हँसता हँसाता जीवन क्यों न जीया जाय?

March 1976

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किसी की आत्मा पर अनावश्यक भार लदा है या नहीं इसकी नाप−तौल इस आधार पर की जा सकती है कि वह कितना खिन्न, असन्तुष्ट रहता है अथवा हँसता−मुसकराता दिखाई पड़ता है। खीज, असन्तोष, रोष, उद्वेग से जलते−भुनते व्यक्ति को देखकर सहज ही यह कहा जा सकता है कि विकृत चिन्तन का शिकार है। इसकी जीवन नाव दृष्टि दोष के भँवर में फँसकर डूबने की तैयारी कर रही है। पटरी से उतरा हुआ इञ्जन जमीन में धँस जाता है, तब उसके लिए न आगे बढ़ना सम्भव होता है न पीछे हटना। कलपुर्जों की दृष्टि से उसकी बढ़ी−चढ़ी समर्थता तब निरर्थक सिद्ध होती है और वह अपने उद्धार के लिए क्रेन या जैक की सहायता चाहता है। रेलगाड़ी कीमती होती है। जैक की अपेक्षा इंजन अधिक शक्तिशाली भी होता है और अधिक मूल्यवान भी, पर वह बड़प्पन पटरी से उतर जाने की दशा में व्यर्थ है। चिन्तन की विकृति मनुष्य के चेहरे पर छाई खीज और मस्तिष्क में भरी उद्विग्नता के अनुपात से नापी, आँकी जा सकती है।

कठिनाइयों से रहित मनोवांछित परिस्थितियों और प्रियजनों से घिरा जीवन आज तक किसी का भी नहीं हुआ है। भविष्य में कोई सर्वांगपूर्ण सुविधा सम्पन्न मनुष्य इस संसार में जन्म ले सकेगा ऐसी आशा नहीं की जा सकती। भगवान के अवतार कहे जाने वाले राम, कृष्ण तक की जो दुर्दशा हुई वह सामान्य मनुष्य से अच्छी नहीं, वरन् बुरी ही रहीं। दूसरे अवतार, ऋषि, महापुरुष, ज्ञानी−विज्ञानी भी कठिनाइयों से घिरे और विपत्तियाँ सहन करते रहते हैं। महापुरुषों की महानता इसी आधार पर परखी जाती रही है कि उनने आदर्श और सुविधा में से किये चुना और अपनी चरित्र निष्ठा को कितनी कठिन कसौटियों पर कसे जाने के लिए कितनी प्रसन्नतापूर्वक प्रस्तुत किया।

धनी और दरिद्र−विद्वान और मूर्ख−पुण्यात्मा और पापी परिस्थिति वश अनुकूलता, प्रतिकूलता के झूले पर प्रकृति क्रम के अनुसार आगे पीछे झूलते रहते हैं। प्रारब्ध भोग, विधि−विधान, कर्मफल, समय चल आदि नाम कुछ भी दिया जाय लाभ−हानि, सुख−दुःख और यश−अपयश के अवसर हर किसी के जीवन में रात और दिन की तरह आते−जाते हैं। न उससे ज्ञानी बचते हैं न अज्ञानी। अनाचारी दुष्कर्मों के फलस्वरूप दण्ड भुगतते हैं और सदाचारी पुण्य−परमार्थ के लिए त्याग, बलिदान करते हुए सादगी, संयम और तपश्चर्या, जन्य कठिन परिस्थितियों में होकर गुजरते हैं। सुविधा−असुविधा की बहिरंग कसौटी पर कसने से कोई भी व्यक्ति अपने को सुखी नहीं कह सकता। पर दूसरी दृष्टि से देखने पर सुख सौभाग्य का उपभोग करने वाले इस संसार में कम नहीं हैं। इन सुखी लोगों में से प्रत्येक को विवेक दृष्टि प्राप्त होती है। वे अपने परिष्कृत दृष्टिकोण को हलके फुलके−हँसते खेलते स्वभाव में परिणत करते हैं और खिलाड़ी की स्प्रिट से प्रत्येक स्थिति में सन्तुलित रहने का प्रयत्न करते हैं।

ताश,शतरंज से लेकर−हाकी, पोलो या दूसरे विभिन्न खेलों के खिलाड़ी घड़ी−घड़ी में हारते−जीतते रहते हैं। कभी हार, कभी जीत की उलट−पुलट होती रहने से किंचित मुसकान या किंचित माथे पर सिकुड़न भर आती है, पर उससे उनके उत्साह में कोई फर्क नहीं पड़ता। हार में न वे रोते हैं और न जीत में उछलते हैं। नमक, शक्कर की तरह स्वाद बदलता रहता है, पर वह इतना हलका होता है कि मानसिक स्थिति पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता और विनोद का दुरंगा क्रम यथावत जारी रहता है। यदि हर काम को−हर बात को इसी दृष्टिकोण से देखा, समझा जाय और प्रतिकूलता−अनुकूलता को बहुत गम्भीरतापूर्वक न लिया जाय तो असन्तोष, उद्वेग से सहज ही बचा जा सकता है। उत्तेजना एवं किंकर्त्तव्यविमूढ़ता से बच निकलने वाला मस्तिष्क दूरदर्शी बना रह सकता है और प्रगति का पथ−प्रशस्त करने एवं प्रस्तुत कठिनाइयों से निपटने का रास्ता निकाल सकता है।

जिस प्रकार कठिनाई को वस्तुस्थिति की अपेक्षा अधिक बढ़ी−चढ़ी सोचने से उसका दबाव बढ़ जाता है और अनावश्यक परेशानी से मानसिक स्तर बे तरह गड़बड़ा जाता है, इसी तरह उसे वस्तुस्थिति की अपेक्षा कुछ हलकी गिना जाय तो जितनी चिन्ता होनी चाहिए उतनी न होगी। हलकी मनःस्थिति में एक तो चिन्ता के कारण होने वाली क्षति से बचाव हो जाता है और शान्त चित्त से उपयोगी गतिविधि का निर्धारण करना सरल हो जाता है। निश्चिन्तता, निर्भयता जैसे गुणों की इसलिए प्रशंसा की गई है कि वास्तविक कठिनाई आने पर उसका सामना कर सकने योग्य साहस और विवेक सुरक्षित बना रहता है। यदि संकट सिर पर आ ही जाय और उसे भुगतना ही पड़े तो भी हलकी मनःस्थिति वाला व्यक्ति उसे धैर्यपूर्वक सहन कर लेता है। वह सोचता है, जब अच्छे दिन नहीं रहे तो यह बुरे दिन भी बहुत समय तक क्यों टिकेंगे। समय बदलेगा, अच्छी स्थिति आवेगी और फिर नये सिरे से प्रयत्न करके प्रस्तुत हानि की क्षति पूर्ति कर लेंगे। अच्छे भविष्य की आशा करते हुए कठिन समय सरलतापूर्वक निकल जाता है जबकि अच्छा समय भी बुरे भविष्य की निराशाजनक कल्पनाएँ करते रहने पर भार रूप हो जाता है और सुखद वर्तमान का आनन्द लाभ ले सकना सम्भव नहीं रहता।

विपत्ति को टालने अथवा हलका करने का सबसे सस्ता और सबसे हलका नुस्खा यह है कि कठिनाई को हलकी माना जाय और उसके हल हो जाने पर विश्वास रखा जाय। सही एवं भरपूर प्रयत्न करना ऐसी ही मनःस्थिति में सम्भव हो सकता है। लड़खड़ाता हुआ चिन्तन तो और भी अधिक गहरे दलदल में फँसा देता है। उज्ज्वल भविष्य की आशा छोड़ दी जाय तो फिर चारों ओर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई देगा और हलकी−सी कठिनाई को पार करना भी पहाड़ उठाने जैसा भारी मालूम पड़ेगा।

अनुकूल परिस्थितियाँ सामने आने पर ही प्रसन्नता अनुभव करने की आदत रही तो फिर जीवन में आनन्ददायक कुछ क्षण भी कदाचित ही मिल सकेंगे। कारण कि थोड़ा लाभ होते ही उससे बड़ी आकाँक्षा जग पड़ेगी और जो उपलब्ध हो सका है वह अपेक्षाकृत अपर्याप्त एवं असन्तोषजनक प्रतीत होगा। इच्छा की तुलना में उपलब्धि कम हो तो दुःख अनुभव होगा किन्तु यदि उपलब्धि से इच्छा कम हो तो सन्तोष ही नहीं आनन्द भी मिलेगा। उपलब्धियाँ उतनी मिल जायँ जितनी कि इच्छा हैं, यह कदाचित ही सम्भव होता है क्योंकि प्राप्तियाँ सीमित ही रहेंगी जबकि इच्छाएं क्षण भर बाद पहले की अपेक्षा बढ़कर कई गुनी हो सकती हैं। अस्तु इच्छा और तृप्ति का संतुलन कभी बनेगा ही नहीं। ऐसी दशा में यह तरीका सरल है कि उपलब्धियों की तुलना में इच्छा की सीमा घटा ली जाय और जो मिल सका है उसी में पूरा सन्तोष और आनन्द अनुभव किया जाय। दृष्टि पसारने पर ऐसे असंख्य व्यक्ति मिलेंगे जो अपनी तुलना में कहीं अधिक गई−गुजरी स्थिति में रहते हुए सन्तोष का जीवन जी रहे हैं। उन्हीं का अनुकरण करके हम भी अपनी प्रसन्नता को सदा सर्वदा−हर स्थिति में अक्षुण्ण बनाये रह सकते हैं।

उन्नति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयास करना एक बात है और अपने आपको दीन दरिद्र अनुभव करना दूसरी। खिलाड़ी अधिक रन बनाने के लिए, पहलवान कुश्ती पछाड़ने के लिए, छात्र ऊँचा वज़ीफ़ा पाने के लिए प्रतियोगिता में उतरते हैं, प्रयत्न करते और विजय उपहार पाते हैं। पर इनके न मिलने तक अपने आपको दीन−दुःखी नहीं मानते रहते। उन्हें अपनी सामयिक स्थिति पर सन्तोष भी होता है और गर्व भी। फिर भी अधिक प्रसन्नता पाने−अधिक ऊँचे उठने के लिए प्रयत्न जारी रखते हैं। हमारे प्रयास प्रगति की दिशा में निरन्तर चलें, पर इसके लिए वर्तमान स्थिति को असन्तोष−जनक मानना और खिन्न रहना आवश्यक नहीं है।

हलकी−फुलकी, हर्षोल्लास एवं सन्तोष, आनन्द से जिन्दगी जीने की योजना बनानी चाहिए और इस मार्ग में जो−जो अवरोध हों उन्हें चुन−चुनकर मार्ग से हटाना चाहिए। विचार करने पर सबसे बड़ी−बड़ी अपने को अभावग्रस्त−कठिनाइयों से घिरा हुआ−विरोधी दुर्जनों के बीच रहता−भविष्य में विपत्ति की सम्भावनाओं से जकड़ा अनुभव करेंगे तो जी सदा खिन्न, उद्विग्न रहेगा। चिन्तन की इस निषेधात्मक धारा को विवेकपूर्ण पर्यवेक्षण से बहुत कुछ हलका किया जा सकता है। भविष्य में क्या होना है? किसी को पता नहीं, यदि यही बात हैं तो विपत्ति की आशंका करने की अपेक्षा उज्ज्वल सम्भावनाओं की कल्पना क्यों न की जाय और निराशा के स्थान पर आशा को क्यों न अपनाया जाय? साथियों के दोष ही दोष क्यों देखे जाय? उनमें जो गुण हैं उन्हें क्यों न समझें? उनके द्वारा जो क्षति हुई है उसी पर क्यों विचार करते रहें? जो सहयोग सद्भाव वे देते रहे हैं उन सुखद प्रसंगों का स्मरण क्यों न किया जाय? स्वजनों के दोष, दुर्गुणों को देखना, सुधारना उचित है, पर क्या वह कार्य डॉक्टर और रोगी की−वयस्क और बालक की भावना के साथ उदारतापूर्वक−बिना खोजे भी किया जा सकता है।

जो ईश्वर ने दिया है वह भी कम नहीं है। पशु−पक्षियों और दुःखी दरिद्रों की, रुग्ण अपंगों की तुलना में अभी भी अपनी स्थिति कही अच्छी हैं, इस पर मोद मनाया जा सकता है और अधिक प्राप्त करने के लिए उत्साह एवं आशा भरी मनःस्थिति से प्रयत्न जारी रखा जा सकता है। हमारा अधिकाँश मानसिक बोझ अवास्तविक और निराधार होता है। चिन्तन की विकृतियाँ ही हमें अशान्त बनाये रहती हैं। सन्तान न होने पर कितने ही व्यक्ति दुःखी रहते हैं जबकि उत्तरदायित्वों का बोझ हलका होने के कारण उन्हें सन्तान का भार वहन करने में बेतरह पिसते हुए लोगों की तुलना में अधिक प्रसन्न होना चाहिए था। इसी प्रकार अनेकों अनावश्यक महत्वाकाँक्षाएँ दुःखी बनाये रहती हैं। जिनके जीवन−क्रम का सामान्य निर्वाह क्रम रुकता नहीं। ऐसी अनावश्यक महत्वाकाँक्षाओं का− तृष्णाओं का बोझ आसानी से हलका किया जा सकता है और सादगी जीवन का आनन्द लिया जा सकता है। प्रस्तुत कठिनाइयों से लड़ा जाय, उन्हें हटाने के लिए पूरा कौशल प्रयुक्त किया जाय फिर भी यदि वे न हटें तो प्रारब्ध निपट जाने की बात सोची जा सकती है। अधिक सतर्कता बरतने−अधिक क्षमता जुटाने एवं अनुभव सम्पादित करने का अवसर भी उसे माना जा सकता है। दृढ़ता, साहसिकता, सन्तुलन आदि सद्गुणों की परीक्षा का अवसर भी उसे माना जा सकता है। अधिक विपत्तिग्रस्तों की तुलना में अपने को अधिक भाग्यशाली माना जा सकता है। कठिन समय में भी चिन्तन का परिष्कृत स्तर मन का भार हलका करने में बहुत सहायक सिद्ध हो सकता है। खोज करने पर प्रतीत होगा कि दुःखी मनःस्थिति का बहुत बड़ा कारण सही ढंग से सोच सकने में त्रुटि रहना ही था। उसे सुधार लेने पर अधिकाँश समस्याओं का हल मिल जाता है फिर भी जो रह जाय उसे हर किसी को कुछ न कुछ कमी, कठिनाई रहने के सामान्य क्रम को ऐसे ही हँसते−खेलते सहन किया जा सकता है।

इसी प्रकार अन्य अप्रिय प्रसंग हर किसी के जीवन में कभी न कभी घटित हुए ही होते हैं। यदि उन्हें ढूँढ़−ढूँढ़कर एकत्रित किया जाय और उन्हीं को स्मरण करते रहा जाय तो लगेगा कि सारी जिन्दगी दुःख, कष्ट सहते−सहते असफल बीत गई। इसके विपरीत यदि सुखद प्रसंगों को ढूँढ़ा जाय तो वे भी इतने अधिक दिखाई पड़ेंगे जिनके आधार पर सुखी जीवन जी लेने का गर्व किया जा सके। एक स्मृति दुःखी बनाती है और दूसरी के कारण होठों पर मुसकान दौड़ने लगती है। दोनों में से जिस का भी चुनाव करना हो प्रसन्नतापूर्वक किया जा सकता है।

हँसी−खुशी का हलका−फुलका जीवन शारीरिक, मानसिक,पारिवारिक, आर्थिक सभी पक्षों को प्रभावित करता है और सुखद सम्भावनाएँ विनिर्मित करने में भारी योगदान देता है। वह कठिन नहीं अति सरल है। चिन्तन में थोड़ा हेर−फेर करके हम खिन्न, उद्विग्न जीवन को हँसता−हँसाता बनाने में अभीष्ट सफलता प्राप्त कर सकते हैं।

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