अनिद्रा के अभिशाप का कारण और निवारण

October 1975

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शारीरिक स्वास्थ्य को सही रखने के लिए आहार-बिहार का सन्तुलन आवश्यक है। नियत, नियमित दिनचर्या और सरल सात्विक रीति-नीति अपनाये बिना जन्म-जात रूप से मिला हुआ सुदृढ़ आरोग्य भी स्थिर नहीं रह सकता। ठीक इसी प्रकार चिन्तन और चरित्र को परिष्कृत रखे बिना, मानसिक स्वास्थ्य का सही रह सकना सम्भव नहीं। विकृत दृष्टिकोण अपनाने से, तनिक-तनिक से सामान्य जीवन में अनायास ही आते रहने वाले अवरोध, पर्वत के समान कठिन मालूम पड़ते हैं। असहिष्णु व्यक्ति विचार भिन्नता सहन नहीं कर सकता।

किसी की आकृति किसी से नहीं मिलती इसी प्रकार एक प्रकृति के दो मनुष्य भी संसार में अभी तक नहीं बने हैं। कुछ न कुछ भिन्नता आकृति में भी रहेगी और प्रकृति में भी। पूर्ण मतैक्य परमहंसों में हो सकता है अथवा मृतकों में। सामान्य मनुष्यों में मतभेद और रुचि भेद बने ही रहते हैं। इस भिन्नता में एकता के सूत्र ढूँढ़ निकालना और मिल जुलकर निर्वाह करना मानवी प्रकृति की वह विशेषता है जिसे अपनाकर जिओ और जीने दो की स्थिति बन सकती है। अवाँछनीय मत भेदों को घटाने और हटाने के लिए क्रमिक चरण उठाये जा सकते हैं और धैर्य पूर्वक प्रयत्न जारी रखे जा सकते हैं। तत्काल समस्त भिन्नताएँ मिट जायं और दूसरे लोग—प्रिय जन हमारे पूर्ण अनुयायी, पूर्ण समर्थक बन जायँ इस अधीरता में मनुष्य पाता कुछ नहीं, खोता ही खोता है। अधीरता उद्विग्नता से खाई पटती नहीं, चौड़ी ही होती हैं।

मनुष्यों के साथ तालमेल न बिठा सकने की तरह ही व्यक्ति त्व की एक बड़ी दुर्बलता है, परिस्थितियों के साथ तालमेल न बिठा सकना, सदा सर्वदा सभी परिस्थितियाँ मन चाही ही बनी रहें, यह सोचना मूर्खतापूर्ण है। यह संसार हमारे लिए ही नहीं बना है और सारा घटना क्रम हमारी सुविधा के लिए नहीं धूम रहा है जब हमें जिधर जाना हो उसी के पीछे की हवा चलती रहे, यह नहीं हो सकता है। प्रतिकूल हवा से अनुकूल प्रयोजन सिद्ध करने के लिए हम अपनी नाव पर बुद्धिमत्तापूर्ण रीति से पाल बाँध सकते हैं और अपना काम चला सकते

लक्ष्य विहीन—जीवन कला उच्च सिद्धान्तों से अपरिचित व्यक्ति भी अनेक विसंगतियों और प्रकृतियों के शिकार बन जाते हैं। उलझा हुआ दृष्टिकोण न अपने साथ न्याय कर पाता हैं न दूसरों की स्थिति को समझ पाता है। अस्तु उसे सर्वत्र प्रतिकूलताएँ और अवाँछनीयताएं ही दृष्टिगोचर होती रहती हैं। कभी दूसरों पर झल्लाता है, कभी अपने ऊपर। खीज और उद्वेगों के आवेश चढ़े रहते हैं। बुखार में जिस प्रकार शरीर तपता है, उसी प्रकार उद्वेग से मस्तिष्कीय संतुलन बिगड़ जाता है। मानसिक गिरावट आई तो भय, आशंका, निराशा, चिन्ता जैसी हीन वृत्तियाँ धर दबोचती हैं और यदि आवेश आया तो क्रोध, प्रतिशोध, विनाश, विद्रोह के शोले धधकते रहते हैं। दोनों ही स्थितियों में मानसिक शान्ति नष्ट हो जाती है।

शरीर ने अब अपच, और थकान को पूरी तरह अपना लिया है। जिनके पेट ठीक काम करते हों जिन्हें हर घड़ी उत्साह रहता हो, ऐसे आदमी कठिनाई से ही उँगलियों पर गिनने जितने मिलेंगे। उसी प्रकार मस्तिष्कों पर अनिद्रा का आधिपत्य हो चला है। उलझा हुआ उद्विग्न मस्तिष्क न तो शान्त हो पाता है और न गहरी नींद के दर्शन होते हैं। आधी अधूरी ज्यों-त्यों झपकियाँ जैसी नींद कुछ देर के लिए आती है, अन्यथा सारी रात करवट बदलते निकल जाती है। सर्व विदित है कि गहरी नींद भी अन्न, जल और हवा की तरह जीवन की अति महत्वपूर्ण आवश्यकता है। नींद न आने से थकान दूर करने का अवसर नहीं मिलता और शक्ति यों का निरन्तर क्षरण होता चला जाता है। लगातार बहुत समय तक नींद न आने से मनुष्य पागल तक हो सकता है। अधूरी नींद के कारण मस्तिष्क की स्मरण शक्ति , तर्क शक्ति , निर्णय शक्ति जैसी उपयोगी क्षमताएँ क्रमशः नष्ट होती चली जाती हैं।

अनिद्रा का कष्ट अपने ढंग का है उससे फोड़ा उठने जैसा दर्द भले ही न होता हो, पर बेचैनी तो बुरी तरह छाई ही रहती है। इन दिनों उससे बचने का सहज तरीका नशा ढूँढ़ निकाला गया है। पुराने ढंग के नशे शराब, भाँग अफीम आदि है। नये ढंग के नशे नींद की गोलियों के रूप में उपलब्ध हैं। इन दोनों ही उपचारों की आवश्यकता द्रुतगति से बढ़ रही है।

केमिस्ट की दुकान पर जाकर पूछा जाय तो वह बतायेगा कि सबसे अधिक तादाद में बिकने वाली दवा नींद लाने वाली गोलियाँ हैं। सरकारी कर विभाग से पूछा जाय तो पता चलेगा कि नशे बाजी द्वारा मिलने वाला टैक्स आमदनी का बहुत बड़ा स्रोत है। इन वस्तुओं की बिक्री निरन्तर बढ़ती ही जाती है। उनका उत्पादन और उपयोग साल के आंकड़ों को लांघता हुआ हर साल बड़ी छलाँग लगा लेता है। तात्कालिक आवश्यकता तो किसी प्रकार पूरी हो जाती है, पर पीछे जाकर उनके जो दुष्परिणाम भुगतने पड़ते हैं, वे ऐसे हैं जिनके आधार पर लाभ के स्थान पर उनसे उलटी अधिक हानि ही होती है।

नींद की गोलियों में वार्विचुरेट नामक रसायन का ही किसी न किसी रूप में सम्मिश्रण होता हे, अब से सत्तर वर्ष पूर्व वह ‘देकोनल’ नाम से बाजार में आई थी, पर उसके कितने ही प्रकार हैं। यह हलके प्रभाव की भी होती है और गहरे प्रभाव की भी। हलकी प्रायः तीन-चार घण्टे तक और गहरी सात-आठ घण्टे तक प्रभाव करती हैं। गोली खाने के बाद आधा घण्टे से लेकर एक घण्टे के भीतर असर दिखाई देने लगता है और पलक भारी हो जाते हैं।

वार्विचुरेट में एनासिन जैसा दर्द घटाने का गुण नहीं हैं। ये बेहोशी भर लाती हैं। यह रसायन रक्त में पहुँच कर ट्ररु सीरम उत्पन्न करता है। इससे स्नायु तन्तु प्रभावित होते हैं और उनका तनाव घटने से शान्ति जैसी मिलती हैं एवं नींद आ जाती है।

यह नींद एक किस्म का नशा होता है। लगातार सेवन करते रहने पर शराब जैसी आदत पड़ जाती है और फिर उन गोलियों के बिना काम नहीं चलता, लत पड़ने पर उनकी मात्रा भी बढ़ानी पड़ती है। थोड़ी मात्रा तो शरीर सहन कर लेता है, पर अधिक से विष उत्पन्न होने लगता है। अधिक मात्रा में उन्हें खा लेने पर जीवन संकट में पड़ जाता है। दस-बीस गोली खा लेने पर तो मृत्यु ही हो जाती है। उसके फलस्वरूप शरीर में विषैलापन बढ़ता जाता है।

इसी जाति के दूसरे रसायन भी हैं। जैसे-ब्रोमाइड। यह भी स्नायु तन्तुओं को प्रभावित करता है और नींद लाता है। इसकी अधिक मात्रा खा लेने पर उल्टी भर होने लगती है। मौत नहीं होती।

क्लोरल हाइड्रेट भी इसी तरह का रसायन है यह ईथल, अल्कोहल से बनता है और प्रायः 15 मिनट में नींद बुला देता है। उसकी भयंकरता तो शराब में मिलाकर पीने से बढ़ती है। सामान्य स्थिति में उतना खतरनाक नहीं होता।

पैरोल्डिहाइड का प्रभाव और भी तेज होता है। इसे बिस्तर पर पड़के बाद में ही लिया जाता है जिससे पीते ही नींद आने लगने के कारण गिर पड़ने का खतरा न रहे। अक्सर डाक्टर ही अपने हाथ से उसे पिलाते हैं। इसका प्रचलन कम ही है। इसे यदा-कदा ही विशेष आवश्यकता पड़ने पर प्रयुक्त किया जाता है। ग्लटिथिमाइड भी इसी किस्म का रसायन हैं। यह डाक्टर की सिफारिश पर ही खरीदा जा सकता है।

ईथेनोल, अल्कोहल नींद लाने के लिए प्राचीर औषधि है। शराब की विभिन्न किस्में इसी रसायन से बनी होती हैं। शराब पीने वाले अक्सर नींद का लाभ मिलने की बात भी कहते रहते हैं। ‘वाइन’ नसों का मुँह फैला देती है, जिससे रक्त संचार में सुविधा होने की बात भी कही जाती है, पर इन क्षणिक लाभों को मान भी लिया जाय तो भी उनकी हानियाँ इतनी अधिक हैं कि मद्यपान को त्याज्य ही ठहराना पड़ेगा।

अफीम, भाँग अब पुरानी पड़ गई, फैशन ने शराब को मान्यता दी है इसलिए आज उसे ही अपनाया जा रहा है। विचारों की धारा तोड़ कर अस्त-व्यस्त कर देने की विशेषता प्रायः सभी नशों में होती हैं, वही शराब में भी है। विचारों का ताँता टूट जाने से दिमाग को हलकापन लगता है और नशे की खुमारी से उत्पन्न गफलत नींद न होने पर भी किसी कदर काम चलाऊ स्थिति पैदा कर देती है। इसलिए दिमागी तनाव के मरीज अक्सर उसे लेते हैं। शराब की बिक्री के साथ जिनके स्वार्थ जुड़े हुए हैं, वे ताकत मिलने, गर्मी मिलने जैसी पेपर की उड़ाते रहते हैं और लोगों को इस ओर लुभाते हैं कि वे अपना पैसा खुले हाथों से शराब खानों में पहुँचायें।

शराब पीने वाले अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि इससे उन्हें गर्मी मिलती है। रक्त का दौरा तेज होता है और ताकत आती है, पर उनका यह कथन एक भ्रम मात्र है। शिराओं और कोशिकाओं में फैल जाने के कारण आरम्भ में शरीर में गर्मी जरूर पैदा होती है, किन्तु वह बहुत तेजी से निकल भी जाती है और अन्ततः तापमान पहले से भी कम हो जाता है। इसकी तुलना में गुड़ खाकर यदि गर्मी बढ़ाई जाय तो वह ज्यादा टिकाऊ रहेगी।

शराब पेट की भीतरी झिल्लियों में एक प्रकार की खाज पैदा करती है; जिससे मुँह और पेट के स्राव बढ़ जाते हैं और लगता है मानो भूख बढ़ गई है, पर यह भी एक भ्रम ही है। पाचन रस स्राव करने वाली झिल्लियाँ कठोर होती जाती हैं और शराबी का पाचन तंत्र लड़खड़ा जाता है, वह पहले की अपेक्षा कम ही भोजन पचा पाता है।

मौज-मस्ती, जवाँमर्दी, बहादुरी आदि मिलने की बात भी क्षणिक आवेश की तरह ही होती है। इस उत्तेजना का दुष्परिणाम मस्तिष्क के उस क्षेत्र को भुगतना पड़ता है जिनके साथ विवेक बुद्धि का सम्बन्ध है। शराबी की जो स्थिति बहादुरी या मस्ती प्रतीत होती है वस्तुतः वह उसकी बेवकूफी होती है, महत्वपूर्ण फैसले करने में यह बेवकूफी उसे सदा गलत निर्णय पर पहुँचाती है। वाहनों की दुर्घटना में मुख्य कारण शराब होती है। जल्दी और तेजी से वाहन चलाने की बहादुरी में वह यह भूल जाता है कि खतरा कहाँ है और उससे बचने के लिए क्या सतर्कता बरती जानी चाहिए।

शराब में धुत्त व्यक्ति एक प्रकार से बेशर्म बनता है, मर्यादा पालन, सामाजिक एवं नागरिक कर्त्तव्यों के प्रति उसकी उपेक्षा बढ़ जाती। यह निर्लज्जता बढ़ कर ढीठता का रूप धारण करती है और अन्ततः अपराधी प्रवृत्ति में परिणत हो जाती है। यौन उत्तेजना बढ़ने की बात भी इसलिए अहित कर है कि ऐसे लोग स्वाभाविक पौरुष खो बैठते हैं और नशे के बिना सामान्य स्तर की कामानुभूति से भी वंचित होते चले जाते हैं।

नशे की गोलियाँ हों या शराब, मूल समस्या का समाधान तनिक भी नहीं करतीं। मात्र क्षणिक भुलावे से थकान और अनिद्रा जन्य-जलन की अनुभूति मात्र बन्द कर देती हैं। ‘एस्प्रिन’ खाने पर सिर दर्द बन्द हो जाता है। कोकीन लोशन लगाने से जगह सुन्न हो जाती है और पीड़ा बन्द हुई लगती है। मर्फिया के इंजेक्शन कष्ट पीड़ित को राहत देते है। देते हैं। यह भुलावे वाले उपचार हैं। मूल कष्ट में इनसे कोई अन्तर नहीं आता वह यथा स्थान जहाँ का तहाँ बना रहता है। मद्यपान हो या निद्रा गोलियों का सेवन दोनों में से कोई भी मानसिक विक्षोभ का निराकरण नहीं करते। वरन् इन विषैले पदार्थों से रहा सहा स्वास्थ्य भी नष्ट हो जाता है।

अनिद्रा जन्य उद्वेग का समाधान करने के लिए हमें उसके मूल कारण को समझना पड़ेगा और जहाँ से गुत्थी उलझती है वहीं से उसे सुलझाना होगा। चिन्तन और चरित्र की विकृति का निराकरण करके ही गहरी निद्रा का आनन्द ले सकना और शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य को अक्षुण्ण बनाये रहना सम्भव हो सकता है।


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