सोरठ राज्य के राजा वीरभद्र दान−पुण्य के लिए बड़े लोकप्रिय थे। द्वार पर आने वाला कोई भी याचक खाली हाथ न जाता था; पर उनका यह सारा दान, अनीति और अधर्म की कमाई से होता था।
सरकारी खजाने का कितना ही पैसा उसके ऐश और आराम पर खर्च हो रहा था। जनता कर भार से दबी जा रही थी। मौका देख पड़ौसी राजा ने सोरठ राज्य पर चढ़ाई कर दी। दुर्ग को चारों ओर से घेर लिया गया। राजा वीरभद्र को रानी सहित बन्दी बना लिया गया; पर कुछ दिनों बाद वे दोनों शत्रु के बन्दीगृह से निकल भागे। प्राण रक्षा के लिए इधर−उधर घने जंगलों में भटकने लगे।
एक दिन परेशान होकर रानी ने कहा—”मैंने सुना है, कि सम्भरगढ़ का एक सेठ पुण्य खरीदने का कार्य करता है, आप तो जीवन भर दान देते रहे हैं यदि आप सम्भरगढ़ जाकर अपने पुण्य का एक अंश बेच दें तो उदरपूर्ति का साधन तो जुट ही सकता है।
राजा ने रानी का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, पर उसके सामने केवल एक ही समस्या थी कि रास्ते में कई दिन लगेंगे अतः भोजन की क्या व्यवस्था होगी? उस समय राजा एक गाँव में ठहरे हुए थे। अतः रानी गई और पड़ौसियों का आटा पीसकर मजूरी का थोड़ा आटा कमा लाई। आटा एक पोटली में बाँधकर राजा वीरभद्र सम्भरगढ़ की ओर चल पड़े। चलते−चलते शाम हो गई तो एक गाँव में ही ठहर गये। उन्होंने आस−पास वृक्षों से लकड़ी तोड़कर आग सुलगाई और चार मोटी−मोटी रोटियाँ सेंक ली। भगवान का भोग लगाकर ग्रास तोड़ने ही वाले थे कि एक भिखारी रोटी माँगता हुआ वहाँ आया और बुरी तरह गिड़गिड़ाने लगा। राजा को दया आ गई उसने अपने सामने से दो रोटियाँ उठाकर भिखारी को देदीं और शेष दो रोटियों से अपनी क्षुधा निवृत्ति की।
वहाँ से चलकर राजा सम्भरगढ़ पहुँच गया। सेठ के सामने पहुँचने पर उसने अपने आने का उद्देश्य स्पष्ट बता दिया। सेठ ने कहा—’आप जिन पुण्यों को बेचना चाहते हैं एक कागज पर लिखकर इस तराजू के पलड़े में रख दीजिये।’ राजा ने वैसा ही किया, पर तराजू ज्यों की त्यों रही। सेठ ने वस्तु स्थिति समझते हुए कहा—’मुझे ऐसा प्रतीत होता है; आपने अनीति और अधर्म की कमाई से दान दिया है।’
राजा बहुत लज्जित हुआ। वह पसीना−पसीना हो गया। अब उसके पास कहने के लिए शब्द ही कहाँ थे। अतः सेठ ने पुनः कहा—’मुझे आपकी परेशानियों पर पूरी सहानुभूति है आप किसी ऐसे पुण्य का स्मरण कर लें जो ईमानदारी से अर्जित कमाई द्वारा संचित किया गया हो।’ वह काफी देर सोचता रहा फिर उसे पिछले दिन की घटना याद आई जब उसने अपने हाथ से रोटी बनाकर भिखारी को खिलाई थी। भिखारी को रोटी दान में देने की बात एक कागज पर लिखकर उसने तराजू के पलड़े में रख दी।
दूसरे ही क्षण राजा ने देखा कि पलड़ा नीचे झुक गया है सेठ ने अनेक स्वर्ण मुद्रायें उसमें रखीं फिर भी काँटा बराबर न आ रहा था। उसे आश्चर्य हुआ कि छोटे से पुण्य के लिए सेठ को 5000) स्वर्ण मुद्राएँ रखनी पड़ीं तब कहीं काँटा बीचो−बीच आया। राजा मन ही मन पछता रहा था कि मैंने जीवन भर अनैतिक साधनों से धन कमाया और यश प्राप्ति की इच्छा से अभावग्रस्त लोगों को दान दिया। काश ईमानदारी और नैतिक साधनों से धन कमाकर दान दिया होता तो मेरे पास भी पुण्य की कमी न रहती और शायद दूसरे के आगे हाथ फैलाने की भी आवश्यकता न पड़ती।