हमारा मस्तिष्क दिव्य शक्तियों का भण्डार

March 1976

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मानवी मस्तिष्क की छोटी सी थैली में इतना विशाल रत्न भण्डार भरा हुआ है कि उसका सदुपयोग कर सकने वाला देवोपम जीवन जी सकता है। बहुमूल्य वस्तुएँ हों पर उनका महत्व विदित न हो अथवा उपयोग न आता हो तो फिर उनका होना न होना बराबर है। वनवासी महिला को कीमती हीरा सड़क पर पड़ा मिल जाय तो वह उस सौभाग्य से कुछ लाभ नहीं ले सकती। बच्चे के हाथ देने पर उसे यह छोटा सा चमकदार पत्थर भर प्रतीत होगा और वह टुकड़ा जहाँ−तहाँ ठुकराया जाता भर रहेगा।

मस्तिष्क में सोचने की शक्ति रहती है, इसे हर कोई जानता है। अधिक जानकारी बढ़ाने के लिए पढ़ने, लिखने और सीखने−सिखाने का क्रम भी चलता है, उतने भर से भी पेट भरने और निर्वाह करने की सुविधा मिल जाती है। पर यदि इससे गहरा उतरा जा सके और चिन्तन को उत्कृष्टता के साथ जोड़ा जा सके तो सामान्य स्थिति का निर्धन व्यक्ति भी उस स्तर का बन सकता है जिसे सन्त, सज्जन एवं श्रद्धास्पद कहा जा सके।

प्रेरणा शक्ति मस्तिष्क में रहती है। चिन्तन की दिशा जिस ओर मुड़ती है उसी प्रकार की गतिविधियाँ विनिर्मित होने लगती हैं, कौन किस प्रकार का जीवन जी रहा है इसे देखकर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि उसकी चिन्तन धारा किस दिशा में बह रही है। जीवन का स्वरूप जो कुछ भी है, व्यक्ति के चिन्तन की प्रतिक्रिया भर है।

मस्तिष्क की गहराई में एक सीढ़ी और नीचे उतरा जाय तो प्रतीत होगा कि उससे मणि−मुक्त को का अजस्र भाण्डागार भरा पड़ा है। उसमें वह सब भी बहुत कुछ है, जिसे अद्भुत कह सकते हैं। यदि इन परतों को समझा जा सके और उनसे सम्बन्ध बनाकर उपयोग में लाया जा सके तो कोई भी व्यक्ति अपने को सामान्य स्थिति से ऊँचा उठाकर असामान्य बनने में सफलता प्राप्त कर सकता है।

मस्तिष्कीय संरचना पर दृष्टिपात करने से प्रतीत होता है कि वह माँस−पिण्ड नहीं वरन् जीवन्त विद्युत भण्डार है। उसमें चल रही हलचलें ठीक वैसी ही हैं जैसी किसी शक्तिशाली बिजली घर की होती है।

खोपड़ी की हड्डी से बनी टोकरी में परमात्मा ने इतनी महत्वपूर्ण सामग्री संजोकर रखी है कि उसे जादू की पिटारी कहने में कोई अत्युक्ति नहीं होगी। शरीर के अन्य किसी भी अवयव की अपेक्षा उसमें सक्रियता, चेतना और संवेदनशीलता की इतनी अधिक मात्रा है कि उसे मानवीय सत्ता का केन्द्र बिन्दु कहा जा सकता है।

मस्तिष्क को दो भागों में विभक्त माना जा सकता है। वह जिसमें मन और बुद्धि काम करती है। सोचने, विचारने तर्क विश्लेषण और निर्णय करने की क्षमता इसी में है। दूसरा भाग वह है जिसमें आदतें संग्रहीत है और शरीर के क्रिया−कलापों का निर्देश निर्धारण किया जाता है। हमारी नाड़ियों में रक्त बहता है, हृदय धड़कता है, फेफड़े हैं श्वाँस−प्रश्वाँस क्रिया में संलग्न रहते हैं, माँस−पेशियाँ सिकुड़ती फैलती हैं, पलक झपकते−खुलते हैं, सोने−जागने का खाने−पीने और मलमूत्र त्याग का क्रम अपने ढर्रे पर अपने आप स्व संचालित ढंग से चलता रहता है, पर यह सब अनायास ही नहीं होता इसके पीछे वह निरन्तर सक्रिय मन नाम की शक्ति काम करती है जिसे अचेतन मस्तिष्क कहते हैं। इसे ढर्रे का मन कह सकते हैं। शरीर के यन्त्र अवयव अपना−अपना काम करते रहने योग्य कल−पुर्जों से बने हैं पर उनमें अपने आप संचालित रहने की क्षमता नहीं है, यह शक्ति उन्हें मस्तिष्क के इस अचेतन मन से मिलती है, विचारशील मस्तिष्क तो रात को सो जाता है, विश्राम ले लेता है नशा पीने या बेहोशी की दवा देने से मूर्छाग्रसित हो जाता है। उन्माद, आवेश आदि रोगों से ग्रसित भी वही होता रहता है। डॉक्टर इसी को निद्रित करके आपरेशन करते हैं। किसी अंग विशेष में सुन्न करने की सुई लगा कर भी इस बुद्धिमान मस्तिष्क तक सूचना पहुँचाने वाले ज्ञान तन्तु संज्ञा शून्य कर दिये जाते हैं फलतः पीड़ा का अनुभव नहीं होता और आपरेशन हो जाता है। पागलखानों में इस चेतन मस्तिष्क का ही इलाज होता है। अचेतन की एक छोटी परत ही मानसिक अस्पतालों की पकड़ में आयी है वे इसे प्रभावित करने में थोड़ा बहुत सफल होते जा रहे हैं। किन्तु उसका अधिकांश भाग प्रत्येक नियन्त्रण से बाहर है। पागल लोगों के शरीर की भूख, मल−त्याग, श्वाँस−प्रश्वाँस रक्त−संचार तथा पलक झपकना आदि क्रियायें अपने ढंग से होती हैं, मस्तिष्क की विकृति का शरीर के सामान्य क्रम संचालन पर बहुत कम असर पड़ता है।

मस्तिष्कीय क्रिया−कलाप जिन नर्व सैल्स् (तन्त्रिका कोशिकाओं) से मिलकर संचालित रहता है उनकी संख्या प्रायः दस अरब होती है। इन्हें आपस में जोड़ने वाले नर्व फाईबर (तन्त्रिका तन्तु) और उनके इन्सुलेशन खोपड़ी के भीतर खचाखच भरे हुए हैं। एक तन्त्रिका कोशिका का व्यास एक इंच के हजारवें भाग से भी कम है और उसका वजन एक औंस के साठ अरबवें भाग से अधिक नहीं है। तन्त्रिका तन्तुओं से होकर बिजली के जो इम्पल्स दौड़ते हैं वही ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से आवश्यक सूचनाएँ उस केन्द्र तक पहुंचाते हैं।

तन्त्रिका कोशाणु एक सफेद धागे तन्तु युक्त होता है यह तन्तु अन्यान्य न्यूरॉनों से जुड़ा होता है। इस प्रकार पूरा मस्तिष्क इन परस्पर जुड़े हुए धागों का एक तन्तु जाल बुना हुआ है। इन्हीं सूत्रों से वे परस्पर सम्बद्ध रहते हैं और अपने कार्यों एवं उत्तरदायित्वों का निर्वाह परस्पर मिल−जुलकर करते हैं।

मानवी मस्तिष्क के स्नायु कोश−नर्व सैल्स−लगभग 10 अरब की संख्या में हैं। संसार में इन दिनों मनुष्यों की आबादी चार अरब के करीब है। इस प्रकार समस्त संसार के मनुष्यों की तुलना में हमारे मस्तिष्क में बैठे हुए यह कोश ढाई गुने हैं। छोटे होते हुए भी इनकी क्षमता अपनी दक्षता के अनुरूप किसी परिपूर्ण मनुष्य से कम नहीं है। इस प्रकार मस्तिष्क रूपी संसार में संसार भर के मनुष्यों से कई गुनी आबादी बसी हुई हैं। मनुष्य लापरवाह और ढीले−पोले हो सकते हैं पर स्नायु कोश अपने क्रियाकलाप में तनिक भी शिथिलता नहीं बरतते।

इन दस अरब कोशों को अद्भुत विशेषताओं से सम्पन्न देव दानव कहा जा सकता है। इनमें से कुछ में तो माइक्रो फिल्मों की तरह न जाने कब−कब की स्मृतियाँ सुरक्षित रहती हैं। मोटेतौर पर जिन बातों को हम भूल चूके होते हैं वे भी वस्तुतः विस्मृत नहीं होतीं, वरन् एक कोने में छिपी पड़ी रहती हैं और जब अवसर पाती हैं वर्षा की घास की तरह उभरकर ऊपर आ जाती हैं। केनेडा के स्नायु विशेषज्ञ डॉ0 पैनफील्ड ने एक व्यक्ति का एक स्मृति कोश विद्युतधारा के स्पर्श से उत्तेजित किया। उसने बीस वर्ष पहले देखी हुई फिल्मों के कथानक और गाने ऐसे सुनाये मानों अभी−अभी देखकर आया हो।

मस्तिष्क की स्मरण रख सकने की अद्भुत क्षमता का परिचय जब तक मिलता रहता है। इससे उसकी स्थिति और सम्भावना का पता चलता है। किन्हीं−किन्हीं के मस्तिष्क की प्रखरता अनायास ही प्रकट हुई देखी गई है। किन्तु यह नहीं समझा जाना चाहिए कि वह विशेषताएँ उन्हीं तक सीमित थीं और वे ही कोई विलक्षण व्यक्ति थे। वस्तुतः यह सम्भावना हर किसी में समान रूप से विद्यमान है। किन्हीं लोगों में वह अनायास ही विकसित हुई होती है, पर अन्य लोग उसे प्रयत्नपूर्वक विकसित कर सकते हैं।

मस्तिष्क नियंत्रण प्रयोगों द्वारा डॉ0 जोजे डेलगाड़ो ने भी यह सिद्ध कर दिया कि मस्तिष्क के दस अरब न्यूरॉन्स के विस्तृत अध्ययन और नियन्त्रण से न केवल प्राणधारी की भूख, प्यास, कामवासना आदि पर नियन्त्रण प्राप्त किया जा सकता है वरन् किसी के मन की बात जान लेना, अज्ञात रूप से कोई बिना तार के तार की तरह संदेश और प्रेरणायें भेजकर कोई भी कार्य करा लेना भी संभव है। न्यूरॉन मस्तिष्क से शरीर और शरीर से मस्तिष्क में संदेश लाने, ले जाने वाले बहुत सूक्ष्म कोषों (सेल्स) को कहते हैं। इनमें से बहुत पतले श्वेत धागे से निकले होते हैं, इन धागों से ही इस कोषों का परस्पर सम्बन्ध और मस्तिष्क में जाल−सा बिछा हुआ है। यह कोष जहाँ शरीर के अंगों से सम्बन्ध रखते हैं वहाँ उन्हें ऊर्ध्वगामी बना लेने से प्रत्येक कोषाणु सृष्टि के दस अरब नक्षत्रों के प्रतिनिधि का काम कर सकते हैं, इस प्रकार मस्तिष्क को ग्रह नक्षत्रों का एक जगमगाता हुआ यन्त्र कह सकते हैं।

मस्तिष्क में इतनी जानकारियाँ भरी रहती हैं कि यदि किसी मानवकृत कंप्यूटर में उतना ज्ञान संग्रह किया जाय तो धरती के क्षेत्रफल जितने चुम्बकीय टेप की उसमें आवश्यकता पड़ेगी, किन्तु इसे उभारना उत्तेजित करना डी0 एन॰ ए॰ (डी0 आक्सीराइवो न्यूक्लिक एसिड, के यदि आर॰ एन॰ ए॰ (राइवोन्यू क्लिक एसिड) के एक इंजेक्शन से ही सम्भव हो सकता है। स्वीडन के गोडेनवर्ग यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक होलगर हाइडेन ने यह सिद्ध किया है कि मानवी मस्तिष्क की स्थिर पत्थर की लकीर नहीं है। उसकी क्षमता को रासायनिक पदार्थों की सहायता से घटाया−बढ़ाया और सुधारा−बिगाड़ा जा सकता है।

इसी प्रसुप्त क्षमता को विकसित करने के लिए योगाभ्यास की साधनाएँ प्रयुक्त होती हैं उनके कारण चिन्तन में उत्कृष्टता और प्रखरता उत्पन्न करने के दोनों प्रयोजन पूरे होते हैं।

मिशीवान विश्व विद्यालय के डॉ0 वर्नाड एग्रानोफ ने सुनहरी मछलियों पर यह प्रयोग किया कि उन्हें यदि भोजन के बाद प्यूरोनाइसिन नामक औषधि खिला दी जाय तो वे यह भूल जाती हैं कि वे भोजन कर चुकीं। कुछ कुत्तों को स्मृति नाशक दवा खिलाई गई तो वे अपने घर और मालिक को भी भूल गये, जिसे वे बहुत प्यार करते थे। यह प्रयोग अभी मनुष्यों पर एक सीमा तक ही सफल हुए हैं, दवा का असर रहने तक ही कारगर रहते हैं, पर सोचा यह भी जा रहा है कि किन्हीं प्रयोजनों की मृत्यु, अपमानजनक घटना, शत्रुता या भयंकर क्षति की चित्त को विक्षुब्ध करते रहने वाली दुःखद घटनाओं को स्थायी रूप से विस्मृत कराने के लिए मस्तिष्क के उस भाग को मूर्छित कर दिया जाय जहाँ वे जमकर बैठी हुई हों। इसी प्रकार मन्द बुद्धि लोगों के लिए स्मरण शक्ति बढ़ाने के उपाय औषधि जगत में खोजे जा रहे हैं यदि यह सफल हो सके तो छात्रों को पाठ याद करने के श्रम से छुटकारा मिल जायगा और वे एक बार पुस्तक पढ़कर ही परीक्षा भवन में पूरे उत्साह और विश्वास के साथ प्रवेश कर सकेंगे।

पोर्सन ग्रीक भाषा का अद्वितीय पण्डित था, उसने ग्रीक भाषा की सभी पुस्तकें और शेक्सपियर के नाटक मुख जबानी याद कर लिये थे। ब्रिटिश संग्रहालय के सहायक अधीक्षक रिचर्ड गार्नेट बारह वर्ष तक एक संग्रहालय के मुद्रित पुस्तक विभाग के अध्यक्ष थे, इस संग्रहालय में पुस्तकों की हजारों अलमारियां और उनमें करोड़ों की संख्या में पुस्तकें थीं। श्री गार्नेट अपनी कुर्सी पर बैठे−बैठे न केवल पुस्तक का ठिकाना बता देते थे, वरन् पुस्तक की भीतरी जानकारी भी देते थे।

इस छोटी सी कोठरी को एक प्रकार से बहुमूल्य रत्नों से भरी हुई तिजोरी कहा जा सकता है। इस पोटली में इतना कुछ भरा है जिसका सहज ही मूल्याँकन नहीं किया जा सकता। दुःख इसी बात का है कि बाहर के जड़ पदार्थों के सम्बन्ध में बहुत कुछ खोजा जाता है और उनका संग्रह तथा उपयोग−उपभोग करने की ललक लगी रहती है, पर अन्तर्जगत में दृष्टि डालकर यह नहीं देखा जाता कि अपने भीतर कितनी बहुमूल्य सम्पदा भरी पड़ी है। बाहर से जो कुछ जितने श्रम के जितने मनोयोग के मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है उससे कहीं कम प्रयत्न से अन्तर्जगत खोजा जा सकता है और कहीं अधिक पाया जा सकता है।

ऐलेक्ट्रिकल स्टीम्यूलेशन आफ ब्रेन (ई॰ एस॰ बी॰) पद्धति के अनुसार कई एशियन विश्वविद्यालयों ने आँशिक रूप से मस्तिष्क की धुलाई (ब्रेन वाशिंग) में सफलता प्राप्त कर ली है। अभी यह बन्दर, कुत्ते, बिल्ली, खरगोश, चूहे जैसे छोटे स्तर के जीवों पर ही प्रयोग किये गये हैं। आहार की रुचि, शत्रुता, मित्रता, भय, आक्रमण आदि के सामान्य स्वभाव को जिस प्रकार चरितार्थ किया जाना चाहिए उसे वे बिलकुल भूल जाते हैं और विचित्र प्रकार का आचरण करते हैं। बिल्ली के सामने चूहा छोड़ा गया तो वह आक्रमण करना तो दूर उससे डरकर एक कोने में जा छिपी। क्षणभर में एक दूसरे पर खूनी आक्रमण करना, एक आध मिनट बाद परस्पर लिपट कर प्यार करना यह परिवर्तन उस विद्युत क्रिया से होता है जो उनके मस्तिष्कीय कोषों के साथ संबद्ध रहती है। यही बात मनुष्यों पर भी लागू हो सकती हैं। मानव मस्तिष्क अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत होता है उसमें प्रतिरोधक शक्ति भी अधिक होती है इसलिए उसमें हेर−फेर करने के लिए प्रयास भी कुछ अधिक करने पड़ेंगे और पूर्ण सफलता प्राप्त करने में देरी भी लगेगी, पर जो सिद्धान्त स्पष्ट हो गये हैं, उनके आधार पर यह निश्चित हो गया है कि मनुष्य को भी जैसा चाहे सोचने मान्यता बनाने और गतिविधियाँ अपनाने के लिए विवश किया जा सकता है। निर्धारित रसायन तत्वों को पानी में घोलकर पिलाया जाता रहे तो किसी तानाशाह शासक की इच्छानुकूल समस्त प्रजा बन सकती है। फिर विचार−प्रसार की आवश्यकता न रहेगी वरन् अन्न, जल, औषधि आदि के माध्यम से कुछ रसायन भर लोगों के शरीर में पहुँचाने की आवश्यकता पड़ेगी, वे मस्तिष्क में पहुँच कर वैसा ही परिवर्तन कर देंगे जैसा वैज्ञानिकों या शासकों को अभीष्ट होगा, तब घोर अभाव−ग्रस्त स्थिति में भी जनता अपने को रामराज्य जैसी सुखद स्थिति में अनुभव करती रह सकती है। यदि लड़ाकू पीढ़ी बनानी हो तो उस देश का हर नागरिक दूसरे देशों पर आक्रमण करने के लिए आतुर हो सकता है।

वैज्ञानिकों की दृष्टि में हर विचार−हर आकांक्षा और हर अनुभूति एक विद्युत हलचल अथवा रासायनिक प्रक्रिया है। इस क्रिया−कलाप का इलेक्ट्रो एनिसोफेलो ग्राफ (ई. सी. जी.) यन्त्र द्वारा जाना जा सकता है और यह समझा जा सकता है कि मस्तिष्क में किस स्तर की विचारधारा प्रवाहित हो रही है।

यह चिन्तन का परिष्कार हुआ। मनोविकारों को धोया जा सकता है और मस्तिष्क की स्थिति ऐसी बन सकती है जिसमें मात्र देवत्व का ही साम्राज्य हो। यह प्रयत्न रासायनिक पदार्थों और विद्युत धाराओं के आधार पर भौतिक विज्ञानियों द्वारा किये जा रहे हैं। अध्यात्म विज्ञान द्वारा यह कार्य और भी अधिक ऊँचे एवं उपयोगी ढंग पर किया जाना सम्भव है।

कुछ वर्ष पूर्व इच्छा शक्ति के चमत्कारों का प्रत्यक्ष प्रदर्शन करने के लिए डॉ0 राल्फ एलेक्जेण्डर ने एक सार्वजनिक प्रदर्शन मैक्सिको नगर में किया था। इस प्रदर्शन में प्रायः सभी प्रतिष्ठित पत्रों के प्रतिनिधि और अन्यान्य वैज्ञानिक, तार्किक, बुद्धिजीवी तथा संभ्रांत नागरिक आमन्त्रित किये गये थे। प्रदर्शन यह था कि आकाश में छाये बादलों का किसी भी स्थान से−किसी भी दिशा में हटाया जा सकता है और उसे कैसी ही शक्ल दी जा सकती है। बादलों को बुलाया और भगाया जा सकता है।

नियत समय पर प्रदर्शन हुआ। उस समय आकाश में एक भी बादल नहीं था। पर प्रयोगकर्त्ता ने देखते−देखते घटाएँ बुला दीं और दर्शकों की माँग के अनुसार बादलों के टुकड़े अभीष्ट दिशाओं में बखेर देने और उनकी विचित्र शक्लें बना देने का सफल प्रदर्शन किया। इस अद्भुत प्रदर्शन की चर्चा उन दिनों अमेरिका के प्रायः सभी अखबारों में मोटे हैडिंग देकर छपी थी।

उपरोक्त प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए एक प्रसिद्ध विज्ञानी एलेन एप्रागेट ने ‘साइकोलॉजी’ पत्रिका में एक विस्तृत लेख छापकर यह कहा गया कि मनुष्य की इच्छा शक्ति अपने ढंग की एक सामर्थ्यवान विद्युतधारा है उसके आधार पर प्रकृति की हलचलों को प्रभावित कर सकना पूर्णतया विधि सम्मत है। इसे जादू नहीं समझा जाना चाहिए।

यह हुई मस्तिष्क की प्रखरता। इसे यदि समझा जा सके और आन्तरिक अनैतिकता को समुन्नत किया जा सके तो उसका परिणाम वैसा ही हो सकता है, जैसा कि भूतकाल के योगी और तपस्वियों ने अपनी अलौकिकताएँ प्रकट करते हुए सिद्ध किया था।


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