अवाँछनीयता की जड़ें काटनी पड़ेंगी।

March 1976

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पत्ता पीला पड़ा और झड़कर नीचे गिर पड़ा। देखने वालों ने उसे पत्ते का दोष और दुर्भाग्य बताया। पर जानने वालों ने जाना कि इस पतन को पूरे वृक्ष का परोक्ष समर्थन प्राप्त था। यदि वृक्ष के रसवाही तन्तु समर्थ रहे होते तो पत्ते के जोड़ ढीले न पड़ते और वह असमय इस प्रकार अपने परिवार से विमुख होकर धूल न चाट रहा होता। पर पूरे पेड़ में घुसी विकृति को दोष कौन दे, पत्ते को ही कोस देना पर्याप्त मान लिया गया।

मार्ग का एक पथिक ठोकर खाकर गिरा और दूसरों से उपहासास्पद बना। इस गिरने में वह असावधानी से चलने का दोषी ठहराया गया, पर द्रुतगामी पथिक ही कौन निर्दोष थे जो जल्दी मंजिल पार करने की धुन में रास्ते के पत्थर जहाँ के तहाँ पड़े छोड़ गये और उन्हें हटाने के लिए रुके नहीं।

कपड़े से गुलाबी ताना टूटता है तो दोष उसी को नहीं दिया जाता वरन् रुई की स्थिति, बुनाई की पूरी प्रक्रिया और मशीनरी की गहरी जाँच−पड़ताल करनी पड़ती है। पर मनुष्य समाज का विचित्र रिवाज है जो प्रत्येक दर्शक गुलाबी ताने को ही दोष देता चला आता है। ऐसा हुआ क्यों? खराबी कहाँ से उत्पन्न हुई यह कोई नहीं देखता।

बाह्याचरण में मर्यादाओं का उल्लंघन करने वाले पकड़े जाने पर घृणित ठहराये जाते हैं, पर उन पदासीनों को क्या कहा जाय जो दण्ड व्यवस्था तो करते हैं, पर अन्तःआचरण की दृष्टि से दण्डित लोगों की अपेक्षा अधिक गये गुजरे हैं। उस ठग की क्या समीक्षा की जाये जो दूसरों से ठगे जाने के उपरान्त ठगी का सरल धन्धा अपनाने के लिए अग्रसर हुआ? हत्यारों के लिए दंड व्यवस्था है फिर उनके लिए क्यों नहीं जो पग−पग पर आत्म−हनन करते हुए लम्बी जिन्दगी जी चुके।

खलील जिब्रान का यह कथन कितना सही है कि सारा मनुष्य समाज किसी उत्सव की शोभायात्रा की भीड़ की तरह एक साथ चल रहा है। चन्द लोगों का सम्पन्न बनना अन्य लोगों के लिए विपन्नता का पथ प्रशस्त करता है। तथाकथित मार्ग−दर्शक ही पथ भ्रष्ट करने के अधिक दोषी ठहराये जायेंगे।

अपराधों को रोका जाना चाहिए और अपराधियों को दण्ड दिया जाना चाहिए, इस उपचार से कोई असहमत नहीं, पर यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि अपराधों के विष वृक्ष की जड़ें काफी गहरी हैं। टहनी काटने से कुछ काम न बनेगा। कुल्हाड़ा तो उन जड़ों पर चलाया जाना चाहिए जो विषैले फलों को उत्पन्न करने के लिए वस्तुतः उत्तरदायी हैं।

चिन्तन के क्षेत्र में परिवर्तन किये जाने चाहिएं और प्रचलनों को बदलना चाहिए अन्यथा अपराधी दंड पाते रहेंगे और अपराध बढ़ते रहेंगे।

घर में घुसे चोर को भागते देखकर मकान मालिक चिल्लाया चोर पकड़ो−चोर पकड़ो वह भागा जा रहा है। चोर दूने जोर से−उन्हीं शब्दों को दुहराता हुआ दूसरों की तरफ इशारा करता गया और भीड़ में गायब हो गया। भीड़ असली चोर को पकड़ने के लिए इधर−उधर भगाती रही, पर वह किसी के हाथ न लगा और पकड़ने वाले भले मानसों की पंक्ति में सिर उठाये खड़ा−खड़ा चोर की निन्दा करता रहा।

ऐसी ही उपहासास्पद विडम्बना अपने पूरे समाज में चल रही है। दोष अमुक वर्ग या व्यक्ति को देने से और सीमित उपचार करने से काम न चलेगा। चिन्तन और प्रचलन का वह सारा ही ढाँचा बदलना पड़ेगा जो अवांछनीयताएँ उत्पन्न करने के लिए उत्तरदायी है।

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