“मैं पतंगे की तरह हूँ। इष्टदेव दीपक की तरह। अनन्त प्रेम के कारण द्वैत को समाप्त कर अद्वैत की उपलब्धि के लिए− प्रियतम के साथ एकात्म होता हूँ। जिस प्रकार पतंगा दीपक पर आत्म−समर्पण करता है, अपनी सत्ता को मिटाकर प्रकाश पुञ्ज में लीन होता है। उसी प्रकार मैं अपना अस्तित्व, अहंकार को मिटाकर ब्रह्म में−गायत्री तप तत्त्व में विलीन होता हूँ।”
“दीपक की ज्योति एक यज्ञ है और मैं उसका हविष्य। अपना अस्तित्व इस यज्ञाग्नि में होम कर मैं स्वयं परम−पवित्र तेज पुञ्ज हो रहा हूँ।”
“अपनी अहंता, ममता और द्विधा मिटा देने के बाद मैं आत्मा की परिधि से उठकर परमात्म सत्ता के रूप में विकसित होता हूँ और उसी स्तर की व्यापकता, मैं धारण करता हूँ।”
“मैं अपनी समस्त श्रद्धा प्रभु को समर्पण करता हूँ। बदले में वे उतना ज्ञान, विवेक, प्रकाश एवं आनन्द मेरे कण−कण में भर देते हैं। मुझे अपने समान बना लेते हैं। वैसी ही रीति−नीति अपनाने की प्रेरणा एवं तत्परता प्रदान करते हैं।”
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