अगले दिनों कुछ अति महत्वपूर्ण सूत्र−

March 1976

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साधना स्वर्ग जयन्ती वर्ष को मात्र हर्षोल्लास का−उपलब्धियों पर सन्तोष अनुभव करने का−वर्ष न माना जाय, वरन् इसका उपयोग इस तरह किया जाय, जिसमें अपने मिशन को− उससे सम्बद्ध परिजनों को−नव जीवन उपलब्ध हो सके और उसके सत्र संचालक अपनी सफलता अनुभव कर सकें।

विगत पचास वर्षों में घोर अन्धकार की स्थिति और साधनहीन परिस्थितियों में साहसिकता के साथ जो कदम उठते चले जाते हैं, उनकी सफलता न सही उससे जुड़ी हुई एकात्म निष्ठा और तत्परता पर हम सर्व गर्व कर सकते हैं। ‘हम सब’ इसलिए कि सामूहिक चेतना उत्पन्न करना सदा जनशक्ति के आधार पर ही सम्भव होता है। व्यक्ति विशेष को श्रेय, मात्र इस आधार पर मिल सकता है कि उसने अग्रिम पंक्ति में खड़े होने का साहस किया। अन्यथा व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करने वाले अभियानों की सफलता जन सहयोग पर ही निर्भर रहती है। वह उपलब्ध न हो तो व्यक्ति विशेष के क्रियाकलाप अपने कर्त्ता को ही लाभ हानि पहुँचाने तक सीमित बने रहते हैं।

जन−मानस में परिष्कृत करने की, साँस्कृतिक पुनरुत्थान की, युग पुकार पूरी करने के लिए वातावरण गरम करना काफी ईंधन की अपेक्षा रखता है। मनुष्य में देवत्व का उदय और धरती पर स्वर्ग के अवतरण का स्वप्न तो देखा जा सकता है, पर उसे मूर्तिमान बनाने के लिए आधार पर खड़े कर देना अत्यन्त दुःसह कार्य है। व्यक्ति निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण का क्षेत्र कितना व्यापक है और उसके साथ कितनी समस्याएँ तथा आवश्यकताएं जुड़ी हुई हैं। इसे जितनी गम्भीरता से सोचा जाय उतना ही कार्य का उत्तरदायित्व अधिकाधिक भारी प्रतीत होता जाता है। प्रगति पथ में चट्टानों की तरह अड़ी हुई अवाँछनीयताओं को उखाड़ने के लिए चालू ढर्रे में भारी परिवर्तन अपेक्षित है। बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति की इन दिनों उतनी ही आतुरता अभीष्ट है जितनी पिछली पीढ़ी ने राजनैतिक क्रान्ति करने और खोई स्वतन्त्रता को वापस लाने के लिए अनुभव की थी।

इतने व्यापक प्रयोजनों के लिए जिन साधनों की आवश्यकता है उनमें सर्वप्रथम जागृत और जीवन्त जनशक्ति को ही गिना जा सकता है। पिछले पचास वर्षों में अपना सबसे बड़ा उपार्जन यही है। अपना एक परिवार बना हैं। इसके नाम कभी गायत्री परिवार, कभी युग निर्माण परिवार, कभी अखण्ड−ज्योति परिवार दे दिया जाता है। तीनों नामों से एक ही ऐसे समूह का बोध होता है जो निजी जीवन में उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्त्व का अधिकाधिक समावेश करके व्यक्तित्व की प्रखरता उत्पन्न करने में तत्परतापूर्वक संलग्न है। साथ ही अपने समय की समस्याएं सुलझाने के लिए अपने अंशदान, योगदान देने के लिए अनुकरणीय परम्पराएँ प्रस्तुत करने के लिए तत्परता बरतने में भी पीछे नहीं रह रहा है। यही अपना परिवार है। संख्या की दृष्टि से सही गणना तो नहीं हो सकी, पर अनुमान है कि जिन्हें हम लोग परिजन कहते हैं, उन प्रखर व्यक्तित्वों की गणना एक लाख से कम नहीं है।

उपलब्धियों के पीछे सबसे बड़ी शक्ति उन परिजनों की ही लगी हैं, जिनने श्रेय के लिए नहीं कर्त्तव्य के लिए ही समान रूप से भागीदारी स्वीकार की है और जो हमारे कदम से कदम और कन्धे से कन्धा मिलाकर चले हैं। साधना स्वर्ण, जयन्ती वर्ष में यदि कुछ हर्षोल्लास की सन्तोष और गर्व की बात हो तो उसमें परिवार के प्रत्येक सदस्य को समान रूप से भागीदार माना जायगा।

वसन्त पर्व पर आमतौर से हर्षोल्लास व्यक्त करने वाले छोटे बड़े आयोजन होते हैं। उसमें पिछले वर्ष के प्रयासों की समीक्षा और भावी क्रिया−कलापों की तैयारी पर चिन्तन और मन्थन की सर्वत्र आवश्यकता समझी जाती है। परस्पर चर्चा इसी प्रसंग पर होती है और स्थिति के अनुरूप अगले कदम किस प्रकार उठें, इसका निर्धारण होता है। यही रीति−नीति मिशन के संचालकों की रही है और इसी का अनुसरण परिजनों एवं शाखा−संगठनों द्वारा किया जाता रहा है। इस बार स्वर्ण जयन्ती वर्ष रहा तो उत्साह की मात्रा भी बढ़ी हैं− आयोजन भी बढ़े हुए हैं और भावी प्रयासों के निश्चय व्यक्त करने वाले समाचार भी अधिक बड़े और अधिक संख्या में आये हैं। यह सन्तोष की बात है कि अपने आयोजनों के पीछे प्रदर्शन एवं विनोद का नहीं, वरन् युग देवता के चरणों पर अपने अनुदानों को अधिकाधिक मात्रा में समर्पित करना ही उद्देश्य रहता है। इस बार अधिक उत्साह उभरा तो पैरों में थिरकन भी अधिक दीख पड़ रही है। यह उचित ही समझा जाना चाहिए और स्वाभाविक ही कहा जाना चाहिए।

इन दिनों विचार उठ रहा है कि स्वर्ण जयन्ती को अधिक सार्थक और अधिक प्रखर बनाने के लिए जो हो रहा है उससे अधिक करने की व्यवस्था बनाई जाय। समय की आवश्यकता और युग की पुकार को ध्यान में रखकर हमारे प्रयासों में अधिक प्रखरता आनी चाहिए। ध्वंस सरल होता है, निर्माण कठिन। ध्वंस तो बालक भी कर सकता है और एक दियासलाई की तीली भी गजब ढा सकती है। प्रखरता की परीक्षा निर्माण खड़े करने में होती है। हम निर्माण पर विश्वास करते हैं और उसी दिशा में धीमी किन्तु साहस भरी गति से अनवरत यात्रा जारी रखे रहे हैं। साधना वर्ष में अपने निर्माण ऐसे होने चाहिए जिनकी तुलना उत्तुंग पर्वत शिखरों से की जा सके। इन दिनों अपने मन में यही विचार चल रहा है कि उभरे हुए उत्साह को ऐसी दिशा मिलनी चाहिए जिससे मिशन के लक्ष्य की निकट से निकटतम आने की सम्भावना साकार हो सके। व्यक्ति, परिवार एवं समाज निर्माण के−बौद्धिक, नैतिक एवं सामाजिक क्रान्ति के−अपने प्रयास इस वर्ष जितने प्रखर हो सके उतनी ही साधना वर्ष की सफलता एवं सार्थकता मानी जा सकती है।

परिजनों को 45 मिनट की विशेष साधना करने के लिए कहा गया है। हर स्थान पर साधना मण्डल खड़े करने और अध्यात्म मार्ग में रुचि रखने वालों को नया उत्साह देने के लिए कहा गया है। जहाँ साधना मण्डल हों वहाँ चार दिवसीय साधना सत्र का आयोजन किया जाय और उनमें प्राण−प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया अपनायी जाय। यह शान्ति−कुञ्ज में चल रही साधनात्मक एवं शिक्षणात्मक प्रक्रिया का अनुकरण है। भवन निर्माण न सही−प्रक्रिया की दृष्टि से तो सर्वत्र छोटे शान्ति−कुञ्ज चल सकते हैं यह महत्वपूर्ण प्रक्रिया का विकेन्द्रीकरण है इसके दूरगामी परिणाम होंगे। यों प्रस्तुत वर्ष में हर दिन 24 करोड़ गायत्री जप सम्पन्न होते चलने और उससे वातावरण में देवत्व की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न होने की बात भी कम महत्वपूर्ण नहीं।

प्रसन्नता की बात है कि यह घोषित निर्धारित प्रक्रिया इन दिनों अतीव भाव भरे उत्साह के साथ चल रही है। परिजनों में से अधिकाँश ने 45 मिनट वाली शक्ति संचार साधना आरम्भ कर दी है। जो कारणवश अभी नहीं कर सके हैं वे अगले ही दिनों शृंखला में जुड़ने की सूचना भेज चुके हैं। साधना एक लाख तक ही सीमित न रह जाय, वरन् क्षेत्र विस्तार के लिए पूर्ण प्रयत्न किया जाय यह उत्साह भी सर्वत्र उभरा है। अनुसाधक तेजी से बनते ओर बढ़ते जा रहे हैं। प्रगति को देखते हुए यही प्रतीत होता है कि साधना शृंखला की नई कड़ियाँ जुड़ने से उसकी लम्बाई निश्चित रूप से कई गुनी बढ़ जायगी। अनुमान है कि साधना मंडलों की स्थापना और वहाँ होने वाले साधना सत्रों की संख्या एक हजार से कम नहीं, वरन् अधिक ही होकर रहेगी। शान्ति−कुञ्ज के छोटे स्वरूप यदि इतने स्थानों पर इसी वर्ष खड़े हो जाते हैं तो निश्चय ही यह एक बहुत बड़ी बात होगी और भविष्य के लिए अति महत्वपूर्ण परम्परा चल पड़ने की सम्भावना प्रत्यक्ष होती देखी जा सकेगी।

यह साधना वर्ष−नव चेतना उत्पन्न करने, कार्य क्षेत्र बढ़ाने, सूक्ष्म वातावरण में देवत्व की ऊर्जा भरने जैसे कितने ही प्रयोजन पूरे कर सका तो ही उसकी सार्थकता सराही जा सकेगी। इन प्रयोजनों में अति महत्वपूर्ण कार्य यह होना चाहिए कि संस्कारवान आत्माएँ ऊर्ध्वगामी प्रगति के लिए अभीष्ट प्रेरणा एवं सामर्थ्य प्राप्त करें। पचास वर्ष पूर्व ऐसी ही घटना घटित हुई थी। प्रकाश की एक दिव्य धारा ने 25 वर्षीय बालक का कायाकल्प कर दिया था। उसका चिन्तन मरोड़ा और कर्तृत्व मोड़ा गया था। यह दिव्य अनुदान कितना सार्थक सिद्ध हुआ−इससे व्यक्ति और समाज ने कितना लाभ उठाया यह सर्वविदित है।

पचास वर्ष पूर्व के उसी बीजारोपण का प्रतिफल आज विशालकाय वट वृक्ष के रूप में सामने खड़ा है। ऐसा अवतरण एक व्यक्ति तक सीमित होकर नहीं रह जाना चाहिए, यह परम्परा आगे भी चलनी चाहिए। बिजली की तरह एक चमक कौंधे और फिर अन्धकार ज्यों का त्यों छा जाय तो उससे चकाचौंध भर उत्पन्न होगा, बात वैसी नहीं बनी जैसी अपेक्षित थी। काम तो सूर्य किरणों की अनवरत वर्षा से चलता है। दिव्य अवतरण हममें से अनेक व्यक्तियों में होना चाहिए। हजार आम्र उपवन लगा सकने में सफल एक हजारी किसान चर्चा का विषय बन सकता है−आदर्श प्रस्तुत कर सकता है, पर वसुधा को सुरम्य उद्यान बनाने के लिए असंख्यों हजारी किसानों की आवश्यकता पड़ेगी। साधना वर्ष की अधिक महत्वपूर्ण उपलब्धि यह हो सकती है कि दिव्य अवतरण से सम्पन्न अनेकों व्यक्तियों का उदय इस पुण्य बेला में हो सके। उनके मिले−जुले प्रयास ही रीछ, वानरों की सेना की भूमिका प्रस्तुत कर सकेंगे। समुद्र पर पुल बाँधने, अभेद्य समझी जाने वाली लंका को धराशायी करने और संस्कृति की सीता को वापस लाने जैसे असंभव कार्यों को संभव बनाना जिन व्यक्तित्वों द्वारा सम्भव हो सकता है, उन्हीं का बहुत संख्यक निर्माण इन दिनों होना चाहिए। यदि ऐसा हो सके तो निश्चय ही यह एक बहुत बड़ी उपलब्धि होगी− साधना वर्ष की।

यह कैसे सम्भव हो सकता है? किनके लिए संभव हो सकता है? इसके लिए किस साहस और प्रयास की आवश्यकता होगी? यह प्रश्न ऐसे हैं जिन पर लेख लिखकर प्रकाश डाला जाना संभव नहीं हो सकता व्यक्ति विशेष की परिस्थिति के अनुरूप हर किसी के पृथक परामर्श ही उपयुक्त हो सकते हैं। इस संदर्भ में महत्वपूर्ण व्यक्तियों से कुछ विशेष विचार−विनिमय की आवश्यकता अनुभव की गई है। अस्तु अगले ही दिनों कुछ परामर्श पत्रों की तात्कालिक व्यवस्था बनाई गयी है।

साधना वर्ष बसन्त से बसन्त तक का है 5 फरवरी 76 से आरम्भ होकर वह एक वर्ष में पूरा हो जायगा। इसके प्रथम चार महीनों में वे परामर्श और प्रयास पूरे हो जाने चाहिएं जिन्हें शेष आठ महीने फलित होने में ही निश्चिंतता पूर्वक लग सके। इस दृष्टि से शान्तिकुञ्ज में चल रही सत्र प्रक्रिया को अधिक विस्तृत और अधिक प्रखर बनाया गया है।

घोषित पाँच सत्रों में से बसन्त पर्व का दस दिवसीय सत्र यथासमय पूरा हो गया। साधना वर्ष के आरम्भिक चार महीनों में दो और होने शेष हैं। एक−चैत्र की नवरात्रि का− दूसरा जेष्ठ की गायत्री जयन्ती का। दोनों ही दस−दस दिवसीय हैं। दोनों में ही 24 हजार गायत्री अनुष्ठानों की तथा योग तप साधना विधानों का घोषित समन्वय यथावत् है। इनमें आने की जिन्हें स्वीकृति दी गयी है वह यथावत् है। उसमें कोई हेर−फेर नहीं है।

सत्रों के बीच में एक-एक दिन इसलिए खाली छोड़ा गया है कि आगन्तुकों को एक दिन पूर्व ही आना पड़ेगा। खाली करने वाले तो शिविर के अन्तिम दिन मध्याह्नोत्तर विदा हो सकेंगे। विदाई और आगमन की अस्त-व्यस्तता को ध्यान में रखते हुए एक दिन खाली रखना आवश्यक था।

इन पंक्तियों के द्वारा उन सभी भावनाशील परिजनों को इन आठ सत्रों में परामर्श- प्रयोजन के लिए पधारने के लिए आमन्त्रित किया जा रहा है जो बसन्त, चैत्र नवरात्रि या जेष्ठ जयन्ती के सत्रों में सम्मिलित नहीं हो सकेंगे। बसन्त पर्व समाप्त हुआ। चैत्र और जेष्ठ के सत्रों में आने वालों की संख्या लगभग पूर्ण हो गई है, अब उपरोक्त आठ सत्र ही शेष हैं जिनमें विशिष्ट परिजनों को आने के लिए आमन्त्रित किया जा रहा है।

आमन्त्रण का उद्देश्य परिजनों में दिव्य अवतरण की सम्भावना पर विचार करा और जिसके लिए जितना संभव हो उतने की उनके लिए व्यवस्था करना मात्र है। इसी सिलसिले में यह विचार कर लिया जायगा कि मिशन के घोषित उद्देश्यों को अग्रगामी बनाने के लिए इस वर्ष कहाँ क्या कुछ सम्भव हो सकता है?

यह अंक पाठकों के हाथों पहुँचने के पश्चात आठ सत्रों का समय बहुत ही कम रह जायगा। इसलिए अलग से पत्र व्यवहार की गुंजाइश न रहेगी। यह अंक ही आमन्त्रण समझा जाय और जिन्हें जिस सत्र में सुविधा पड़ती हो वे उसके लिए आवेदन पत्र भेजें। कोई भी किसी भी सत्र में आ सके ऐसा संभव नहीं हो सकता। शान्ति-कुंज में स्थान नितान्त सीमित है। उतने ही आगन्तुक यहाँ ठहर सकते हैं, जिनके लिए स्थान है, अस्तु अपनी सुविधा के कम से कम दो सत्रों की तारीखों के लिए आवेदन करना चाहिए ताकि स्थान संतुलन को ध्यान में रखते हुए स्वीकृति दी जा सके। देर से आवेदन पत्र भेजने पर सीमित स्थान पूरे हो जाने के कारण इन सत्रों में प्रवेश मिल सकना संभव न हो सकेगा। तब आश्विन नवरात्रि उसके पश्चात् के सत्रों की स्वीकृति देने के अतिरिक्त और कोई चारा शेष न रह जायगा। जल्दी आवेदन पत्र भेजने का सुझाव इसीलिए दिया गया है।

यहाँ यह अत्यन्त स्पष्ट है कि प्रायः सभी सत्र विशिष्ट परिजनों को महत्वपूर्ण परामर्श देने एवं प्रकाश देने के लिए दिये जा रहे हैं। इनके साथ तीर्थयात्रा का उद्देश्य न जोड़ा जाय और स्त्री, बच्चों, वृद्ध, पड़ौसी, दर्शनार्थी, आशीर्वादार्थी लोगों की भीड़ को साथ लेकर न चला जाय। इससे स्थान घिरने से उपयुक्त व्यक्तियों को लाभ लेने से वंचित रहना पड़ता है और अनगढ़ लोगों के कारण यहाँ घोर अव्यवस्था फैली है। शान्ति कुंज का उपयोग धर्मशाला की तरह करने के इच्छुकों को सदा से रोका जाता रहा है। अब इस संदर्भ में अत्यन्त कड़ाई बरती जायगी और अवांछनीय लोगों को उलटे पैरों वापस लौटा दिया जायगा। मिशन की कार्यकर्त्ती एवं विचारशील महिलाओं की बात दूसरी है, पर अन्य लोगों के लिए स्वीकृति प्राप्त करने का प्रयत्न भी एक प्रकार से छल करना ही है। कष्ट पीड़ितों का- सहायता प्राप्त करने का मनोरथ रखना तो उचित है, पर इसके लिए एक अधिकारी व्यक्ति का स्थान रोकने की चेष्टा उन्हें नहीं करनी चाहिए। यहाँ उच्च उद्देश्य के लिए ही किसी को आना और ठहरना चाहिए। अन्य लोगों के लिए होटल धर्मशाला ही उचित स्थान है।

चैत्र से जेष्ठ तक की अवधि में होने वाले 8+2=10 सत्र विशेष महत्वपूर्ण हैं अपेक्षा यह की जायगी कि इस अवधि में प्रायः सभी प्रखरता सम्पन्न स्वजनों से परामर्श- विचार विनिमय एवं आदान-प्रदान कर लिया जाय। इसके लिए कुछ लोगों को अपने क्षेत्र के लोगों से संपर्क बनाने और जो इन सत्रों के लिए उपयुक्त हैं, उन्हें साथ लाने का काम भी सौंपा गया है।

आगामी दो दस दिवसीय और आठ पाँच दिवसीय सत्र विशिष्ट परिजनों में दिव्य अवतरण की, व्यक्तित्वों में काया-कल्प की और युग परिवर्तन की संभावना साकार करने में अति महत्वपूर्ण भूमिका सम्पन्न कर सकेंगे ऐसा लगता है।

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