अपने भाग्य−भविष्य का निर्माण हम स्वयं ही करते हैं।

March 1976

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दूसरों की सहायता से अपनी सुविधाएँ बढ़ती हैं और उनके असहयोग एवं आक्रमण से अपनी प्रगति का मार्ग अवरुद्ध होता है−विद्वेषी लोग विपत्ति खड़ी करते हैं और सहयोगी सुखद सम्भावनाएँ उत्पन्न करते हैं। यह तथ्य सर्वविदित है। सहयोगी हर किसी की इच्छा यही रहती है कि उसके सहयोगी बढ़ते रहें और विद्वेषी घटते जायँ। इस स्वाभाविक आकाँक्षा की पूर्ति का जो सही तरीका हैं उससे बहुत कम लोग परिचित होते हैं। यही बहुत बड़े दुर्भाग्य की बात है। अनुभव हीन प्रयास में भटकते हुए पैर कहीं से कहीं जा पहुँचते हैं। और भटकाव के कारण उलटे उलझन में फँसते तथा कष्ट सहते हैं।

संसार का सुस्थिर सनातन शाश्वत नियम यह है कि व्यक्ति का स्तर अपने स्तर की ओर आकर्षित होता है और आकर्षित करता है। चुम्बक लोहे के टुकड़ों को अपनी और खींचता है और लौह चूर्ण चुम्बक की ओर दौड़ता है। चोरों के पास चोर, जुआरियों के पास जुआरी, नशेबाजों के पास नशेबाज ढूँढ़ते, टटोलते जा पहुँचते हैं और परस्पर घुल−मिलकर अपने ढंग का ताना−बाना बुनते हैं। ठीक यही बात साधु, सज्जन, सद्गुणी लोगों के सम्बन्ध में लागू होती है। उनके भी सत्संग जुड़ते और जमाते बनती हैं और सदुद्देश्य पूरा करने वाली योजनाओं को कार्यान्वित करने के प्रयास चलते हैं। उस समूह में भी सहयोगियों की संख्या बढ़ती ही जाती है। दूसरी ओर चोर दुराचारियों के गिरोह भी बढ़ते और मजबूत होते जाते हैं। यह समान स्तर के लोगों का समान स्तर वालों के साथ जुड़ते घुलते जाने के सिद्धान्त का प्रत्यक्ष प्रमाण है।

धातुओं की खदानें क्रमशः बढ़ती ही जाती हैं इसका कारण यह है जहाँ जितनी धातु जमा होती है वहाँ उस स्तर का उतना ही चुम्बकत्व बढ़ता है और वह अपने सजातीय धातु कणों को दूर−दूर तक धूलि में पड़े बिखरे होने पर भी प्रभावित करता है, उस आकर्षण से वे खिंचते चले आते हैं और जहाँ धातु की खदान थी वहाँ इकट्ठे होते रहते हैं। खदानें इसी आधार पर दिन−दिन विस्तृत होती रहती हैं। यह सिद्धान्त मनुष्यों पर भी लागू होता है। उनका आन्तरिक चुम्बकत्व सजातियों को अपनी ओर खींचता रहता है और तरह−तरह के समूह बनते रहते हैं। अपने गुण, कर्म, स्वभाव के अनुरूप जिस स्तर का व्यक्तित्व विनिर्मित होता है उसी प्रकार के व्यक्ति घनिष्ठ बनते चले जाते हैं और फिर उनके संयोग में जो प्रतिक्रिया होनी चाहिए वह होती है। दुष्ट−दुर्जनों के मिलने पर एक प्रकार की हलचलें उत्पन्न होती हैं और स्नेही, सज्जनों का सद्भाव सम्पन्न आदान−प्रदान चल पड़ता है। देखने में यह दोनों परिस्थितियाँ एक दूसरे से भिन्न हैं और ईश्वरीय कोप अथवा अनुग्रह का परिचय देती है। तो भी वे एक ही क्रम व्यवस्था के कारण उत्पन्न हो रही होती हैं। अपना दूषित व्यक्तित्व दूसरे दुर्जनों को एकत्रित कर रहा होता है अथवा अपनी सज्जनता दूसरे सज्जनों को आमन्त्रित करने में जुटी होती है। एक स्थिति में विग्रह और अनाचार उत्पन्न होता है दूसरी में स्नेह, सहयोग की वर्षा होती है। यह भिन्नताएँ अपनी भीतरी स्थिति की ही प्रतिध्वनियाँ−प्रतिच्छाया हैं, मालूम ऐसी होती है मानो कहीं बाहर से वे अप्रत्याशित रूप से आ धमकी हैं।

हर मनुष्य के अन्दर कुछ न कुछ अच्छाई और कुछ न कुछ बुराई पाई जायगी। उनमें से जिस भी अंश का हम स्पर्श करेंगे वही अपने लिए फलप्रद बन जायगी। गाय दूध भी देती है और गोबर भी। अपनी रुचि जिसमें होगी वही खोजा जायगा और वही मिलेगा। बगीचे में फूल भी रहते हैं और गन्दगी भी। भौंरे फूलों का आनन्द लेते हैं गुबरीले कीड़ों को सारे उद्योग में गन्दगी के ही ढेर लगे मिलते हैं। अपनी रुचि के अनुरूप हम किसी भी व्यक्ति के दुर्गुणों के, सद्गुणों के सम्पर्क में आते हैं और उसी के सम्पर्क की प्रतिक्रिया अनुभव करते हैं। हरा चश्मा पहन लेने पर हमें वस्तु हरे रंग की दीखती है, पर उसे बदलकर लाल रंग का पहन लें तो सब कुछ लाल रंग का दिखाई पड़ने लगेगा। चश्मे की तरह ही दृष्टिकोण का प्रभाव होता है। सन्त, सज्जन इस संसार को विराट् ब्रह्म के रूप में देखते हैं और “सियाराम मय सब जग जानी” की भावना से लोक−मंगल में निरत रहते हैं। इसके विपरीत दोष दृष्टि भरी रहने से यह विश्व भवसागर दिखाई पड़ता है और सर्वत्र पाप अनाचार की असुरता, आधि−व्याधि की बहुलता ही दिखाई पड़ता है।

स्वर्ग किसी स्थान विशेष का नाम नहीं है। किसी लोक विशेष में वैसी इमारतें या परिस्थितियाँ नहीं हैं जैसी कि स्वर्ग का वर्णन करते हुए कथा−पुराणों में बताई गई हैं। न किसी ग्रह−नक्षत्र में वैसा नरक है जैसा यमदूतों द्वारा उत्पीड़न दिये जाने के कथा−विवरणों में बताया जाता है। इन दोनों का अस्तित्व इसी लोक में है और हर व्यक्ति के दाँये−बाँये साथ−साथ चलता है। जब चिन्तन की धारा उत्कृष्ट और क्रिया−प्रक्रिया आदर्श होती हैं तो अन्तःकरण में अपार संतोष और आनन्द भरा रहता है। कस्तूरी के हिरन को अपनी नाभि की महक से दशों दिशाएँ सुगन्धित दीखती हैं। यही स्वर्ग है। दर्पण में अपना ही प्रतिबिम्ब दीखता है। अपनी सज्जनता बाहर के लोगों की श्रद्धा, सहानुभूति एवं सहायक योगदान लेकर वापस लौटती है। ऐसे व्यक्ति घटिया व्यक्तियों, वस्तुओं तथा परिस्थितियों के बीच भी उल्लास भरा वातावरण विनिर्मित कर लेते हैं। यही स्वर्ग का सृजन हुआ। सन्त इन्फर्सन कहा करते थे−‘‘मुझे नरक में भेज दो मैं वहीं अपने लिए स्वर्ग बना लूँगा।’’ इस कथन में ठोस सत्य भरा हुआ है। सज्जन अपनी प्रखर उत्कृष्टता के सहारे सम्पर्क में आने वाले हर जड़ चेतन को अपने अनुरूप बहुत कुछ बदल लेते हैं, यदि अभीष्ट परिवर्तन न हो सके तो वे अपने व्यवहार को मैत्री, करुणा, उपेक्षा की त्रिविधि नीति अपनाकर कामचलाऊ ताल−मेल बिठा लेते हैं। सुविकसित लोगों के साथ मैत्री, दुःखियों के साथ करुणा और अवाँछनीय लोगों के साथ उपेक्षा का व्यवहार करते हुए टकराव बच सकता है और अपनी सौम्य प्रवृत्ति सुरक्षित रह सकती है।

ठीक इसी प्रकार नरक का सृजन है। दुर्बुद्धि वाले मनुष्य अपनी दूषित दृष्टि और दुष्प्रवृत्तियों के कारण अच्छे वातावरण के बीच भी विक्षोभ उत्पन्न करते हैं। तंग करने पर भोली गाय भी लात मारती है। अनुचित छेड़खानी करने पर सरल लोगों को भी क्रोध आता है और वे भी कठोरता बरतने पर उतारू हो जाते हैं।

अपने से अधिक सम्पन्न लोगों के साथ तुलना करने पर दरिद्रता लदी दीखेगी और दुर्भाग्य का दुःख होगा। इसके विपरीत यदि अपने से अभावग्रस्त लोगों अथवा कठिनाइयों से संत्रस्तों के साथ तुलना की जाय तो फिर अपनी स्थिति पर सन्तोष व्यक्त करते और ईश्वर को धन्यवाद देते ही बनेगा। दरिद्रता और सम्पन्नता स्वयं में कुछ भी नहीं। वे सापेक्ष हैं। ऊँची स्थिति से तुलना करते हुए हम दरिद्र बन जाते हैं और गिरी स्थिति के मुकाबले में सम्पन्न लगते हैं। इस तुलना मापदण्ड में थोड़ा हेर−फेर करके कोई भी दरिद्र अपने को सम्पन्न और कोई भी सम्पन्न अपने को दरिद्र अनुभव कर सकता है।

परिस्थितियाँ नहीं मनःस्थिति ही हमें नरक में डुबोती हैं और स्वर्ग के शिखर पर चढ़ाती हैं। नरक को नीचे पाताल में बताया गया है और स्वर्ग को ऊपर आसमान में। इसका तात्पर्य इतना ही है कि पतित और निष्कृष्ट व्यक्तित्व अपनी दुर्भावनाओं और दुष्प्रवृत्तियों के कारण दुःखद अनुभूतियों और परिस्थितियों से घिरा रहता है और यमदूतों द्वारा उत्पीड़न दिये जाने जैसी पीड़ा सहता है। यह यमदूत और कोई नहीं अपने ही कुविचार हैं। अपना आपा ही नरक है गया−गुजरा स्तर भीतर ही भीतर जलता है और बाहर से प्रतिकूलताएँ सहता है। यही यमदूतों का दण्ड प्रहार है।

ठीक इसी प्रकार स्वर्ग का सृजन भी मनुष्य के अपने हाथ में है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व अपनाकर कोई भी मनुष्य आन्तरिक प्रसन्नता और बाहर से सज्जनों का सद्भाव−सम्पन्न सहयोग पाकर यह अनुभव कर सकता है कि वह स्वर्गीय आनन्द का रसास्वादन कर रहा है। ऊर्ध्वगमन− ही स्वर्गारोहण है। पाण्डव इसी शान्त शीतलता की तलाश में हिमालय की चोटियों पर चढ़े थे। इस उपाख्यान में यह अलंकार व्यक्त किया गया है कि जितनी अधिक मात्रा में उत्कृष्टता अपनाई जायगी, अपनी स्थिति दूसरों की तुलना में उतनी ही ऊँची उठ जायगी और उतनी ही मात्रा में शान्त शीतलता का अनुभव होगा। स्वर्ग इसी प्रकार पाया जाता है।

दूसरे सहायता तो करते हैं पर वह उसी दिशा में होती है जिसमें कि अपना प्रवाह बहता है। यदि अपनी दिशा पतन की ओर चल रही है और दुर्गुणों, दुर्व्यसनों, में लिप्त है तो उसी प्रकृति के लोग अपने इर्द−गिर्द जमा होते चले जायेंगे और पतन की गति और भी तीव्र बनाने में पूरी−पूरी सहायता करेंगे। इसके विपरीत यदि अपनी यात्रा सदुद्देश्य की दिशा में सत्प्रवृत्तियाँ अपनाये हुए चल रही हैं तो उस स्तर के सहयोगियों की भी कभी न रहेगी। श्रेष्ठ सज्जन ऊँचा उठाने और आगे बढ़ाने का मार्ग−दर्शन एवं सहयोग देने के लिए भी कहीं न कहीं से मिल ही जायेंगे। इस प्रकार अपने प्रयास की सफलता और भी सरल हो जायगी। पतन और उत्थान में से किसी एक को चुनना अपना काम है। जैसा निश्चय होगा उसी के अनुरूप चुम्बकत्व उत्पन्न होगा और उसी स्तर के सहयोगियों को आमन्त्रित करके प्रगति क्रम में तीव्रता उत्पन्न कर लेगा।

दूसरों से सहयोग की अपेक्षा करने में कोई हर्ज नहीं, वह मिलता भी है और मिलना भी चाहिए। पर एक बात सदा ध्यान में रखकर चलना होगा कि अपने स्तर के अनुरूप ही यह बाहरी सहयोगी जुटाया जा सकेगा। रात भर भले ही पानी बरसता रहे, पर अपने को उसका उतना ही लाभ मिलेगा। जितना बड़ा बर्तन पास में हो। पात्रता से अधिक बाहरी सहायता मिलती भी कहाँ है? दरिद्र, भिखारियों को कौन सोने की मुहरें बाँटता है उनके पल्ले दो पाँच पैसे के सिक्के ही पड़ते हैं। इसके विपरीत महत्वपूर्ण कार्यों के लिए प्रभावशाली व्यक्ति, प्रयोजन की गरिमा समझाकर लाखों रुपया चन्दा इकट्ठा कर लेते हैं। जो दानी, घिनौने, भिखमंगे को उपेक्षापूर्वक दस पैसे का सिक्का फेंकता है, वही व्यक्ति दूसरे सत्पात्र को खुशी−खुशी सौ रुपये का नोट थमा देता है। इस अन्तर में दानी की उदारता को न्यूनाधिक के रूप में नहीं प्राप्तकर्त्ता की पात्रता को−घट−बढ़ को ध्यान में रखते हुए समझा जाना चाहिए।

परावलम्बन की−दूसरों की गुलामी की सर्वत्र निन्दा की गई है। स्वावलम्बन को−आत्म−निर्भरता को मनीषियों ने भरपूर सराहा है। स्वर्ग की भाँति मुक्ति को भी सर्वोच्च आध्यात्मिक सफलताओं में गिना गया है। मुक्ति का अर्थ है−बन्धन से−परावलंबन से छूटना और स्वावलम्बी बनना। इस दृष्टिकोण को अपनाते ही अनेक महान सत्यों का रहस्योद्घाटन होता है और मनुष्य को विश्वास हो जाता है कि अपनी भली−बुरी परिस्थितियों के लिए पूर्णतया हम स्वयं ही जिम्मेदार हैं। भगवान ने अपने भाग्य निर्माण का दायित्व पूरी तरह हमारे हाथ में सौंपा है। चिन्तन और कर्तृत्व के दोनों पैरों के सहारे से किसी भी दिशा में− कितनी ही लम्बी यात्रा भली प्रकार कर सकते हैं। दूसरे तो यत्किंचित् सहारा भर ही दे सकते हैं। उनके बलबूते कोई बड़ी योजना बनाना और उसके पूरा होने का स्वप्न देखना निरर्थक है।

यदि हम स्वास्थ्य, शिक्षा, सम्पन्नता, सम्मान, सफलता से वंचित रहते हैं तो इसके लिए दूसरों को दोष देना व्यर्थ है गहराई से उन कारणों को तलाश करना चाहिए जिनके द्वारा विपन्नता, विनिर्मित होती है। आलस्य, प्रमाद, उपेक्षा, उदासीनता, आवारागर्दी जैसे दुर्गुणों में लोग अपनी अधिकाँश शक्तियाँ नष्ट करते रहते हैं, महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए उनका श्रम, समय, मनोयोग लगता ही नहीं, फिर वे सफलताएँ कैसे मिलें जो प्रगाढ़ पुरुषार्थ का मूल्य माँगती हैं। असफलताओं का दोष भाग्य, भगवान, ग्रह−दशा अथवा सम्बन्धित लोगों को देकर मात्र मन को बहलाने की आत्म प्रवंचना की जा सकती है− उसमें तथ्य तनिक भी नहीं हैं। संसार के प्रायः सभी सफल मनुष्य अपने पुरुषार्थ से आगे बढ़े हैं उन्होंने कठोर श्रम और तन्मय मनोयोग का महत्व समझा है। यही दो विशेषताएँ जादू की छड़ी जैसा काम करती हैं और घोर अभाव की−घोर विपन्नताओं की परिस्थितियों के बीच भी प्रगति का रास्ता बनाती हैं। सफल मनुष्यों में से प्रत्येक के जीवन पर गहरी दृष्टि डालने से यही तथ्य उभरता दिखाई पड़ेगा कि वे अपनी साहसिकता और श्रमशीलता के सहारे ही आगे बढ़े हैं। उठने वाले या गिरने वाले को उनकी दिशा में प्रोत्साहन देना संसार का काम है। बाहर की कोई शक्ति किसी को उठाती, गिराती नहीं। यह सब पूर्णतया अपनी स्थिति पर निर्भर है।

यह भ्रम जितनी जल्दी हटाया जा सके उतना ही अच्छा है कि कोई देव, दानव, मन्त्र−तन्त्र, गुरु, सिद्ध पुरुष, मित्र, स्वजन, धनी, विद्वान हमारी कठिनाइयाँ हल कर देंगे या हमें सम्पन्न बना देंगे। इस परावलम्बन से अपनी आत्मा कमजोर होती है और अन्तःकरण में छिपी प्रचण्ड आत्म−शक्ति को विकसित होने में भारी अड़चन पड़ती है। अस्तु परावलम्बी मनोवृत्ति को जितनी जल्दी छोड़ा जा सके−आत्म−निर्भरता को जितनी दृढ़ता से अपनाया जा सके उतना ही कल्याण है।

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