जीवन क्या है? एक अनबूझ पहेली

October 1975

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मनुष्य क्या है? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान के पास बहुत ही साधारण है, उसे सही मान लेने पर मानवी सत्ता अत्यन्त तुच्छ और उपहासास्पद बन जाती है। रसायन शास्त्रियों की दृष्टि में मानव शरीर अनेक रासायनिक यौगिकों का सम्मिश्रण है। यह यौगिक प्रायः 15 तत्वों से बने हैं, ये हर दिन खर्च होते हैं और नये आधारों से प्राप्त होते हैं। इस प्रकार आय−व्यय का सन्तुलन बना रहता है।

केमिस्ट्री आफ मेटिरियल्स के अनुसार शरीर को 100 इकाई का मान कर उसमें तत्वों का प्रतिशत अनुपात इस प्रकार बताया गया है। (1) आक्सीजन, 65 प्रतिशत, वायु और जल से प्राप्त (2) हाइड्रोजन 10 प्रतिशत पानी से प्राप्त इस प्रकार 75 प्रतिशत जीवन साधन वायु और जल से प्राप्त हो जाते हैं। भोजन से कुल मिला कर 25 प्रतिशत आवश्यकताएँ पूरी होती है। इनका विवरण इस प्रकार है (3) कार्बन 18 प्रतिशत (4) नाइट्रोजन 3 प्रतिशत (5) कैल्शियम 2 प्रतिशत (6) फास्फोरस 1 प्रतिशत (7) पोटेशियम 0.35, (8) सल्फर 0.25, (9) सोडियम 0.15, (10) क्लोरीन 0.15, (11) मैग्नेशियम 0.5 (12) लोहा 0.4 (13) आयोडीन, फ्रलेरिन, सिलीक्रम तीनों मिला कर 0.46 प्रतिशत कुल योग 100।

उपयुक्त तत्वों और योगिकों की आवश्यकता पूरी करने के लिए (1) प्रोटीन (2) कारबोहाइड्रेट अन्न (3) फैट−चिकनाई (4) विटामिन (5) साल्टस−लवण (6) मिनिरल−खनिज (7) जल की जरूरत पड़ती है। यह पदार्थ किसी को मिलते रहें तो समझना चाहिए उसकी आवश्यकता पूर्ण हो गई। इससे आगे जीवन निर्वाह के लिए और कुछ करना नहीं है।

आर्थिक विश्लेषण के अनुसार मनुष्य का मूल्य और भी कम है। दस गैलन पानी, सात साबुन की टिकी बन सकें इतनी चर्बी, 900 पेन्सिलें बन सकने जितना कार्बन, दस डिब्बी माचिस बन सकने जितना फास्फोरस, एक छोटी सी कील बन सकने जितना लोहा—एक कुत्ते के जुएँ मर सकने जितना गन्धक—एक मुरगी का दरबा पोत सकने जितना चूना—22 सेर बर्फ पिघला सकने जितनी गर्मी—तीन गुब्बारे उड़ाने के काम का हाइड्रोजन—तथा ऐसी ही कुछ और स्वल्प मूल्य की वस्तुएँ इस शरीर में हैं जिनकी बाजारू कीमत अधिक से अधिक पाँच रुपया हो सकती है। उसकी “फेस वैल्यू” बाजारू कीमत नहीं के बराबर है। वस्तुतः कीमती तो उसका यथार्थ मूल्य—इट्रिंसिक वैल्यू—ही है। सों नोट की फेस वैल्यू दो चार पैसे और उसकी इट्रिंसिक वैल्यू—छपे रुपये के बराबर होती है, पर मनुष्य के बारे में यह बात उलटी है उसका दृश्य मूल्य कुछ नहीं—वास्तविक, आन्तरिक, चेतनात्मक मूल्य ही सब कुछ है।

जीवन क्या है? इसकी व्याख्या करते हुए रसायन शास्त्र हमें क्रोमोसोम−जीन—न्यूक्लियोटाइड−आक्सीराइवो न्यूक्लिक एसिड जैसे वृक्ष पादपों से घिरे सघन वन में ले जाकर खड़ा कर देता है, पर यह नहीं बताता कि वह मूल सत्ता क्या है? जो विभिन्न स्तर के डी. एन. ए. बनाती है और उन्हें एक दूसरे से नहीं बदलने देती। न पक्षी पशु बन पाता है और न पशु मनुष्य। यद्यपि उनके मध्य रसायन पदार्थों की संरचना में कोई विशेष एवं मौलिक भेद नहीं है। प्राणी को नये प्राणी को जन्म देने की शक्ति कहाँ से उत्पन्न होती है और व्यष्टि एवं समष्टि का क्रमबद्ध संचालन किसकी प्रेरणा से, किसके नियन्त्रण में हो रहा है। इस प्रश्न का उत्तर देने में विज्ञान अपनी असमर्थता व्यक्त करता है। इन रसायनों की अनेकानेक उलट पुलट करने पर भी जीवन नहीं बन सका। उसका विकास जीवन की मूल इकाई को हाथ में लेकर ही सम्भव हो पाया है।

जीवाणु विज्ञानी कहते हैं जिस प्रकार पदार्थ परमाणुओं का समुच्चय है, उसी प्रकार शरीर जीवाणुओं का सहकार मण्डल है। पर वे जीवाणु तो जादुई गति से जन्मते−बदलते और मरते हैं। इस परिवर्तन का प्रभाव जीव की रीति नीति बदलने के रूप में क्यों दृष्टि गोचर नहीं होता, इसका उत्तर जीव विज्ञानियों के पास भी नहीं है।

जीव शास्त्र के अनुसार प्रौढ़ावस्था के मनुष्य शरीर में प्रायः 60 खरब कोशिकाएँ होती है। इनमें से प्रति सेकेंड लगभग 5 करोड़ मर जाती है ओर उतनी ही नई उत्पन्न होती हैं। जब तक उत्पन्न होने का क्रम बढ़ा−चढ़ा और मरने का क्रम हलका रहता है तब तक शरीर विकसित होता है जब दोनों क्रम समान रहते हैं तो स्थिरता रहती है और जब नष्ट होने की गति तीव्र तथा उत्पन्न होने की मन्द हो तो फिर वृद्धता आ घेरती है और उसकी ओर अधिक बढ़ोतरी अशक्त ता, रुग्णता को बढ़ाते−बढ़ाते मृत्यु के दरवाजे पर पहुँचा देती है।

परमाणु विज्ञान के अनुसार जड़−परमाणु विशेष स्थिति में जीवन जैसा आचरण करता है और पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी रीति−नीति अक्षुण्ण बनाये रहता है।

परमाणुओं की संघटना से जड़ चेतन पदार्थों की रचना मानी जाती है, परमाणुओं को पदार्थ की सबसे छोटी दृश्यमान इकाई माना जाता है; पर अब विकसित विज्ञान ने इससे आगे के तथ्यों का रहस्योद्घाटन किया है। वस्तुतः इस विश्व में शक्ति की सत्ता ही ओत प्रोत हो रही है। उस शक्ति महासागर में हिलोरें उठती रहती है उन्हें तरंगों का स्वरूप मिलता है। इन तरंगों की विभिन्न आवृत्तियाँ—फ्रीक्वेंसी होती हैं। तरंगों की हलचलें, प्रकाश एवं शब्द उत्पन्न करती हैं। वे दोनों परस्पर उलझते−सुलझते विविध विधि अणु परमाणुओं के रूप में, बादलों की बनती बिखरती आकृतियों के रूप में सामने आते हैं। वस्तुतः परमाणुओं को ‘कण’ का नाम दिया जाना गलत है उन्हें शक्ति तरंग भर कहा जाना चाहिए। उनका अपना कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है किन्तु भ्रम ऐसा ही होता है कि अणु स्वतंत्र सत्ताधारी है।

डा. एच. एस. बर ने अपने साथियों सहित प्राणियों की जिस जैविक विद्युत के शास्त्र की संरचना की है, उसमें प्राणिज विद्युत का आधार एवं क्रिया कलाप भौतिक बिजली से भिन्न है। वे प्राणिज विद्युत में इच्छा और बुद्धि का संमिश्रण भी मानते हैं भले ही वह कितना ही झीना क्यों न हो। इसी प्रवाह के कारण प्राणिज विद्युत अपने−अपने क्षेत्र में विशेष परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना करती है। प्राण चुम्बकत्व पदार्थ में से अपने उपयोगी भाग को खींचता है—उसे अपने ढाँचे में ढालता है और इस योग्य बनाता है कि चेतना के स्वर में अपना ताल बजा सके। किस प्राणी के डिम्ब से किस आकृति−प्रकृति का जीव उत्पन्न हो इसका निर्धारण−मात्र रासायनिक संरचना के आधार पर नहीं हो जाता वरन् यह निर्धारित रज और शुक्र कीटों के भीतर भरी हुई चेतना के द्वारा होता है। उसी चुम्बकत्व से भ्रूण में विशिष्ठ स्तर के प्राणियों की आकृति एवं प्रकृति ढलना शुरू हो जाती है। यदि ऐसा न होता तो संसार में पाये जाने वाले समस्त प्राणी प्रायः एक ही जैसी आकृति−प्रकृति के उत्पन्न होते क्योंकि अणुओं का स्तर प्रायः एक ही प्रकार का है। उनमें जो रासायनिक अन्तर है उसके आधार पर कोटि−कोटि वर्ग के प्राणी उत्पन्न होने और उनकी वंश परम्परा चलते रहने की गुंजाइश नहीं है। अधिक से अधिक इतना ही हो सकता था कि कुछ थोड़ी सी—कुछ थोड़े से अन्तर की जीव−जातियाँ इस संसार में दिखाई पड़ती। वंश परम्परा और जीवविज्ञान अपनी विशिष्ठ भूमिका है।

अणु विज्ञान के आचार्य नोबेल पुरस्कार विजेता डा. हैरल्ड सी. उरे का कथन है कि अकार्बनिक पदार्थों के कार्बनिक पदार्थ में बदल जाने का कारण एमीनो एसिड है। इस रसायन के परमाणुओं का निर्माण कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन और नाइट्रोजन के विशिष्ठ संयोग से हुआ है। इस विचित्र संयोग के कारण बना यह रसायन, जड़ को चेतन में बदलने की भूमिका प्रस्तुत करता है।

डा. हैरल्ड के अनुसार पृथ्वी का आदिम वायु मण्डल अमोनिया, मीथम हाइड्रोजन से भरा था उसमें आक्सीजन की मात्रा कम थी। जब स्थिति बदली और आक्सीजन की वृद्धि हुई तो एमीनो एसिड उत्पन्न हुआ और जड़ पदार्थों के चेतन बनने की हलचलें आरम्भ कर दीं।

यह व्याख्याएँ नितान्त अधूरी है। इनसे केवल जीव की प्राण प्रक्रिया का विद्युतीय हलचलों का विवरण मिलता है, पर मूल प्रश्न का उत्तर इनसे नहीं मिलता। पदार्थ की एक नियत निर्धारित गति होती है मानवी चेतना में जो रुचि, इच्छा, आकाँक्षा, भावना की भिन्नता पाई जाती है और पल−पल पर बदलती रहती है, भावुकता के उभार उसे चित्र विचित्र अनुभूतियों का रसास्वादन कराते हैं, यह सब क्या है? इसका उत्तर परमाणु शास्त्र दे नहीं पा रहा है।

ऊर्जा विज्ञान जीवन को शक्ति समुच्चय बताता है। ध्वनि, प्रकाश चुम्बक की तरह हैं, ताप भी एक प्रचण्ड शक्ति है। प्राण उस ताप का ही एक विशिष्ठ परिपाक है। शरीर में जो गर्मी पाई जाती है वही जीवन है। ठंडा होते ही प्राण मर जाता है। अस्तु ताप की एक विचित्र प्रक्रिया को जीवन धारा कहा जा सकता है। शरीर के विभिन्न क्रिया−कलापों के पीछे ऊर्जा विज्ञान नियम स्थानों पर—नियत धातुओं में नियत प्रकार की ऊर्जा को ही कारण मानते हैं।

उनके कथनानुसार स्वस्थ मनुष्य का सामान्य तापमान 36.6॰ अंश शताँश होता है। रक्त में शर्करा 0.1 प्रतिशत रहती है और सामान्य रक्तचाप 100-140 मिलीमीटर (मक्युर कालम) तक होता है।

भीतरी तापमान 36.6॰ रहता है किन्तु बाहरी त्वचा की गर्मी 33 अंश से अधिक नहीं होती। यदि बाहरी तापमान 33 से नीचे न गिरे और 45 से अधिक न बढ़े तो भीतरी तापमान की स्वाभाविक स्थिति से शरीर का सामान्य क्रिया−कलाप ठीक प्रकार चलता रहता है।

शरीर की माँसपेशियाँ आवश्यक ऊष्मा पैदा करती रहती है। शरीर 24 घंटे में 160 से 180 लाख कैलोरी ऊष्मा बाहर फेंकता है। बिजली का सामान्य घरेलू हीटर भी प्रायः इतनी ही गर्मी पैदा करता है। रक्त की गर्मी शरीर की ऊष्मा का संतुलन बनाये रहती है। जब गर्मी की मात्रा बढ़ जाती है तो रक्त तेजी से शरीर में दौड़ने लगता है और आवश्यक गर्मी बाहर फेंक देता है। किन्तु जब सर्दी होती है तो वह शरीर से ही ऊष्मा का संचय करने लगता है।

प्रातः काल का तापमान प्रायः 36.॰ पाया जाता है जबकि सायंकाल का 37.5॰ तक का पहुँचता है। दिन की अपेक्षा रात को तापमान कुछ घटा हुआ रहता है।

रीढ़ की हड्डी के ऊपर मस्तिष्क के नीचे शरीर का ताप नियंत्रक केन्द्र है। वहाँ से शरीर की आवश्यकतानुसार ताप को न्यूनाधिक किया जाता है। यदि इस केन्द्र को कृत्रिम रूप से उलटा प्रभावित कर दिया जाय तो घोर गर्मी में भी सर्दी की कँपकँपी छूटेगी और घोर, सर्दी में भी जेठ की दुपहरी जलती अनुभव होगी।

इन अधूरे उत्तरों से परिष्कृत मानवी चेतना का कोई निरूपण नहीं हो सकता। जीवन वस्तुतः अनन्त जीवन का एक अंश है। चेतना के समुद्र में उठती हुई लहर के रूप में उसे देखा, समझा जा सकता है। शरीर का विश्लेषण भौतिक विज्ञान के आधार पर ही सकता है क्योंकि वह भौतिक तत्वों से बना है। चेतना पदार्थ से उत्पन्न होती है उस प्रतिपादन को सिद्ध करने में कितनी ही माथा पच्ची की जाय, एक स्थान पर विज्ञान की प्रत्येक धाराको निरुतर होना पड़ता है चेतना एक स्वतंत्र विज्ञान है जिसे आत्म विज्ञान अथवा ब्रह्म विज्ञान का नाम दिया जा सकता है। अध्यात्म के तत्व ज्ञान के सहारे ही जीव सत्ताकी व्याख्या हो सकती है और उसके स्वरूप तथा प्रयोजन को समझा जा सकता है।


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