अन्न जीवन है, यह हमारे बाह्य कलेवर का प्राण है, इसके बिना यह कलेवर निर्जीव, निष्प्राण है। यह शरीर रूपी गाड़ी का पेट्रोल है, इसके बिना गाड़ी चल नहीं सकती, शरीर यात्रा ठप्प हो जाती है। प्राण में प्राणशक्ति न हो, पेट्रोल में मिक्स्चर हो, तो भी कलेवर ठीक काम नहीं करता, गाड़ी ठीक चलती नहीं, उसकी गति में वह बात आती नहीं। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हमारा अन्न प्राणवान हो, हमारी पेट्रोल शुद्ध, स्वच्छ हो जो इस शरीर को प्राण दे सके इस गाड़ी को गति दे सके।
अन्न को संस्कार निर्माता कहा गया है। मानसिक संस्कारों के निर्माण में इसका विशेष योगदान रहता है। हमारा गुण, कर्म और स्वभाव वैसा ही बनता है जैसा हम अन्न खाते हैं। कहा भी गया है ‘‘जैसा खायें अन्न, वैसा बने मन।’’ कुधान्य अथवा अभक्ष्य, कुसंस्कार डालता है और पापवृत्तियों की ओर ले जाता है। यह हमारे आत्मबल को क्षीण कर हमारी प्रगति के मार्ग को अवरुद्ध करता है। इसके विपरीत शुद्ध सात्विक आहार, सुसंस्कार और सत्प्रवृत्तियों को जागृत करता है, इससे आत्मबल बढ़ता है और हमारी प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है। इसलिए यह आवश्यक है कि हमारा अन्न सात्विक, परिश्रम तथा ईमानदारी की कमाई का हो। ऐसा अन्न ही हमारे मन पर स्वच्छ एवं स्वस्थ संस्कार डालने में सफल होगा।
अन्न को हम देवता के रूप में मानते हैं अतः भोजन को हमें देव प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। प्रसाद ग्रहण करते समय यह कौन देखता है कि इसमें स्वाद है अथवा नहीं, यह मीठा है अथवा फीका, यह थोड़ा है अथवा अधिक। प्रसाद लेते समय तो हर कोई उसे श्रद्धा एवं भावना के साथ ग्रहण करता है, मस्तक से लगाता है और रुचि पूर्वक खाता है। इसी प्रकार भोजन की थाली सामने आते ही हमें नेत्र बन्द कर, भगवान का नाम लेकर, भोग लगाकर प्रसाद भावना से भोजन ग्रहण करना चाहिए। केवल स्वाद की कमी के कारण उस पर नाक-भौं न सकोड़ी जायें। इस प्रसाद भावना एवं श्रद्धा के साथ किया गया भोजन अपने साथ सूक्ष्म संस्कार लेकर हमारे शारीरिक, मानसिक और आत्मिक संस्थान में प्रवेश कर उसे तत्वतः प्रभावित करता है और हमें दृष्टि, तुष्टि, पुष्टि आदि विभिन्न लाभ प्रदान करता है। यदि भोजन के साथ प्रसाद भावना का समन्वय न किया जाये, तो वह उदर पूर्ति मात्र कर सकता है, उसका अन्य कोई सूक्ष्म प्रभाव न होगा। इसीलिए हिन्दू धर्म में भगवान को भोग लगाकर, भोजन को प्रसाद रूप में ही ग्रहण करने की परम्परा है। जो भगवान को समर्पण किये बिना खाता है, वह गीताकार की दृष्टि में ‘चोर’ है।
आयुर्वेद में आहार को क्षुधा रोग की औषधि माना गया है। औषधि में स्वाद क्या देखना? जो लोग दवा में गुण न देखकर उसका जायका पसन्द करते हैं, वे अस्वस्थता से छुटकारा नहीं पा सकते। भोजन में उसकी सात्विकता और पौष्टिकता ही विचारणीय है स्वाद तो उसमें उल्टा विघ्न उपस्थित करता है। स्वाद की दृष्टि रखकर नमकीन, चटपटे, मीठे, तले हुए, कुरमुरे, चिकने आदि जो पदार्थ खाये जाते हैं, वे पाचन क्रिया को बिगाड़कर, हमें नाना प्रकार के रोगों से ग्रस्त ही करते हैं।
स्वाद न देखने का अर्थ यह नहीं कि भोजन को अरुचिकर एवं अग्राह्य रूप में बनाकर खाया जाये। बुस गया है तो भी खाया जाये, दूध फट गया है, खटांध आ रही है तो भी पिया ही जाये, यह उचित नहीं। अरुचिकर चित्त में घृणा पैदा करने वाली, अखरने, खटकने वाली बात भोजन में न हो, यह तो देखना ही चाहिए। पर बात इतनी ही है कि केवल मीठे या मसाले के आधार पर, केवल स्वाद के आधार पर भोजन को महत्व न दिया जाये। ऐसी धार्मिक अभिरुचि बना लेने से एक लाभ यह भी है कि मनुष्य सीधे-सादे भोजन से संतुष्ट हो जाता है भोजन में मिर्च, मसाले अथवा मिठास के अभाव में न वह क्रुद्ध होता है और न खिन्न।
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