अपने हाथों अपना श्राद्ध नेत्रदान

October 1975

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कोई समय था जब मनुष्यों की स्मृति देर तक कायम रखने के लिए उनके मृत शरीर के साथ ताजमहल सरीखे भवन बनाये जाते थे और पिरामिड खड़े किये जाते थे।

अब युग बदल गया। इन दिनों सोचा जाता है कि कोई सत्कर्म किये जायं जिनसे किन्हीं को सहारा मिले और उनकी सुखी आत्मा से निकला हुआ आशीर्वाद मृतात्मा के काम आये। इन दृष्टिकोण को अपना कर लोग अपने पूर्वजों की शान्ति और सद्गति के लिए सत्प्रयोजनों के लिए कुछ उदार सहायता करते हैं। अधिक अच्छा यह है कि उत्तराधिकारियों से अपेक्षा किये बिना अपनी सद्गति के लिए स्वयं ही अपना श्राद्ध आप किया जाय। इस दृष्टि से नेत्र−दान सरीखी उदारता ऐसी है जिसमें अपना कुछ नहीं बिगड़ता किन्तु दूसरों को आशातीत लाभ मिल सकता है।

अमेरिका में अब तक एक लाख से अधिक व्यक्तियों ने अपना योगदान दिया है। उनकी वसीयतों के आधार पर उनके मरते ही आँखों का वह भाग निकाल लिया गया जिसे दूसरे ज्योति विहीन लोगों की आँखों में फिट करके उनकी अंधेरी दुनिया को फिर से प्रकाशवान बनाया जा सकना सम्भव हो सकता था।

अब इस दिशा में सभी विकसित देशों ने कदम बढ़ा लिये हैं और नेत्र बैंक स्थापित कर लिये हैं। उदार दानी नेत्र दे तो रहे हैं, पर इस दिशा में इतना उत्साह पैदा नहीं हो सका जितना होना चाहिए। संसार के लगभग 5 करोड़ अन्धे हैं, इनमें से अधिकाँश को दृष्टि मिल सकती थी, यदि लोगों ने थोड़ी और अधिक उदारता दिखाई होती।

अब से 200 वर्ष पूर्व ई. डारविन नामक शरीर विज्ञानी ने नेत्र प्रत्यारोपण की सम्भावना का प्रतिपादन किया था। तब से प्रयोग तो कई बार हुए पर उत्साहवर्धक सफलता 1887 में डा. आर्थर हिमले को मिली, जिन्होंने पहली बार खरगोश की आँख की पारदर्शक झिल्ली मनुष्य की आँख में आरोपित की और उसने गई हुई ज्योति को वापिस ला दिया।

नेत्र प्रत्यावर्तन में सबसे सरल कार्य पारदर्शी झिल्ली, स्वच्छ मण्डल, कार्निया का बदलना है। रोहे, मोतियाबिन्द आदि रोगों में यह ऊपरी परत धुँधली या खराब हो जाती है और दीखना बन्द हो जाता है। यदि वह झिल्ली हटा कर नई लगा दी जाय तो फिर से गई हुई ज्योति वापस लौट आयेगी।

झिल्ली, यदि मरने के बाद नेत्र दानी की वसीयत के अनुसार यथा सम्भव जल्दी ही निकाल ली जाती है तो उसे कुछ समय तक दूसरे की आँखों में लगाने के लिए सुरक्षित भी रखा जा सकता है। यों तत्काल प्राप्त झिल्ली अधिक उत्तम रहती है। कुछ समय पूर्व यह झिल्लियाँ केवल 48 घण्टे ही सुरक्षित रखी जा सकती थी; पर अब 70 से॰ शीताँश में रखने पर वे एक महीने तक काम में आ सकने योग्य रह सकती हैं।

यद्यपि अस्पतालों में सैकड़ों व्यक्ति रोज मरते हैं, पर कानून के अनुसार 48 घण्टे उस लाश के दावेदारों की प्रतीक्षा किये बिना उसका कोई अंग काटा नहीं जा सकता और इतना समय बीत जाने के बाद शरीर का कोई अंग प्रत्यारोपण के योग्य नहीं रह जाता। इसलिए लावारिस लाशों से नहीं यह प्रयोजन स्वेच्छा पूर्वक नेत्र दान देने से ही पूरा होता है।

लोगों को अपने धन से मोह हो तो बात समझ में आती है किन्तु मृत शरीर तो जलने, गलने वाला ही है, उससे मोह करने में क्या बुद्धिमानी है। यदि लोग उदारता पूर्वक अपने नेत्र आदि अवयव दान करने लगें तो इससे कितने ही अन्धों को नव जीवन मिल सकता है। अपने हाथों अपनी सद्गति के लिए की जाने वाली यह श्राद्ध प्रक्रिया सब प्रकार बुद्धिमत्ता पूर्ण है।


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