गायत्री के 24 अक्षरों में सन्निहित दिव्य शक्तियाँ

March 1976

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गायत्री के तीन चरण हैं और 24 अक्षर। ॐकार और तीन व्याहृतियाँ मन्त्र भाग से पूर्व−शीर्ष रूप में प्रयुक्त होती हैं। इस मन्त्र गठन में अनेक विशेषताएँ और दिव्य संकेत सन्निहित हैं। अर्थ की दृष्टि से तो इस छन्द में भगवान के चार प्रधान गुणों का स्मरण है और सद्बुद्धि के अन्तःकरण में धारण करने तथा दिव्य प्रेरणा की प्रार्थना भर है। यह बाल−बोध के रूप में शब्दार्थ भर हुआ। इसमें थोड़ी−सी शिक्षाएँ भर दी गईं प्रतीत होती हैं। पर गहराई में उतरने से प्रतीत होता है कि बात इतनी मात्र ही नहीं है उसके जुड़े हुए अक्षरों में से प्रत्येक शक्ति रूप है और उनमें बहुत कुछ ऐसा रहस्यमय भण्डार भरा हुआ है जिसे पाकर मनुष्य धन्य बन सकता है।

यों गायत्री मन्त्र में सन्निहित शिक्षा भी सामान्य नहीं असामान्य है, यदि उसे जीवन में उतारा जा सके तो इसी लोक में−इसी जन्म में देवात्मा बनकर जिया जा सकता है। “भगवान सविता, वरेण्य, भर्ग, देव स्वरूप है उनकी यह विशेषताएँ हमें तेजस्विता, श्रेष्ठ, प्रखरता एवं देवत्व के रूप में अपनानी चाहिए। विवेकशीलता एवं आन्तरिक उत्कृष्टता उत्पन्न करने वाली प्रज्ञा अन्तःकरण में धारण करनी चाहिए और जीवन का समूचा ढाँचा उसी आलोक में खड़ा करना चाहिए। अन्तःचेतना को आदर्शवादी, उत्कृष्टता अपनाने के लिए बलपूर्वक आगे धकेलना चाहिए।” सार रूप में इतना ही गायत्री मन्त्र का शब्दार्थ एवं सार संकेत है। देखने में यह संकेत छोटा−सा और थोड़ा−सा लगता है, पर यदि उतने भर को भी व्यावहारिक जीवन में सम्मिलित किया जा सके तो सामान्य स्थिति का मनुष्य भी मात्र जीवात्मा न रहकर महानात्मा, देवात्मा और परमात्मा के स्तर तक पहुँच सकता है।

मन्त्रों में शिक्षा भी होती है और शक्ति भी। शिक्षा की दृष्टि से कितने ही वेद मन्त्र तथा अन्य भाषाओं में रचे गये पद्य भी गायत्री के समतुल्य हो सकते हैं, पर उनके दिव्य गठन में जो शक्ति स्रोत विद्यमान है वे अन्यत्र नहीं मिल सकते। शब्द को ब्रह्म कहा गया है। अर्थ को उसका कलेवर और प्रभाव को प्राण कहा जा सकता है। सामान्य बुद्धि केवल अर्थ समझ पाती है, पर सूक्ष्मदर्शी उसकी शक्ति को भी समझते हैं। नादब्रह्म का−शक्ति प्रभाव इस संसार पर कब, कैसा और कितना प्रभाव छोड़ता है− उसका उपयोग किस प्रकार किया जा सकता है उसी की सूक्ष्म जानकारी को मन्त्र विद्या कहते हैं। गायत्री के मन्त्रार्थ की तुलना में उसका शक्ति प्रवाह असंख्य गुना अधिक प्रभावोत्पादक है। इसी रहस्य के आधार पर उसे इतना अधिक महत्व दिया गया है और उपासना विज्ञान के आकाश में उसे ध्रुव तारे का स्थान मिला है।

‘योगी याज्ञवलक्य’ नामक ग्रन्थ में गायत्री के अक्षर का विवरण दूसरी तरह लिखा है−

कर्म्मेन्द्रियाणि पंचैव पंच बुद्धीन्द्रियाणि च। पंच पंचेन्द्रियार्थश्च भूतानाम चैव पंचकम॥ मनोबुद्धिस्तथात्याच अव्यक्तं च यदुत्तमम्।

चतुर्व्विंशत्यथैतानि गायत्र्या अक्षराणितु॥ प्रणवं पुरुषं बिद्धि सर्व्वगं पंचविंशकम्।

पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ (2) पाँच कर्मेन्द्रियाँ (3) पाँच तत्व (4) पाँच तन्मात्राएँ। शब्द, रूप, रस, गन्ध, स्पर्श। यह बीस हुए। इनके अतिरिक्त अन्तःकरण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार) यह चौबीस हो गये। परमात्म पुरुष इन सबसे ऊपर पच्चीसवाँ है।

कुलार्णव तन्त्र में आता है−

“तत्कारात यातकार पर्यन्त शब्द ब्रह्म स्वरूपिणी।”

अर्थात् तत्कार से लेकर ‘यात्’ तक गायत्री साक्षात् ब्रह्म स्वरुपिणी है।

चतुर्विंशतितत्त्वा सा यदा भवति शोभना गायत्रीं सवितुः शम्भोः गायत्रीं मदनात्मिकाम्। गायत्रीं विष्णुगायत्रीं गायत्रीं त्रिपदात्मनः। गायत्रीं दक्षिणामूर्त्ते गायत्रीं शम्भुयोषितः॥

गायत्री के चौबीस अक्षर, चौबीस तत्व हैं। गायत्री, सविता, शिव, विष्णु, दक्षिणामूर्ति, शम्भु शक्ति और काम बीज है।

पुरुषो वाव यज्ञतस्य यानि चतुर्विœशति−वर्षाणि तत्प्रातः सवनं चतुर्विœशत्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रातः सवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राण वाव वसव एते हीदœसर्वं वासयन्ति।

−छान्दोग्य 3। 16। 1

पुरुष ही यज्ञ है। उसका प्रातःकाल चौबीस वर्ष का हैं। गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों से ही इसका सम्बन्ध है।

चतुर्विंशतिरुद्दिष्टा गायत्री लोक सम्मता। य एतां वेद गायत्रीं पुण्यां सर्वगुणान्विताम्। तत्त्वेन भरतश्रेष्ठ स लोके न प्रणश्यति।

−महाभारत भीष्म 4। 15। 16

अर्थात्−‘‘यह चौबीस अक्षरों की गायत्री को सम्मत लोक में महान कल्याणकारी माना जाता है। हे युधिष्ठिर! जो कोई इसके तत्व को समझ लेता है उसका कभी नाश नहीं होता।”

गायत्री रहस्योपनिषद् में इस समस्त विश्व−ब्रह्माण्ड को, जड़−चेतन प्रकृति को, देव परिवार को, हलचलों एवं प्रवृत्तियों को गायत्री के अक्षरों में बीज रूप से ओत−प्रोत माना है, आत्मा की सीमित और परमात्मा की असीम शक्ति का ताल−मेल बिठाने वाली महाशक्ति के रूप में गायत्री मंत्र की विवेचना की है। कहा गया है−

ओऽम् भूरिति भुवो लोकः। भुव इत्यन्त−रिक्षलोकः। स्वरिति र्स्वमलोकः। मह इति महर्लोक। जन इति जनोलोकः। तप इति तपोलोकः। सत्यमिति सत्यलोकः। तदति ददसौ तेजोमयं तेजोऽग्निर्देंवता। सवितुरिति सविता सविता साचित्रमादित्यौ वै। वरेण्यमित्यत्र प्रजापतिः। भर्ग हत्यापो वै भर्गः। देवस्य इतीइन्द्रो देवो द्योतत इति स इन्द्रस्तस्मात् सर्वपुरुषो नात रुद्र। धीमहीयत्नन्तरात्मा। धिय इत्यन्तरात्मा परः य इति सदाशिवपुरुषः। नो इत्यास्माकं स्वधर्मे। प्रचोदयादिति प्रचोदितिकाम इमान् लोकाम् प्रत्याश्रयते यः परो धर्म इत्येषा गायत्री।

−गायत्री रहस्योपनिषद्

भू शब्द भू लोक का बोधक है। भुवः आकाश का, महः महलोक का, जनः जनलोक का, तप, तपलोक का, सत्यम्−सत्यलोक का बोधक है। तत्−तेजस्वी अग्नि का, सवितुः−सूर्य का, वरेण्य−प्रजाति का, भर्ग,−वरुण का, देवस्य−इन्द्र का, धीमहि−आत्मा का, धियः−परमात्मा का, यः−शिव का, नः−समष्टि आत्मा का, प्रचोदयात्−प्रेरक इच्छा शक्ति का बोधक है। यह गायत्री ही पर धर्म है। यही समस्त लोकों का प्रत्याश्रय कराती है।

देवी भागवत, पुराण में गायत्री के 24 अक्षरों के साथ 24 ऋषियों का, 24 छन्दों का, 24 देवताओं का, 24 शक्तियों का, 24 तत्वों का, 24 रंगों का वर्णन है। इस महामन्त्र के प्रत्येक अक्षर की एक बीज शक्ति है। उनमें से हर एक को स्वतन्त्र बीज मन्त्र कहा जा सकता है। बीज देखने में एक प्रतीत होता है, पर उसके अन्तराल में वह वृक्ष छिपा रहता है जिसके साथ तना, टहनियाँ, पल्लव, पत्ते, पुष्प, फल आदि का पूरा परिकर जुड़ा हुआ है। अक्षर बीज हैं। गायत्री के 24 बीजाक्षर उन तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनके कारण ऋषि सत्ताएँ तथा देव सत्ताएँ प्रकट होती और अपने विशेष उत्तरदायित्व पूर्ण करती हैं। ‘छन्द’ एक विशेष प्रकार का ध्वनि प्रवाह है जिसका स्थूल रूप विभिन्न लयों में गाये जाने वाले गीतों के रूप में समझा जा सकता है। स्थूल संगीत और वादन के माध्यम से समझा जाता है, पर सूक्ष्म संगीत एक अक्षर मात्र से भी निसृत होता रहता है। ओंकार एक अक्षर है। पर उसके द्वारा निसृत ध्वनि प्रवाह में योगाभ्यास की समस्त सम्भावनाएँ विद्यमान हैं। ठीक इसी प्रकार गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक का एक ध्वनि प्रवाह है जिसे छन्द कहा गया है।

देव सत्ताएँ परब्रह्म के चेतना समुद्र में उठने वाले अनेकानेक ज्वार−भाटे, भँवर अथवा तूफान समझे जा सकते हैं। यों वे महासमुद्र की जलराशि से भिन्न नहीं हैं तो भी उनका स्वरूप और प्रभाव स्वतन्त्र रूप से भी देखा जा सकता है और उनका अन्तर अनुभव किया जा सकता है। ज्वार की प्रत्येक लहर की ऊँचाई, लम्बाई, चौड़ाई तथा क्षमता में जो अन्तर रहता है वही उसकी विशिष्टता एवं आकृति−प्रकृति है। देव सत्ताओं की अपनी शक्ति भी इसी प्रकार है। हर शक्ति में थोड़ा−थोड़ा अन्तर रहता है अस्तु उनके नाम भी अलग−अलग गिनाये गये हैं।

जड़ प्रकृति के पाँच तत्व हैं। पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश से यह सारा जड़ जगत बना है। यह स्थूल और आँख से देखे जाने वाले प्रत्यक्ष तत्व हैं। वैज्ञानिकों ने अपनी प्रयोगशालाओं में इनकी सूक्ष्मता का विश्लेषण करते हुए 103 के करीब तत्व ढूँढ़ निकाले हैं। यह वर्गीकरण आणविक एवं रासायनिक भिन्नता के आधार पर है। अपेक्षा की जाती है कि अगले कुछ ही दिनों में 5 तत्व और खोजे जाने वाले हैं। इस प्रकार 108 तत्वों की माला शृंखला से जप में प्रयुक्त होने वाली 108 दाने की माला के साथ संगति बैठ जायगी और सृष्टि के निर्माण, अभिवर्धन एवं परिवर्तन में काम कर रहे 108 तत्वों को स्मरण दिलाने के लिए जप की माला को तत्वों की माला का प्रतिनिधित्व करने वाली समझा जा सकेगा।

दिव्य तत्व इनसे भिन्न हैं। इनकी पूर्ण संख्या तो नहीं बताई जा सकती, पर यह कहा जा सकता है कि गायत्री के 24 अक्षरों के साथ 24 चेतन तत्वों का भी समावेश है। सूर्य की किरणों में विद्यमान सात रंग प्रसिद्ध हैं इन्हें उनके रथ में जुते हुए सात घोड़े भी अलंकार रूप से कहा जाता है। पर यह सात रंग तो मोटी जानकारी भर है। इनके परस्पर समन्वय से अन्य सहस्रों रंग बनते हैं। इसी प्रकार अदृश्य रंगों की भी बहुत बड़ी शृंखला है। दृश्य और अदृश्य दोनों ही प्रकार के रंगों की गणना की जाय तो वे इतने अधिक होंगे जो गिने न जा सकें। सविता देवता अध्यात्म क्षेत्र का ज्योति केन्द्र है। उसके भी असंख्य रंग हैं। इस वर्ण किरणों का प्रत्यक्ष नाम देना कठिन है। क्योंकि नाम के आधार पर पहचाने जाने वाले रंगों की संख्या तो कुछ दर्जन से अधिक नहीं हो सकती जबकि उनकी संख्या अगणित है। गायत्री मन्त्र का अधिष्ठाता सविता देवता कितने ही दिव्य रंग निसृत करता है। उनमें से 24 अक्षरों के अपने रंग वर्ण हैं इनकी जानकारी देने के लिए पुष्पों के नाम दिये गये हैं जिनकी समानता के आधार पर उन इन वर्णों का परिचय प्राप्त किया जा सके।

गायत्री मन्त्र के अक्षरों के साथ जुड़ी हुई उनकी इन्हीं विशेषताओं, भिन्नताओं एवं शक्तियों का परिचय देवी भागवत, पुराण में इस प्रकार दिया गया है−

अथातः श्रूयतां ब्रह्मन्वर्णऋष्यादिकांस्तथा। छंदांसि देवतास्तद्वत्क्रमात्तत्त्वानि चैव हि॥

वामदेवोऽत्रिर्वसिष्ठः शुक्रः कण्वः पराशरः। विश्वमित्रो महातेजाः कपिलः शौनको महान्॥

याज्ञवल्क्यो भरद्वाजो जमदग्निस्तपोनिधिः। गौतमो मुद्गलश्चेव वेदव्यासश्च लोमशः॥ अगस्त्यः कौशिको वत्सः पुलस्त्यो माँडुकस्तथा।

दुर्वासास्तपतां श्रेष्ठो नारदः कश्यपस्तथा॥ इत्येते ऋषयः प्रोक्ता वर्णानां क्रमशो मुने।

गायत्र्युष्णिगनुष्टुप् च बृहती पंक्तिरेव च॥ त्रिष्टुभं जगती चैव तथाऽतिजगती मता॥ शक्वर्यतिशक्वरी च धृतिश्चातिधृतिस्तथा॥ विराट् प्रतारपंक्तिश्च कृतिः प्रकृतिराकृतिः॥ विकृतिः संकृतिश्चैवाक्षरपंक्तिस्तथैव च॥ भूर्भुवः स्वरिति छंदस्तथा ज्योतिष्मती स्मृतम्। इत्येतानि च छंदाँसि कीर्तितानि महामुने॥ दैवतानि शृणु प्राज्ञ तेषामेवानुपूर्वशः। आग्नेयं प्रथमं प्रोक्तं प्राजापत्यं द्वितीयकाम्॥

तृतीयं च तथा सौम्यमीशानं च चतुर्थकम्। सावित्रं पञ्चमं प्रोक्तं षष्टमादित्यदैवतम्॥ बार्हस्पत्यं सप्तमं तु मैत्रावरुणामष्ठमम्। नवमं भगदैवत्यं दशमं चार्यमैश्वरम्॥ गणेशमेकादशकं त्वाष्ट्रं द्वादशकं स्मृतम्। पौष्णं त्र्योदशं प्रोक्तमैंद्राग्नं च चतुशम्॥

वायव्यं पंचदशकं वामदैव्यं च षोडशम्। मैत्रावरुणि दैवत्य प्रक्तं सप्तादशाक्षरम्॥ अष्टादशं वैश्वदेवमूनविंशंतिमातृकम्। वैष्णवं विशतितमं वसुदैवतमीरितम्॥ एकविंशतिसंख्याकं द्वाविंशं रुद्रदैवतम्। त्रयोविंशं च कौबेरेमाश्विनं तत्त्वसख्यकम्॥

चतुर्विंशतिर्णानाँ दैवतानां च संग्रहः। कथितः परमश्रेष्ठो महापापैकशोधनः॥ वर्णानां शक्तयः काश्च ताः शृणुष्व महामुने। वामदेवी प्रिया सत्या विश्वा भद्रविलासिनी॥ प्रभावती जया शान्ता कान्ता दुर्गा सरस्वती। विद्रु मा च विशालेशा व्यापिनी विमला तथा॥

तमोऽपहारिणी सूक्ष्माविश्वयोनिर्जया वशा। पद्मालया परा शोभा भद्रा चं त्रिपदा स्मृता॥

चतुर्विंशतिवर्णानां शक्तयः समुदाहृताः। अतः परम् वर्णवर्णान्व्याहरामि यथातथम्॥ चम्पका अतसीपुप्पसन्निभं विद्रु मम् तथा। स्फटिकारकं चैव पद्मपुष्पसमप्रभम्॥ तरुणादित्यसंकाश शंखकुन्देन्दुसन्निभम्। प्रवाल पद्मपत्राभम् पद्मरगसमप्रभम्॥ इन्द्रनीलमणिप्रख्य मौत्तिकम् कुम्कुमप्रभम्। अन्जानभम् च रक्तं व वैदूर्यं क्षौद्रसन्निभम्। हारिद्रम् कुन्ददुग्धाभम् रविकांतिसमप्रभम्। शुकपुच्छनिभम् तद्वच्छतपत्र निभम् तथा॥

केतकीपुष्पसंकाशं मल्लिकाकुसुमप्रभम्। करवीरश्च इत्येते क्रमेण परिकीर्तिताः॥ वर्णाः प्रोक्ताश्च वर्णानां महापापविधनाः। पृथिव्यापस्तथा तेजो वायुराकाश एव च॥ गन्धो रसश्च रूपम् च शब्दः स्पर्शस्तथैव च। उपस्थम् पायुपादम् च पाणी वागपि च क्रमात्॥ प्राणम् जिह्वा च चक्षुश्चत्वक्श्रोत्रम् च ततःपरं।

प्राणोऽपानस्तथा व्यानः समानश्च ततः परम्॥

तत्त्वान्येतानि वर्णानां क्रमशः कीर्तितानि तु।

−देवी भागवत

नारदजी ने पूछा− भगवत् गायत्री मन्त्र के चौबीस अक्षरों के ऋषि, छन्द, देवता कौन कौन हैं, यह बताकर मेरी जिज्ञासा का समाधान कीजिए।

नारायण ने कहा− हे! नारद, अकेला ही गायत्री अनुष्ठान इतना समर्थ है कि उसे कर लेने पर फिर और किसी मन्त्रानुष्ठान की आवश्यकता नहीं रहती।

गायत्री के 24 अक्षरों में से प्रत्येक में से प्रकाश की किरणें प्रस्फुटित होती हैं और उन प्रकाश की किरणों के रंग 24 प्रकार के हैं। सात रंगों के नाम तो प्रसिद्ध हैं। पर 24 रंगों के नाम विदित न होने में उनकी तुलना पुष्पों तथा पदार्थों के रंग से की गई है। नीचे 24 अक्षरों की प्रकाश किरणों के 24 रंग नीचे दिये पदार्थों तथा पुष्पों के रंग जैसे समझने चाहिए।

पद्म पुराण में ऐसा विधान है कि एक−एक अक्षर को पृथक−पृथक देव सत्ताएँ मानकर उनकी आकृति, प्रकृति, शक्ति, वर्ण, तत्व आदि समेत ध्यान किया जाय तो 24 देवताओं की 24 प्रकार की शक्तियों का अनुग्रह प्राप्त किया जा सकता है। यह भिन्नताएँ वस्तुतः एक ही अभिन्न तत्व के पूरक घटक मात्र हैं। जिस प्रकार गायत्री मन्त्र में उसके 24 अक्षर गुंथे हुए हैं उसी प्रकार यह देव तत्व भी परस्पर विरोधी या स्वतन्त्र न होकर एक−एक करके समग्र शक्ति केन्द्र को सर्वांगपूर्ण बनाते हैं।

पद्म पुराण का कथन इस प्रकार है−

ज्ञात्वातु देवतास्तस्य वांगमय विदितम् भवेत्।

जप कालेतु संचिन्त्य तासु सायुज्यतां व्रजेत्।

इस श्लोक में यही संकेत है कि उपासना काल में अक्षरों की देव शक्तियों की ध्यान साधना करने में उनके साथ सायुज्यता प्राप्त होती है। साधक उसी स्तर का उन्हीं विशेषताओं से युक्त बनता जाता है।

बाल्मीकि रामायण में मूल श्लोक 24000 माने जाते हैं। यों पीछे से उसमें क्षेपक रूप में कतिपय श्लोक समय−समय पर जोड़े और निकाले जाते रहने के कारण यह संख्या घटती−बढ़ती भी रही है।

महाभारत का विशुद्ध स्वरूप प्राचीनकाल में भारत संहिता के नाम से प्रख्यात था। उसमें 24000 श्लोक थे। ‘चतुर्विंशंति साहस्रीं चक्रे भारतम् संहिताम्” में उसी तथ्य का उल्लेख है। दक्षिण भारत की प्राचीन प्रतियों में महाभारत के पर्वों की संख्या चौबीस है। महाभारत ही नहीं अडियार (मद्रास) से प्रकाशित भगवद्गीता में भी चौबीस अध्याय हैं यह 24 की संख्या गायत्री मन्त्र के 24 अक्षरों की प्रेरणा के साथ संगति आती है।

मद्रास के रामास्वामी शास्त्रुलु एण्ड सन्स, नामक प्रकाशक ने जो रामायण संस्करण प्रकाशित किया है उसमें एक गायत्री रामायण भी है, जिसमें 24 श्लोक हैं। इसमें प्रत्येक श्लोक उसी अक्षर क्रम से आरम्भ हुआ है जिसमें कि गायत्री मन्त्र के अक्षर जुड़े हुए हैं। यह वाल्मीकि रामायण के श्लोकों से संग्रहीत किये गये हैं।

श्रीमद्भागवत् पुराण गायत्री की व्याख्या स्वरूप ही रचा गया कहा गया है। उसमें भी प्रत्येक एक हजार श्लोक के पीछे गायत्री मन्त्र के एक अक्षर का सम्पुट लगाया गया भी माना जाता है। भगवत् गीता में भी ऐसे कितने ही श्लोक हैं जिनमें गायत्री मन्त्र के अक्षरों से ही प्रारम्भ हुआ है। इन्हें क्रमबद्ध जोड़ लेने से गायत्री गीता बन जाती है और उनसे गीता सार समझने का पूरा लाभ मिल जाता है। यों गायत्री गीता के स्वतन्त्र श्लोक भी प्रसिद्ध ही हैं।

गायत्री की व्याख्या स्वरूप भागवत रचे जाने का संकेत देने वाले कुछ उदाहरण मिलते हैं जो इस प्रकार हैं−

यत्राधिकृत्य गायत्रीं वर्ण्यन्ते धर्म विस्तरः।

वृत्रासुरवद्योपेतं तद् भागवतपुच्यते।

जिसमें गायत्री के माध्यम से धर्म का विस्तार पूर्वक वर्णन है। जिसमें वृत्तासुर वध का वृत्तान्त है। यह भागवत ही है।

“सत्यं परं धीमहि”− तं धीमहि इति गायत्र्याँ प्रारम्भेण गायत्र्याख्य ब्रह्म विद्या रूप भेत्पुराण निति।

-श्रीधरी टीका

व्यासजी ने गायत्री प्रतिपाद्य सत्यं परं धीमहि तत्व से ही भागवत् पुराण का प्रारम्भ किया। गायत्री के ही दो अक्षरों की व्याख्या में एक−एक स्कन्ध बनाकर 12 स्कन्द पूरे किये।

अर्थोऽयं ब्रह्म सूत्राणां भारतार्थ विनिर्णयः। गायत्री भाष्य रूपो सौ वेदार्थ परिवृंहणं॥

−गरुड़ पुराण

पुराण, ब्रह्म सूत्रों के अर्थ, महाभारत के निर्णय, वेदों के विवेचन यह सभी गायत्री महामन्त्र के भाष्य हैं।

प्रचोदिता येन पुरा सरस्वती वितन्वताजस्य सतीं स्मृति हृदि स्वलक्षणा प्रादुरभूत्किलास्यतः समे ऋषीणमृषभः प्रसीदतः॥ तेनब्रह्म हृदाय आदिकवये मुह्यन्तियत्सूरयः॥

श्रीमद्भागवत् के उपरोक्त श्लोक से यही आभास मिलता है कि उसकी रचना में गायत्री महामन्त्र का आलोक जुड़ा हुआ है।

देवी भागवत् पुराण का आरम्भ और अन्त गायत्री के ही प्रकाश में हुआ है। प्रारम्भ का श्लोक इस प्रकार है−

ॐ सर्व चैतन्य रूपांतामाद्यां विद्यां च धीमहि। बुद्धिर्योनः प्रचोदयात्।

−देवी भागवत्

जो आदि अन्त रहित, सर्व चैतन्य स्वरूप वाली, ब्रह्म विद्या स्वरूपिणी आदि शक्ति है। उसका हम ध्यान करते हैं यह हमारी बुद्धि के सन्मार्ग पर पूर्ण हुआ है।

महर्षि र्व्यासोऽपि श्रुतिविवरणेषु प्रतिपदं, महिम्नां गानेन स्वपरकुशलं साध्वकलयत्।

कविवाल्मीकिस्ते युग−युगलवर्णान् सुनिपुणः,

समादायानन्यं परिरचितवान् राचचरितम्॥

महर्षि व्यास ने भी श्रुतियों के विवरण करने में प्रत्येक पद की महिमाओं के गान के द्वारा बहुत ही अच्छा स्व पर कुशल वर्णन किया था। महाकवि बाल्मीकि ने आपके युग−युगल वर्णों को बड़ी से निपुणता के सहित लेकर अनुपम श्री राम के चरित्र की रचना की थी।

शारदा तिलक तन्त्र के इक्कीसवें पटल में गायत्री महाशक्ति का उल्लेख है। उसके भाष्य में अन्य आचार्यों द्वारा प्रतिपादित गायत्री मन्त्र के अक्षरों की अध्यात्मपरक व्याख्या का संकलन किया गया है, जो इस प्रकार है−

प्रणवस्य व्याहृतीनां गायत्रौयक्यमधोच्यते॥ तदद्वितोयैक व चनमनेनाऽखिलवस्तुनः। सृष्ट्यादिकारणं तेजोरूपमादित्यमण्डले॥ अभिध्वेयं परानन्दं परम् ब्रह्माऽभिधीयते।यत्तत्सवितुरितुरित्युक्तम् षष्ठ्येकवचनात्मकम्॥ धातोरिह विनिष्पन्नम् प्राणिप्रसववाचकात्। सर्वासां प्राणिजातीनामिति प्रसवितुः सदा। वरेण्यं वरणीयत्वात् सेवनीयतया तथा। भजनीयतया सर्वैः प्रार्थनीयतया स्मृतम्॥ पूर्वस्याऽष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भू रितीरिता।

पापस्य भर्जनद्भगों भक्तस्निग्धतया तथा। देवस्य वृष्टिदानादिगुणयुक्तस्य नित्यशः। प्रभूतेन प्रकाशेन दीप्यमानस्य वै तथा॥ ध्यै चिन्तायामतो धातोर्निष्पन्नधीमहीत्यतः। निगमाद्येन देव्येन विद्यारुपेण चक्षुषा॥ दृश्यो हिरण्मयो देव आदित्यो नित्यसंस्थितः। हीनतारहितम् तेजो यस्य स्यात् स हिरण्मयः। यः सूक्ष्मः सोऽहमित्येवं चिन्तयामः सदैव तु।

द्वितीयाष्टाक्षरस्यैवं व्याहृतिर्भुव ईरिता॥

धियो बुद्धीर्मनोरस्य छान्दसत्वाद् य ईरितः। कृतश्च लिंगव्यत्यासः सूत्रात् सुप्तिंग्पुग्रहात्॥ यत्तत्तेजो निरूपमं सर्वदेवमयात्मकं। भजतां पापनाशस्य हेतुभूतमिहोच्यते॥ न इति प्रोक्त आदेशः षष्ठया बह्विति चास्मदः।

तस्मादस्माकमित्यर्थः प्रार्थनायां प्रचोदयात्॥

इस प्रतिपादन में परब्रह्म परमात्मा सविता की सूर्य मण्डल के रूप में आराधना का उल्लेख है और उसे परम आनन्ददायक, प्राणियों का उत्पादनकर्ता, वरणीय, सेवनीय, भजनीय, प्रार्थनीय बताया गया है पापों का नाश−स्नेह भक्ति का संचार देवत्व की वृष्टि, सद्गुणों का अनुदान, दिव्य प्रकाश की प्राप्ति−विद्या की उपलब्धि का संकेत है। सर्व देवमयी गायत्री उपासना से लोक और परलोक में मिल सकने वाली समस्त विभूतियों को गायत्री उपासना के माध्यम में प्राप्त होने का उल्लेख है।

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