कुण्डलिनी महाशक्ति एक दिव्य ऊर्जा

March 1976

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कुण्डलिनी शक्ति का एक नाम ‘जीवन अग्नि’ (फायर आफ लाइफ) भी है। जो कुछ भी चमक, तेजस्विता, आशा, उत्साह, उमंग, उल्लास, दिखाई पड़ता है, उसे उस अग्नि का ही प्रभाव कहा जा सकता है। शरीरों में बलिष्ठता, निरोगिता, स्फूर्ति, क्रियाशीलता के रूप में और मस्तिष्क में तीव्र बुद्धि, दूरदर्शिता, स्मरण शक्ति, सूझ−बूझ, कल्पना आदि विशेषताओं के रूप में यही परिलक्षित होती है। आत्म−विश्वास और उत्कर्ष की अभिलाषा के रूप में धैर्य और साहस रूप में इसी शक्ति का चमत्कार झाँकते हुए देखा जा सकता है। रोगों से लड़कर उन्हें परास्त करने और मृत्यु की सम्भावनाओं को हटाकर दीर्घजीवन का अवसर उत्पन्न करने वाली एक विशेष विद्युतधारा जो मन से प्रवाहित होकर समस्त शरीर को सुरक्षा की अमित सामर्थ्य प्रदान करती है, उसे कुण्डलिनी ही समझा जाना चाहिए। यह जीवन अग्नि इस समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। जड़ पदार्थों में जब यह काम करती है तब उसे विद्युत कहते हैं, अध्यात्म भाषा में इसे अपरा प्रकृति कहा गया है। पदार्थों का उद्भव, अभिवर्धन एवं परिवर्तन इसी की प्रक्रिया से होता है। पदार्थ निर्जीव है, पर उसमें यह विविध−विधि दृश्य जगत की गतिविधियों का संचार करती है। इस प्रकार वे जड़ कहे जाने वाले पदार्थ भी एक तरह की चेतना, ज्ञान, बुद्धि, अनुभूति से रहित जीवन−तत्व से भरे हुए ही हैं। अपने ढंग का जीवन उनमें भी विद्यमान है।

जीवन अग्नि का दूसरा रूप है, परा प्रकृति। इसे प्राणियों की अनुभूति कह सकते हैं। बुद्धि, विवेक, इच्छा ज्ञान, भावना आदि इसी के अंग हैं। अचेतन मस्तिष्क को केन्द्र बनाकर यही परा प्रकृति उनकी शारीरिक, मानसिक, स्वाभाविक गतिविधियों का अविज्ञात रूप से संचालन करती रहती है। श्वास प्रश्वास, रक्ताभिषरण, निद्रा, जागरण, क्षुधा, मल−त्याग एवं देह के भीतरी अंग−प्रत्यंगों का संचालन उसी के द्वारा होता है। उसकी दूसरी क्रिया चेतन विज्ञात मस्तिष्क के द्वारा अन्तःकरण चतुष्टय के माध्यम से मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार बनकर दृश्यमान होती है। इसे व्यक्तिगत क्रिया−कलाप में जीवन अग्नि का ही कर्तृत्व कहना चाहिए।

कहा जा चुका है कि इस विश्व−ब्रह्माण्ड में संव्याप्त ‘जीवन−अग्नि’ ब्रह्म चेतना के दो स्वरूप हैं, एक परा दूसरा अपरा। अपरा प्रकृति पदार्थों में गतिशीलता, हलचल उत्पन्न करती है और परा प्रकृति प्राणधारियों में इच्छाओं और अनुभूतियों का संचार करती है।

सारे शरीर में विद्युतधारा का प्रवाह आगे बढ़ना तनिक पीछे हटना, फिर आगे बढ़ना इस क्रम से संचालित होता है। साधारणतया बिजली की यही गति हैं। किन्तु मूलाधार में अवस्थित त्रिकोण शक्ति बीज है जिसे सुमेरु पर्वत भी कहते हैं।

एक सर्पाकार विद्युत प्रवाह इस सुमेरु के आसपास लिपटा बैठा है। इसी को महासर्पिणी कुण्डलिनी कहते हैं। इसे विद्युत भ्रमर भी कह सकते हैं। तेज बहने वाली नदियों में कहीं−कहीं बड़े भंवर पड़ते हैं जहाँ भंवर पड़ते हैं वहाँ पानी की चाल सीधी अग्रगामी न होकर गोल गह्वर की गति में बदल जाती है। मनुष्य शरीर में सर्वत्र तो नाड़ी संस्थान के माध्यम से सामान्य गति से विद्युत प्रवाह बहता है पर उस मूलाधार−स्थित सुमेरु के समीप जाकर वह भंवर गह्वर की तरह−चक्राकार घूमती रहती है। इस स्थिति को सर्पिणी कहते हैं। कुण्डलिनी की आकृति, सर्प की सी आकृति मानी गई है।

नदी प्रवाह में भंवरों की शक्ति अद्भुत होती है। उनमें फँसकर बड़े−बड़े जहाज भी सँभल नहीं पाते और देखते−देखते डूब जाते हैं। साधारण नदी प्रवाह में जितनी शक्ति और गति रहती है उसमें 60 गुनी अधिक शक्ति भँवर में पाई जाती है। शरीरगत विद्युत प्रवाह में अन्यत्र पाई जाने वाली क्षमता की तुलना में कुण्डलिनी की शक्ति हजारों गुनी बड़ी है। उसका स्वरूप एवं विज्ञान यदि ठीक तरह समझा जा सके और उस विद्युत प्रवाह का प्रयोग उपयोग जाना जा सके तो निःसन्देह शक्ति सर्व सामर्थ्य सम्पन्न सिद्ध पुरुष बन सकता है।

कुण्डलिनी का मध्यवर्ती जागरण मनुष्य शरीर में एक अद्भुत प्रकार की तड़ित विद्युत उत्पन्न कर देता है।

वस्तुतः स्थूल कुण्डलिनी का महासर्पिणी स्वरूप मूलाधार से लेकर मेरुदण्ड समेत ब्रह्मरंध्र तक फैले हुए सर्पाकृति कलेवर में ही पूरी तरह देखा जा सकता है। ऊपर नीचे मुड़े हुए दो महान शक्तिशाली केन्द्र चक्र ही उसके आगे−पीछे वाले दो मुख हैं।

मेरुदण्ड पोला है, उसके भीतर जो कुछ है उसकी चर्चा शरीर शास्त्र के स्थूल प्रत्यक्ष दर्शन के आधार पर दूसरे ढंग से की जा सकती है। शल्य−क्रिया द्वारा जो देखा जा सकता है, वह रचना क्रम दूसरा है। इसमें सूक्ष्म प्रक्रिया के अन्तर्गत योगशास्त्र की दृष्टि से परिधि में सन्निहित दिव्य−शक्तियों की चर्चा करनी है। योगशास्त्र के अनुसार मेरुदण्ड में एक ब्रह्म−नाड़ी है और उसके अन्तर्गत इड़ा और पिंगला दो अन्तर्गत शिरायें गतिशील हैं। यह नाड़ियाँ रक्तवाहिनी शिरायें नहीं समझी जानी चाहिए। वस्तुतः ये विद्युत−धाराएँ हैं। जैसे बिजली के तार में ऊपर एक−एक रबड़ का खोल चढ़ा होता है और उसके भीतर जस्ते तथा ताँबे का ठण्डा गरम तार रहता है, उसी प्रकार इन नाड़ियों को समझा जाना चाहिए। ब्रह्म−नाड़ी रबड़ का खोल हुआ, उनके भीतर इड़ा और पिंगला ठण्डे−गरम तारों की तरह हैं। इनका स्थूल कलेवर या अस्तित्व नहीं है। शल्य−क्रिया द्वारा यह नाड़ियाँ नहीं देखी जा सकतीं। इस रचना क्रम को सूक्ष्म, विद्युतधाराओं की दिव्य रचना ही कहना चाहिए।

मस्तिष्क के भीतरी भाग में यों कतिपय ‘कोष्ठकों’ के अन्तर्गत भरा हुआ मज्जा भाग ही देखने को मिलेगा। खुर्दबीन से और कुछ नहीं देखा जा सकता, पर सभी जानते हैं उस दिव्य संस्थान के नगण्य से दीखने वाले घटकों के अन्तर्गत विलक्षण शक्तियाँ भरी पड़ी हैं। मनुष्य का सारा व्यक्तित्व, सारा चिन्तन, सारा क्रियाकलाप और सारा शारीरिक, मानसिक अस्तित्व इन घटकों के ऊपर ही अवलम्बित रहता है। देखने में सभी का मस्तिष्क लगभग एक जैसा दीखेगा पर उसकी सूक्ष्म स्थिति में पृथ्वी, आकाश जैसा अन्तर दीखता है, उसके आधार पर व्यक्तियों का घटिया बढ़िया होना सहज आँका जा सकता है। यही सूक्ष्मता कुण्डलिनी के सम्बन्ध में व्यक्त की जा सकती है। मूलाधार, सहस्रार, ब्रह्म−नाड़ी, इड़ा पिंगला इन्हें शल्य−क्रिया द्वारा नहीं देखा जा सकता। यह सारी दिव्य रचना ऐसी सूक्ष्म है, जो देखी तो नहीं जा सकती पर उसका अस्तित्व प्रत्यक्ष अनुभव किया जा सकता है।

मलद्वार और जननेन्द्रिय के बीच जो लगभग चार अंगुल जगह खाली पड़ी है, उसी के गह्वर में एक त्रिकोण परमाणु पाया जाता है। सारे शरीर में गोल कण हैं, यह एक ही तिकोना है। यहाँ एक प्रकार का शक्ति−भ्रमर है। शरीर में प्रवाहित होने वाली तथा मशीनों में संचारित बिजली की गति का क्रम यह है कि वह आगे बढ़ती है, फिर तनिक पीछे हटती है और फिर उसी क्रम से आगे बढ़ती पीछे हटती हुई अपनी अभीष्ट दिशा में दौड़ती चली जाती है। किन्तु मूलाधार स्थित त्रिकोण कण के शक्ति−भंवर में सन्निहित बिजली गोल घेरे में पेड़ से लिपटी हुई बेल की तरह घूमती हुई संचारित होती है। यह संचार क्रम प्रायः 3॥ लपेटों का है। आगे चलकर यह विद्युतधारा इस विलक्षण गति को छोड़कर सामान्य रीति से प्रवाहित होने लगती है।

यह प्रभाव निरन्तर मेरुदण्ड में होकर मस्तिष्क के उस मध्य बिन्दु तक दौड़ता रहता है, जिसे ब्रह्मरंध्र या सहस्रार कमल कहते हैं। इस शक्ति केन्द्र का मध्य अणु भी शरीर के अन्य अणुओं से भिन्न रचना का है। वह गोल न होकर चपटा है। उसके किनारे चिकने न होकर खुरदरे हैं−आरी के दाँतों से उस खुरदरेपन की तुलना की जा सकती है, योगियों का कहना है कि उन दाँतों की संख्या एक हजार है। अलंकारिक दृष्टि से इसे एक ऐसे कमल पुष्प की तरह चित्रित किया जाता है, जिसमें पंखुरियाँ खिली हुई हों। इस अलंकार के आधार पर ही इस अणु का नामकरण ‘सहस्रार−कमल’ किया गया है।

सहस्रार−कमल का पौराणिक वर्णन बहुत ही मनोरम एवं सारगर्भित है। कहा गया है कि क्षीर सागर में विष्णु भगवान सहस्र फन वाले शेष नाग पर शयन कर रहे हैं। उनके हाथ में शंख, चक्र, गदा, पद्म है। लक्ष्मी उनके पैर दबाती है। कुछ पार्षद उनके पास खड़े हैं। क्षीर सागर मस्तिष्क में भरा हुआ, भूरा चिकना पदार्थ ‘ग्रे मैटर’ है। हजार फन वाला सर्प यह चपटा, खुरदरा ब्रह्मरंध्र स्थित विशेष परमाणु है। मनुष्य शरीर में अवस्थित ब्रह्म−सत्ता का केन्द्र यही है। इसी से यहाँ विष्णु भगवान का निवास स्थान बताया गया है। यहाँ विष्णु सोते रहते हैं अर्थात् सर्वसाधारण में होता तो ईश्वर का अंश समान रूप से है, पर वह जागृत स्थिति में नहीं देखा जाता। आमतौर से लोग घृणित, हेय, पशु प्रवृत्तियों जैसा निम्न स्तर का जीवन−यापन करते हैं।

जिस प्रकार पृथ्वी में चेतना एवं क्रिया उत्तरी दक्षिणी ध्रुवों से प्राप्त होती है, उसी प्रकार मानव पिण्ड देह के भी दो ही अति सूक्ष्म शक्ति संस्थान हैं। उत्तरी ध्रुव है−ब्रह्मरंध्र मस्तिष्क सहस्रार−कमल। दक्षिणी ध्रुव है− सुषुम्ना संस्थान−कुण्डलिनी केन्द्र मूलाधार चक्र। पौराणिक कथा के अनुसार क्षीर सागर में सहस्रार फन वाले सर्प पर विष्णु भगवान शयन करते हैं। यह क्षीर सागर मस्तिष्क में भरा श्वेत सघन स्नेह सरोवर ही है। सहस्रार−कमल एक ऐसा परमाणु है जो अन्य कोषों की तरह गोल न होकर आरी के दाँतों की तरह कोण कलेवरों से आवेष्टित है। इन दाँतों को सर्प फन कहते हैं। चेतना का केन्द्रबिन्दु इसी ध्रुव कण में प्रतिष्ठित है। चेतन और अचेतन मस्तिष्कों के अगणित घटकों को जो इन्द्रिय जन्य एवं अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त होता है, उसका आधार यही ध्रुव−विष्णु अथवा सहस्रार−कमल है। ध्यान से लेकर समाधि तक और आत्म−चिन्तन से लेकर भक्तियोग तक की सारी आध्यात्मिक साधनाएँ तथा मनोबल, आत्म−बल एवं संकल्प जन्य सिद्धियों का केन्द्रबिन्दु इसी स्थान पर है।

दूसरा दक्षिणी ध्रुव मूलाधार चक्र, सुचारु संस्थान, सुषुम्ना केन्द्र है। जो मल−मूत्र के−संस्थानों के बीचों बीच अवस्थित है। कुण्डलिनी, महासर्पिणी, प्रचण्ड क्रिया−शक्ति इसी स्थान पर सोई पड़ी है। उत्तरी ध्रुव का महा सर्प अपनी सहचरी सर्पिणी के बिना और दक्षिणी ध्रुव की महासर्पिणी अपने सहचर महासर्प के बिना निरानन्द मूर्च्छित जीवन व्यतीत करते हैं। मनुष्य शरीर विश्व की समस्त विशेषताओं का प्रतीक प्रतिबिम्ब होते हुए भी तुच्छ−सा जीवन व्यतीत करते हुए कीट−पतंगों की मौत मर जाता है। कोई महत्वपूर्ण उपलब्धि प्राप्त नहीं कर पाता, इसका एकमात्र कारण यही है कि हमारे पिंड के, देह के दोनों ध्रुव मूर्च्छित पड़े हैं, यदि वे सजग हो गये होते तो ब्रह्माण्ड जैसी महान् चेतना अपने पिंड में भी परिलक्षित होती।

मूत्र स्थान यों एक प्रकार से घृणित एवं उपेक्षित स्थान है। पर तत्वतः उसकी सामर्थ्य मस्तिष्क में अवस्थित ब्रह्मरंध्र जितनी ही है। वह हमारी सक्रियता का केन्द्र है। यों नाक, कान आदि छिद्र भी मल विसर्जन के लिए प्रयुक्त होते हैं, पर उनको कोई ढकता नहीं। मूत्र यन्त्र को ढ़कने की अनादि एवं आदिम परिपाटी के पीछे वह सतर्कता है, जिसमें यह निर्देश है, कि इस संस्थान से जो अजस्र शक्ति प्रवाह बहता है, उसकी रक्षा की जानी चाहिए। शरीर के अन्य अंगों की तरह यों प्रजनन अवयव भी माँस मज्जा मात्र से ही बने हैं, पर उनके दर्शन मात्र से मन विचलित हो उठता है। अश्लील चित्र अथवा अश्लील चिन्तन जब मस्तिष्क में उथल−पुथल पैदा कर देता है, तब उन अवयवों का दर्शन यदि भावनात्मक हलचल को उच्छृंखल बनादे तो आश्चर्य ही क्या है? यहाँ यह रहस्य जान लेना ही चाहिए। मूत्र स्थान में बैठी हुई कुण्डलिनी शक्ति प्रसुप्त स्थिति में भी इतनी तीव्र है कि उसकी प्रचण्ड धाराएँ खुली प्रवाहित नहीं रहने दी जा सकतीं। उन्हें आवरण में रखने से उनका अपव्यय बचता है और अन्यों के मानसिक सन्तुलन को क्षति नहीं पहुँचती। छोटे बच्चों को भी कटिबन्ध इसलिए पहनाते हैं। ब्रह्मचारियों को धोती के अतिरिक्त लँगोट भी बांधे रहना पड़ता है। पहलवान भी ऐसा ही करते हैं। संन्यास और वानप्रस्थ में भी यही प्रक्रिया अपनानी पड़ती है।

मल−मूत्र स्थान के मध्य अवस्थिति मूलाधार चक्र का केन्द्र बिन्दु एक तिकोना कण है, जिसे ‘सुमेरु’ अथवा कूर्म कहते हैं। शरीर में समस्त जीवन कण गोल हैं, केवल दो ही ऐसे हैं जिनकी आकृति में अन्तर है, एक ब्रह्मरंध्र स्थित सहस्रार−कमल नाम से पुकारा जाने वाला आरों की नोकों जैसी आकृति का ब्रह्मरंध्र−उत्तरी ध्रुव। दूसरा मूलाधार में अवस्थित चपटा, बीच में ऊँचा उठा हुआ−पर्वत या कछुआ की आकृति वाला दक्षिणी ध्रुव। इन दोनों पर ही जीव की सारी आधारशिला रखी है। स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के−अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय कोषों के− अन्तःकरण−चतुष्टय में सप्त प्राणों के मूलाधार यही दो ध्रुव हैं। इन्हीं की शक्ति और प्रवृत्ति से हमारा बाह्य और अन्तरंग जीवन−क्रम चलते रहने में समर्थ होता है।

उत्तरी ध्रुव सहस्रार−कमल में विक्षोभ उत्पन्न करने और उसकी शक्ति को अस्त−व्यस्त करने का दोष, लोभ, मोह, क्रोध, अहंकार जैसी दुष्प्रवृत्तियों का है। मस्तिष्क उन चिन्ताओं में दौड़ जाता है, तो उसे आत्म−चिन्तन के लिए− ब्रह्म शक्ति के संचय के लिए अवसर ही नहीं मिलता। इसी प्रकार दक्षिणी ध्रुव मूलाधार में भरी प्रचण्ड क्षमता को कार्य शक्ति में लगा दिया जाय तो मनुष्य पर्वत उठाने एवं समुद्र मथने जैसे कार्यों को कर सकता है। क्रिया−शक्ति मानव प्राणी में असीम है। किन्तु उसका क्षय कामुकता विषय−विकारों में होता रहता है। यदि इस प्रवाह को गलत दिशा से रोक कर सही दिशा में लगाया जा सके तो मनुष्य की कार्य−क्षमता साधारण न रहकर दैत्यों अथवा देवताओं जैसी हो सकती है।

पुराणों में समुद्र−मन्थन की कथा आती है। यह सारा चित्रण सूक्ष्म रूप से मानव शरीर में अवस्थित कुण्डलिनी शक्ति के प्रयोग−प्रयोजन का है। हमारा मूत्र संस्थान− खारी जल से भरा समुद्र है। उसे अगणित रत्नों का भाण्डागार कह सकते हैं। स्थूल और सूक्ष्म शक्तियों की सुविस्तृत रत्न राशि इसमें छिपी हुई है। प्रजापति के संकेत पर एकबार समुद्र मथा गया। देव और दानव इसका मन्थन करने जुट गये। असुर उसे अपनी ओर खींचते थे अर्थात् कामुकता की ओर घसीटते थे और देवता उसे रचनात्मक प्रयोजनों में नियोजित करने के लिए तत्पर थे। यह खींचतान दूध में से मक्खन निकालने वाली खिलौने की, मन्थन की क्रिया चित्रित की गई है।

समुद्र मन्थन उपाख्यान में यह भी वर्णन है कि भगवान ने कछुआ का रूप बनाकर आधार स्थापित किया, उनकी पीठ पर सुमेरु पर्वत ‘रई’ के स्थान पर अवस्थित हुआ। शेष नाग के साढ़े तीन फेरे उस पर्वत पर लगाये गये और उसके द्वारा मथन कार्य संपन्न हुआ। कच्छप और सुमेरु मूलाधार चक्र में अवस्थित वह शक्ति बीज हैं जो दूसरे कणों की तरह गोल न होकर चपटा है और जिसकी पीठ, नाभि ऊपर की ओर उभरी हुई है। इसके चारों ओर महासर्पिणी, कुण्डलिनी साढ़े तीन फेरे लपेटकर पड़ी हुई है। इसे जगाने का, कार्य मंथन का प्रकरण उद्दात्त वासना के उभार और दमन के रूप से होता है। देवता और असुर दोनों ही मनोभाव अपना−अपना जोर अजमाते हैं और मन्थन आरम्भ हो जाता है। कामुकता भड़काने और उसे रोकने का खेल ऐसा है जैसे सिंह को क्रुद्ध और उत्तेजित करने के उपरान्त उससे लड़ने का साहस करना। कृष्ण की रासलीला का अध्यात्म रहस्य कुछ इसी प्रकार का है। उस प्रकरण की गहराई में जाने और विवेचना करने का यह अवसर नहीं है अभी तो इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि कामुकता की उद्दीप्त स्थिति को प्रतिरोध द्वारा नियन्त्रित करने का पुरुषार्थ, समुद्र मन्थन से रत्न राशि निकालने का प्रयोजन पूरा करता है।

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