स्वामी विवेकानन्द एक निर्माणाधीन मन्दिर के पास से गुजर रहे थे। घटना उस समय की है जब अन्तर्राष्ट्रीय जगत में वे न तो इतनी प्रखरता से उभरे थे और न ही उन्होंने विश्व को भारत की आध्यात्मिक सुधा वितरित करने के लिए आवश्यक तपोबल अर्जित किया था। रामकृष्ण परमहंस के बाद परिव्रज्या ही उनकी चर्या थी।
मन्दिर के सामने से गुजरते समय उनके मन में न जाने क्या स्फुरणा हुई कि उन्होंने निर्मित हो रहे मन्दिर के सीमा क्षेत्र में प्रवेश किया। ढेरों मजदूर, राज, कारीगर, मिस्त्री और बढ़ई वहाँ काम कर रहे थे। न जाने क्या सोच कर एक ओर बैठे काम कर रहे मजदूर के पास जाकर उन्होंने पूछा- ‘भाई क्या कर रहे हो’
‘देखते नहीं हो। पत्थर तोड़ रहा हूँ’- मजदूर ने कहा। यद्यपि स्वामीजी ने बड़ी विनम्रता से वह प्रश्न किया था और उनकी वाणी में माधुर्य भी था परन्तु इतना तिक्त प्रत्युत्तर पाकर उन्हें लगा कि काम करने वाला तेजमिजाज है। यही नहीं वह किसी बात को ले कर दुखी है। तभी तो सीधी-सादी बात का इतना कड़वा उत्तर उसने दिया।
स्वामीजी कुछ और आगे बढ़े- दूसरे मजदूर के पास जाकर भी वही प्रश्न किया।
मजदूर ने जो उत्तर दिया वह पहले वाले जैसा तो नहीं था पर यह अवश्य लगता था कि उसे काम करने में कोई आनन्द नहीं आ रहा है। उसने कहा था- भैया! पेट के लिए यह काम कर रहा हूँ।
उसकी वाणी में विवशता की बोझिलता और अनुत्साह का फीकापन था। इन दोनों मजदूरों की चर्चा को बाद में किसी प्रसंग पर चर्चा करते हुए कहा था- ‘‘पहले वाले मजदूर के उत्तर में और दूसरे मजदूर के उत्तर में मुझे एक विशेष अन्तर दिखाई दिया। एक जहाँ जबरदस्ती लादी गयी मजदूरी की तरह काम कर रहा था तो दूसरा स्वतः की विवशता के कारण पत्थर तोड़ रहा था। परन्तु पहले की अपेक्षा दूसरा कम दुःखी, कम निराश और कम उद्विग्न दिखाई दे रहा था।
स्वामीजी एक और कार्यकर्मी के पास गये। वह बड़े उत्साह, शक्ति और सुघड़ता से पत्थर तोड़ रहा था। स्वामीजी ने उससे भी पूछा- ‘भाई यहाँ क्या हो रहा है और तुम क्या कर रहे हो?’
मजदूर ने बिना हाथ रोके स्वामीजी की ओर देखा। उसकी आँखों में आह्लाद की एक चमक और आनन्द की दीप्ति नाच रही थी। उसी भाव को व्यक्त करते हुए उसने धैर्य पूर्वक उत्तर दिया- ‘यहाँ भगवान का मन्दिर बन रहा है और मैं भी भगवान के मन्दिर को तैयार करने के लिए श्रम कर रहा हूँ।’
स्वामीजी ने एक प्रसंग में इस उत्तर देने वाले को अध्यात्म योगी के नाम से सम्बोधित करते हुए कहा- मैं अन्तिम व्यक्ति से बात-चीत करते हुए बड़ा प्रभावित हुआ और आनन्दित भी। हालांकि पहले दो भी वही काम कर रहे थे जो तीसरा कर रहा था, पर तीसरे व्यक्ति के उत्तर में एक गरिमा थी, एक आनन्द था, एक प्रवीणता थी। और उन सबका कारण था उस व्यक्ति की आध्यात्मिक भावना, जो उसे तीनों विशेषताओं से आप्लावित कर रही थी।’
वस्तुतः काम कोई भी हो लेकिन उसे करते समय कर्ता का जो दृष्टिकोण रहता है। वही उस कार्य को श्रेष्ठ और उत्कृष्ट बनाता है। सामान्य परिणाम और लाभ तो उसे मिलते ही हैं पर उत्कृष्ट भावनाओं के प्रसाद स्वरूप जो कुछ मिलता है, वह उच्चस्तरीय आध्यात्मिक साधनाओं के समतुल्य ही है कार्य के समय उत्कृष्ट दृष्टिकोण रखने वाले ही कर्मयोगी हैं और उन्हें ही कर्मयोग की सिद्धि होती है। कितना व्यावहारिक है अध्यात्म जो कार्य के अनन्त गुणा प्रसाद परिणाम उपस्थित करता है।
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