटते हैं।

छोटे से बीज में विराट् शक्ति छुपी रहती है। यही बीज जब खेत में बोया जाता है तब उपयोगी खाद पानी प्राप्त कर बड़े वृक्ष के रूप में प्रस्फुटित होता है। उसी तरह से मनुष्य के अन्दर भी समस्त सम्भावनायें एवं शक्तियाँ बीज रूप में छुपी हुई हैं जो विवेक रूपी जल के अभिसिंचन तथा श्रेष्ठ विचारों की उर्वरा खाद को पाकर जागृत होती हैं। यदि व्यक्ति अपने अन्दर की अमूल्य शक्ति एवं सामर्थ्य को जान लेने में सक्षम हो तो वह गाँधी, अर्जुन, बुद्ध, सुकरात एवं विवेकानन्द हो सकता है।

मनुष्यों की संगठित शक्ति यदि श्रेष्ठ मार्ग पर चल पड़े तो विश्व की कायापलट भी हो सकती है। आश्चर्य होता है कि जिन कार्यों के लिए हम कभी आशा भी नहीं कर सकते वह कार्य जादू की तरह पूरे होते जाते हैं।

मनुष्य शक्ति का भण्डार है यह तो ठीक है किन्तु वह इससे लाभान्वित तभी हो सकता है जब वह उसका सही सदुपयोग करे। मनुष्य के पास बोलने की शक्ति है। यदि वह समय, परिस्थिति, एवं श्रेष्ठता का ध्यान रखते हुए बोलता है तो वह वाणी के सहारे दुनिया में बहुत कुछ कर सकता है किन्तु वाणी की शक्ति को ध्यान में रखे बिना अनर्गल, व्यर्थ की बकवास और बिना सोच विचार कर बोलना उसका दुरुपयोग ही है।

व्यक्ति आज अशक्त हो अन्धेरे में भटक रहा है। वह रास्ता ढूँढ़ रहा है किन्तु यदि हमें अपनी शक्तियों का ज्ञान हो जाए तो दुःख, भय, चिन्ता, आपत्ति, शोक, द्वेष आदि दुष्ट मनोविकार हमारा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते हैं तथा हमारे जीवन पर इनका कोई प्रभाव न पड़ेगा, किन्तु खेद है कि हम अपनी शक्ति को भूलकर आसानी से इन दुष्टों के चंगुल में फँस जाते हैं। जिससे जीवन भार बन जाता है।

जीवन भार बन कर जीने के लिए नहीं है। उसे श्रेष्ठता पूर्ण ढंग से जीना चाहिए। यह तभी सम्भव है जब व्यक्ति पंगु विचारों को अपने मन में घर न करने दें क्योंकि इससे शक्ति का प्रवाह बन्द हो जाता है। भगवान ने मनुष्य को शक्तियाँ इसलिए प्रदान की हैं कि वह उनका सदुपयोग कर ऊँचा उठे और दूसरों को भी ऊँचा उठा सके, इसी में मनुष्य जीवन की सार्थकता है।

सफलता के बारे में हमारा विश्वास अधूरा नहीं होना चाहिए। उसमें कहीं दरार या छिद्र नहीं होने चाहिए। सफलता के बारे में तिल मात्र भी सन्देह हो तो समझना चाहिए कि प्रयत्न में शिथिलता है। शिथिलता होने से सफलता दूर चली जायगी। जब तक किसी कार्य में हम अपनी समस्त शक्तियाँ लगा नहीं पाते, मन एकाग्र नहीं करते तब तक वह कार्य पूर्ण नहीं हो सकता है। जितना कठिन कार्य है उसके लिए उतने ही दृढ़ विश्वास एवं निरन्तर प्रयत्न की आवश्यकता होती है। ईश्वरी सत्ता भी उन्हीं की सहायता करती है जो स्वयं प्रयत्नशील होते हैं।

सतत−परिश्रम, आत्मविश्वास एवं दृढ़ निश्चय के आगे कुछ भी असंभव नहीं है। इन्हीं गुणों के प्रकाश में संसार में प्राण फूँकने वाले कार्य सम्पन्न हुए। विद्वानों, शूरवीरों, महापुरुषों, धर्म प्रवर्तकों के ज्वलन्त उदाहरण हैं कि उन्होंने आत्म−विश्वास के आधार पर क्या नहीं कर दिखाया?

छोटी−छोटी बैटरियाँ जल्दी समाप्त हो जाती हैं किन्तु जिन बत्तियों का सम्बन्ध पावर हाउस से होता है वह निरन्तर जलती रहती हैं। हम भी आत्म−विश्वास के साथ अकूत शक्ति के भण्डार परमात्मा से सम्बन्ध बनायें। विचारों को प्रशस्त करें। स्वार्थ से दूर रहें, दृष्टि का विस्तार करें। सद्गुणों को धारण करें। सद्गुणी होकर ही हम संसार में गौरव एवं सम्मान के पात्र बन सकते हैं।

गीता में लिखा है! ‘नात्मानमवसादयेत्’ (आत्मा का अपमान न करें) आप अपने अन्दर जिस तरह के विचार रखेंगे वैसा ही आपका आचार−व्यवहार बनेगा। जैसा व्यवहार होगा वैसी ही परिस्थितियाँ सामने आ खड़ी होंगी।

श्रेष्ठ पथ पर नियोजित व्यक्तियों की शक्तियाँ श्रेयस्कर परिणाम उपस्थित करती हैं। लोग उन्हें भाग्य का चमत्कार समझते हैं। पर वास्तव में वह व्यक्ति की दृढ़निष्ठा एवं आत्म−विश्वास का परिणाम ही होती हैं। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। अपने अन्दर शक्तियाँ सुप्तावस्था में पड़ी हुई हैं। उन्हें प्रयत्न पूर्वक जगाया जाय। जिस दिन मनुष्य इस तथ्य को समझ लेगा उस दिन वह अनन्त शक्ति का भण्डार बन जाएगा। सुख और सफलता का मूल यही आत्म विश्वास है।


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