रात्रि की निस्तब्धता (kahani)

March 1976

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रात्रि की निस्तब्धता को चीरते हुए एक सन्त अपने प्रवास पर शान्तिपूर्वक चले जा रहे थे कि रास्ते में एक कुत्ता मिला और उन्हें देखकर बेतरह भौंकने लगा।

विचार मग्न साधु रुके और उस कुत्ते से बोले- ‘‘मूर्ख अकारण ही क्यों भौंकता है? तेरे इस भौंकने से सोने वाले जागते हैं- पथिकों की यात्रा अवरुद्ध होती है और तू तिरस्कार का भाजन बनता है।’’

कुत्ता सन्त के आक्षेप से सहमत न हो सका। उसने नम्रता पूर्वक उत्तर दिया- ‘‘देव! मेरा प्रयोजन उससे भिन्न है जैसा कि आप सोचते हैं। रात में भौंकने से गृहस्वामी जागरूक रहते हैं और चोरों से उनकी क्षति नहीं होती। राह में इसलिए पड़ा रहता हूँ कि किसी सन्त का इधर से निकलना हो तो उनकी चरण रज में लोटकर मेरा उद्धार हो जाय, साधुओं की विचित्र वेश-भूषा को देखकर मैं अधिक क्रोध पूर्वक इसलिए चिल्लाता हूँ कि आप लोग विचित्र वेश बनाकर अपनी श्रेष्ठता की विज्ञप्ति करने की अपेक्षा यदि साधारण नागरिक बनकर रहते और साधु आचरण का परिचय देते तो क्या बुरा था?

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