मानसिक अस्वस्थता की उपेक्षा न की जाय

October 1975

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मानसिक दोषों को स्वभाव भिन्नता या स्वभाव दुर्बलता मात्र छोटी बात समझ कर ऐसे ही उपेक्षा में डाल दिया जाता है; जबकि उन्हें अपच, रक्त चाप, जकड़न, थकान जैसे शारीरिक रोगों से भी अधिक घातक मानकर उनके कारण और निवारण की ओर ध्यान दिया जाना चाहिए।

चिन्तन सही और संतुलित हो तो सामान्य स्तर का मस्तिष्क भी पग−पग पर सफलताएँ उत्पन्न करता है और सामान्य परिस्थितियों में रहने पर भी सुव्यवस्थित और सुखी जीवन जिया जा सकता है। इसके विपरित छोटी−छोटी मानसिक विकृतियाँ भी सुविकसित सुशिक्षित मस्तिष्क की क्षमताओं को चौपट करके रख देती हैं। उलझा व्यक्ति स्वयं सनकता रहता है और सम्बंधित लोगों को हैरान करता रहता है। विकृत चिन्तन का नाम ही नरक है। बाहर वालों को स्पष्ट न दीख पड़ने पर भी सनकी व्यक्ति अपने भीतर बेतरह जलते−कुढ़ते रहते हैं और अपनी बहुमूल्य बौद्धिक क्षमताएँ लाभदायक मार्ग पर नियोजित करने की अपेक्षा अपने और दूसरों के विनाश में नष्ट करते रहते हैं। उलटी चाल का परिणाम उलटा होना निश्चित है। ऊँचा उठने के साधन जुटाने की अपेक्षा यदि कोई नीचे गिरने पर उतारू बना रहे तो वही श्रम परिस्थितियों में जमीन आसमान जितना अन्तर उत्पन्न कर देगा।

हमें मानसिक रोगों की और उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। उनसे अनजान नहीं रहना चाहिए और यह नहीं भूलना चाहिए कि विकृतियों की यही छोटी चिनगारियाँ जीवनरूपी सुरम्य उद्यान को भस्म कर डालने का कारण बनाती है। मनोविकारों के दुष्परिणामों को समझ सकने के उपरान्त ही उनसे बचने की तत्परता उत्पन्न हो सकती है।

अमेरिका के मानसिक रोग विज्ञानी राबर्ट डीराव ने अपने सुविस्तृत सर्वेक्षण के आधार पर लिखा है—केन्सर, हृदय रोग, क्षय इन तीनों रोगों से ग्रसित जितने व्यक्ति दुःख पाते हैं, उसकी सम्मिलित संख्या से भी अधिक इस देश में मानसिक विकृति से ग्रस्त पाये जाते हैं। इनमें से एक तिहाई ही इलाज के लिए जाते हैं, दो तिहाई तो अपनी स्थिति को समझ तक नहीं पाते और ऐसे ही अस्त−व्यस्त स्थिति में स्वयं दुख पाते और दूसरों को दुःख देते हुए भटकते रहते हैं। जीन माइनोल ने अपनी पुस्तक ‘दि फिलासफो आफ लोंगलाइफ पुस्तक में लिखा है—जल्दी मृत्यु का एक बहुत बड़ा कारण है−मृत्युभय। लोग बुढ़ापा आने के साथ−साथ अथवा छुटपुट बीमारियाँ उत्पन्न होते ही मृत्यु की आशंका से भयभीत रहने लगते हैं और वह डर उनके मस्तिष्क की बाहरी पर्तों में इस कदर धँसता जाता है कि देर तक जी सकना कठिन बन जाता है। वह डर ही सबसे बड़ा रोग है जो मृत्यु को अपेक्षाकृत जल्दी ही समीप लाकर खड़ा कर देता है।

अरब देश में कुछ शताब्दियों पूर्व एक प्रख्यात चिकित्सक हुआ है—हकीम इब्नसीना। उसने अपनी पुस्तक ‘कानून’ में अपने ऐसे अनेकों चिकित्सा अनुभवों का उल्लेख किया है कि अमुक प्रकार के मानसिक उभारों के कारण शरीर में अमुक प्रकार की विकृतियाँ या बीमारियाँ उठ खड़ी होती हैं। चिकित्सा−उपचार में उसने दवादारु के स्थान पर उनकी मनःस्थिति बदलने के उपाय बरते और असाध्य लगने वाले रोग आसानी से अच्छे हो गये।

‘इलिनोयस इन्स्टीट्यूट आफ टेक्नोलॉजी’ द्वारा संग्रहित आंकड़े यह बताते हैं कि चिन्तातुर व्यक्तियों को जिस भयभीत स्थिति में रहते हुए अपनी शान्ति गँवानी पड़ती है, उसका वास्तविक अस्तित्व कम और काल्पनिक बवंडर अधिक होता है। जो आशंका, आतंक उन पर छाया रहता है, उसका मूर्तिमान रूप कदाचित ही कभी सामने आता है। अधिकतर तो वे बवंडर मस्तिष्क में उत्पन्न होते हैं, वहाँ मन्द अथवा द्रुत गति से घूमते रहते हैं और तब शान्त होते हैं, जब नये बवंडर उन्हें धकेल कर अपना कब्जा जमा लेते हैं। आत्म विश्वास का अभाव और कुकल्पनाएँ गढ़ने में उत्साह का मिला−जुला रूप ही मनुष्य को भयाक्रान्त एवं चिन्तातुर बनाने का प्रधान कारण है।

येल विश्व विद्यालय के मनोविज्ञान विभाग ने भयभीत मनःस्थिति का शरीर पर बुरा प्रभाव पड़ने और स्वास्थ्य नष्ट होने की प्रतिक्रिया के अनेक तथ्य प्रस्तुत करते हुए प्रमाणित किया है—चिन्ता अथवा भय की स्थिति में पड़े हुए व्यक्ति यों के दिल की धड़कन बढ़ जाती है, बड़ी तेज चलने लगती है, गला सूखता है, पसीना छूटता है, कमजोरी अनुभव होती है और पेट बैठता−सा लगता है और सिर पर बोझ लदा सा अनुभव होता है, नींद घट जाती है और स्मरण शक्ति झीनी पड़ती चली जाती हैं।

चिन्ता सामान्य और भयभीतता बढ़ी हुई स्थिति है। वस्तुतः दोनों एक ही बीमारी के हलके भारी दो रूप हैं, उनका शरीर पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका विश्लेषण करते हुए आयोग ने बताया है कि सिर दर्द की स्थिति में जो शारीरिक संतुलन बिगड़ता है उसकी तुलना में चिन्ता में ड्योढ़ी और भयभीत स्थिति में दूनी गड़बड़ी उत्पन्न होती है। शरीर को इसी अनुपात में दबाव सहन करना पड़ता है।

आयोग ने एक आश्चर्यजनक तथ्य यह भी देखा है कि मानसिक रोगियों का इलाज करते−करते स्वयं मानसोपचारक भी चिन्तित रहने लगते हैं। अचेतन उन्हें भी बख्शता नहीं। दूसरों को उपदेश देने और इलाज करने के बावजूद वे स्वयं भी सामान्य कठिनाइयों में बेतरह उलझे पाये जाते हैं। आश्चर्य यह है कि अपनी जैसी स्थिति में दूसरे व्यक्ति को रोगी गिनते हैं और अपने को निरोग। यह छूत की बीमारी उन्हें अपने रोगियों से और वैसी ही बातों की उधेड़ बुन करते रहने के कारण लग गई होती है। आयोग का सुझाव है कि मानसोपचार का कार्य बहुत ही सुदृढ़ मनःस्थिति के ‘मस्त मौला’ लोगों को करना चाहिए।

चिन्तातुर व्यक्ति यों का पूर्व इतिहास खोजने पर यह निष्कर्ष निकला है कि वे दुराव रखने वाले और आडम्बर बनाने वाले, बहाने बाज एवं ढोंगी रहे होते हैं। छिपाव की वृत्ति अपने नये रूप में चिन्ता बन कर मस्तिष्क में जड़ जमाती है और बढ़ने पर भयाक्रान्त, आशंका ग्रस्त बना देती है, ऐसे मनुष्य पग−पग पर अपने ऊपर कोई बड़ा संकट अब तब आता देखते रहते हैं। यद्यपि उन आशंकाओं में एकाध का ही सामना किसी−किसी को करना पड़ता है।

साइको न्यूरोटिक की स्थिति वह है जिसमें कई विचारों का समन्वय करके तर्क और बुद्धि का ठीक तरह उपयोग नहीं हो पाता। कुछ एकांगी मान्यताएँ ही मस्तिष्क पर छाई रहती है और मनुष्य बिना सोच विचार किये उन्हें ही सच मानता और अपनाये रहता है। यह अविकसित मस्तिष्क का चिह्न है। इसे बाल बुद्धि कह सकते हैं। छोटे बच्चों में भी तर्क शक्ति विकसित नहीं होती, वे इच्छाओं, उत्साहों और भावनाओं में ही प्रेरित रहते हैं।

नशेबाजों और अपराधियों में भी इस रोग के लक्षण उभरे रहते हैं। वे अपनी आदतों के विरुद्ध सुनते तो बहुत कुछ हैं, पर अचेतन उनसे प्रभावित नहीं होता और जो आदत अपना ली गई है वह हर हालत में अपने ढर्रे पर चलती ही रहती है। अन्धविश्वासी तथा अति भावुक व्यक्ति भी आँशिक रूप में इसी व्यथा के चंगुल में फँसे होते हैं।

ऐक्जाइटी न्यूरोसिस—दुश्चिन्ता से अनेकानेक घिरे देखे पाये जा सकते हैं। चिन्ता वास्तविक है या अवास्तविक? निकट भविष्य में जिस आशंका की विभीषिका कल्पित की गई है वह आने वाली भी है या नहीं? इन दिनों जिस संकट में अपने को जकड़ा हुआ मान लिया गया है, वह अपनी मान्यता के अनुरूप भयंकर है भी या नहीं? यह सोचने को ऐसे लोगों को फुरसत ही नहीं होती। वे अपनी भयंकर कल्पना को निरन्तर सोचते और परिपुष्ट करते रहते हैं अस्तु वह इतनी प्रबल एवं प्रभावशाली बन जाती है कि अवास्तविक होते हुए भी वास्तविकता से भी अधिक त्रास देती है। वास्तविक संकट आने पर शायद उतना कष्ट न सहना पड़ता जितना उस अवास्तविक कल्पना कष्ट न सहना पड़ता जितना उस अवास्तविक कल्पना ने दे डाला, इस निष्कर्ष पर पहुँच सकना उनसे बन ही नहीं पड़ता।

‘आपसेसिव कम्पलसिव न्यूरोसिस’ में भीतर की घुटन बाहर फूट पड़ता है। दुश्चिन्ताएँ मस्तिष्क के भीतर तक सीमित नहीं रहतीं वरन् उस दीवार को फोड़ कर बाहर निकल पड़ती हैं और क्रिया के साथ सम्बद्ध होकर ऐसे आचरण प्रस्तुत करती हैं जो उपहासास्पद होते हैं और दयनीय भी। यों उसे ऐसा लगता है मानों चिन्ताएँ, पीड़ा एवं प्रताड़ना के रूप में उसे संत्रस्त कर रही हैं, अस्तु वह रोता, कलपता एवं सिर धुनता हुआ देखा जाता है। आँखों में से आँसू, सिर में दर्द, चेहरे पर छाई विषाद की गहरी रेखा देख कर देखने वाला यही कह सकता है, इसे बहुत कुछ सहना पड़ रहा है और किसी भारी संकट से होकर गुजरना पड़ रहा है। रोग का रोगी हर समय अपने इर्द−गिर्द अपवित्रता घिरी देखता है। आंतों में मल, कण्ठ में कफ, भरा रहने की शिकायत रहती है। हाथ, पैर, मुँह धोने और कुल्ला करने की बार−बार आवश्यकता पड़ती है। बर्तन, कपड़े, फर्श, बिस्तर, फर्नीचर आदि गन्दे लगते हैं, इसलिए इन्हें अनेक बार धोते रहने पर भी संतोष नहीं होता और वही क्रिया उलट−पुलट कर फिर करने को जी करता है। दूसरे पूछ सकते है कि यह सब बार−बार क्यों किया जा रहा है, इसलिये अचेतन मन उसका उत्तर देने के लिए कुछ न कुछ बहाना भी गढ़ लेता है। उससे उसे यह सन्तोष हो जाता है, यह क्रिया निरर्थक नहीं वरन् सार्थक की जा रही है।

हताश हुए मनुष्य अपना मानसिक संतुलन खो बैठते हैं और अवसाद ग्रस्त होकर सामान्य शरीर संचालन के क्रियाकलापों तक से वंचित हो जाते है। खाने, सोने और नित्य कर्म करने भर की याद तो रहती है, पर अन्य उत्तरदायित्वों और निर्धारित कर्त्तव्यों को एक प्रकार से भूल ही जाते हैं। याद दिलाने पर ही कुछ कर पाते हैं, अन्यथा खोये−खोये से, भूले−भाले से, जहाँ−तहाँ बैठे किसी स्वप्न लोक में विचरते रहते हैं। गहरी निराशा से ऐसी या इससे मिलती−जुलती स्थिति बन जाती है इसे मानसिक चिकित्सा के संदर्भ में एजीटेटेड डिप्रेसिक साकोसिस कहते हैं।

अपनी निजी उलझनों के सम्बन्ध में अत्यधिक उलझे रहना और उन्हीं पर उलट−पुलट कर विचार करते रहना एक ऐसा गलत क्रम है जिससे मनुष्य संकीर्णता ग्रस्त हो जाता है और उसे तरह−तरह के मनोविकार धर दबोचते हैं। इस स्थिति को न्यूरेस्थीसिया कहते हैं।

केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की पिछली वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में इस समय लगभग एक करोड़ मानसिक रोगी हैं। इनमें से कम से कम आठ लाख तो ऐसे हैं ही जिन्हें पागल खानों में स्थान मिलना ही चाहिए अन्यथा वे दूसरे लोगों की शान्ति भंग करते ही रहेंगे। ऐसे लोग जो मानसिक दृष्टि से छोटे बच्चों जैसी अविकसित स्थिति में रह कर गुजार रहे हैं लगभग 16 लाख हैं।

मनुष्य समाज में बढ़ रही मानसिक अक्षमता और विकार ग्रस्तता का प्रमुख कारण यह है हक हमारा थोड़ा बहुत ध्यान स्वास्थ्य की उपयोगिता समझने पर तो गया भी है, पर मानसिक स्वास्थ्य की बात एक प्रकार से विस्मृत ही कर दी गई है। मानसिक दृष्टि से अविकसित स्त्री, पुरुषों की सन्तानें पैतृक उत्तराधिकार के रूप में अदक्षता लेकर जन्मती हैं और फिर बच्चों के मानसिक परिष्कार की कोई व्यवस्था न होने से वे क्रमशः बढ़ती ही जाती है।

यह तथ्य जल्दी ही समझ लिया जाना चाहिए कि जीवन को सुखी और समुन्नत बनाने के लिए स्वस्थ सक्षम शरीर चाहिए। यह उपलब्धि मस्तिष्क के संतुलित रहने पर ही सम्भव है। मानसिक स्वस्थता की और अधिक ध्यान देने की और उस क्षेत्र में जमी हुई विकृतियों को उखाड़ने की ओर हम जितने सक्रिय होंगे जीवन उतना ही सफल और सरस बन सकेगा।


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