परिवर्तन और आदान प्रदानसृष्टि के सुदृढ़ नियम

October 1975

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प्रत्येक ग्रह नक्षत्र अपने आप में अकेला रहता और अपनी धुरी पर घूमता दिखाई पड़ता है; पर वस्तुतः वे एक−दूसरे के साथ उन जंजीरों में बँधे हैं जो आँखों से तो दिखाई नहीं पड़तीं, पर मजबूती उनकी आश्चर्य जनक है। मनुष्य भी अपने आप में अकेला दीखता है, पर वह परिवार और समाज के साथ इतनी मजबूत रस्सी से बँधा हुआ है जो तोड़ी नहीं जा सकती। यदि उसे तोड़ने को प्रयत्न किया जाय तो मानसिक सरसता से लेकर क्षुधा निवृत्ति तक के सारे सूत्र टूट जायेंगे और उस अनभ्यस्त स्थिति में पड़ कर वह अपने अस्तित्व का अन्त कर लेगा। यही बात ग्रह−नक्षत्रों के बारे में भी है वे एक−दूसरे को प्रभावित करते हैं। परस्पर स्नेह−सहयोग का आदान−प्रदान करते हैं। इसीलिए वे जीवित और गतिशील हैं। मनुष्यों की तरह ही ग्रह नक्षत्रों की भी एक सामाजिकता है। वे मिल जुल कर रहने और एक−दूसरे की सहायता करने के लिए सृष्टा के सुदृढ़ नियमों के आधार पर मनुष्यों की तरह ही सामूहिक जीवन जी रहे हैं। यद्यपि दीखते वे भी मनुष्यों की तरह अलग−अलग ही हैं।

यदि सूर्य केवल पूरे 72 घण्टे पृथ्वी पर बिलकुल उदय न हो तो वह गहन अन्धकार में निमग्न हो जायगी, तब यहाँ हाथ को हाथ नहीं सूझेगा। सारी धरती पर तीन मीटर ऊँची बर्फ की पर्त जम जायगी और प्राणधारियों के जीवन का अन्त हो जायगा। सूर्य की अल्ट्रावायलेट किरणें ही शरीरधारियों की देह को प्राण धारण किये रहने योग्य बनाती हैं। उन्हीं से अन्न और वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जो हमारे आहार का प्रधान अंग हैं। यदि यह किरणें पृथ्वी पर आना रुक जायँ, तो उत्पादन में पूर्ण अवरोध खड़ा हो जायगा और विकास क्रम जहाँ का तहाँ रुक जायगा। इतना ही नहीं जो विषाणु अन्तरिक्ष से आते हैं और पृथ्वी पर पनपते हैं वे अल्ट्रावायलेट किरणों के अभाव में द्रुत गति से निर्भयता पूर्वक बढ़ेंगे और हर किसी को रुग्ण बना कर छोड़ेंगे।

सर्व विदित हैं कि ग्यारह वर्ष पश्चात सूर्य में काले धब्बे दिखाई पड़ते हैं; उनका प्रभाव पृथ्वी पर स्पष्ट रूप में दिखाई देता है। चुम्बकीय क्षेत्र लड़खड़ा जाता है—रेडियो संचार में भारी बाधा उत्पन्न होती है तथा मौसम में भारी उथल−पुथल होती हैं।

रूसी वैज्ञानिक चिजोव्स्की ने पिछले 400 वर्षों से संसार में फैली महामारियों का इतिहास तैयार किया और बताया है कि सूर्य के धब्बों की घट−बढ़ के साथ इस विपत्ति का सीधा सम्बन्ध है। जितने दिनों तक यह धब्बे गहरे या उथले रहते हैं, उसी अनुपात से पृथ्वी पर गहरा या हलका प्रकोप महामारियों का होता है।

विज्ञानी माइकेलसन के अनुसार अमावश्या, पूर्णिमा को पृथ्वी पर पड़ने वाले सूर्य−चन्द्र के प्रभावों से प्रभावित होकर न केवल समुद्र में ज्वार भाटे आते हैं वरन् पृथ्वी भी प्रायः नौ इंच फूलती−धसती है। संसार में विभिन्न समयों पर आये बड़े भूकम्पों का इतिहास यह बताता है कि प्रायः अमावस्या, पूर्णिमा के इर्द−गिर्द ही वे आते रहे हैं। डाक्टर बुड़ाई के अनुसार इन्हीं तिथियों में मृगी उन्माद और कामुक दुर्घटनाओं का दौर आता है। वे कहते हैं सूर्य, चन्द्र की स्थिति का न केवल मौसम पर वरन् मनुष्य शरीर में महत्वपूर्ण काम करने वाली पिट्यूटरी थाइराइड एड्रीनल आदि हारमोन स्रावी ग्रन्थियों पर भी प्रभाव पड़ता है और वे उत्तेजित होकर शरीर एवं मन की स्थिति में असाधारण प्रतिक्रियाएँ उत्पन्न करती हैं। दुर्घटना और अपराधों का दौर इन्हीं दिनों कहीं अधिक बढ़ जाता है।

ब्रिटेन के वैज्ञानिक आरनाल्ड मेयर और कोलिस्को के पर्यवेक्षणों ने यह सिद्ध किया है कि चन्द्रमा की स्थिति मनुष्यों को, प्राणधारियों को और वनस्पतियों को प्रभावित करती है। स्वीडन के वैज्ञानिक सेवेन्ट एहैनियस ने प्रायः दस हजार प्रमाण एकत्रित करके यह सिद्ध किया है कि समुद्र, मौसम, तापमान, विद्युत स्थिति जैसे प्राकृतिक क्षेत्र पर ही नहीं मनुष्य शरीर एवं मन पर भी उसका प्रभाव पड़ता है। स्त्रियों के मासिक धर्म पर चन्द्रमा की स्थिति का असंदिग्ध प्रभाव पड़ता है। सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण को खुली आँखों से देखने के हानि सर्व विदित है। कारण यह है कि इन घड़ियों में उनका संतुलित क्रिया कलाप लड़खड़ा जाने से ऐसा ही निवारक प्रभाव उत्पन्न होता है जो आँख जैसे कोमल अंगों को विशेष रूप से क्षति ग्रस्त बना दे।

अमेरिकी खगोल वेत्ता जान हेलरी नेल्सन का कथन है कि न केवल सूर्य, चन्द्र का वरन् सौर मण्डल के अन्य ग्रहों का भी पृथ्वी पर प्रभाव पड़ता है और उस आधार पर मौसमी उथल−पुथल एवं प्राणियों की शारीरिक मानसिक स्थिति में उतार−चढ़ाव आते हैं। धूमकेतु जब उदय होते हैं तब भी पृथ्वी पर पड़ने वाला अन्तरिक्षीय प्रभाव अवरुद्ध होता है और उसके परिणाम स्वरूप प्राकृतिक—संतुलन बिगड़ने से तरह−तरह के उपद्रव खड़े होते हैं। शरीरगत रुग्णता और मानसिक आवेशग्रस्तता उन दिनों अधिक बढ़ी−चढ़ी देखी जा सकती है।

अमेरिका के समुद्र एवं मौसमी प्रशासन संगठन ने एक प्रतिवेदन प्रकाशित करके बताया कि सन् 1975 में 7 फरवरी, 19 जुलाई और 17 अगस्त के लगभग संसार के अनेक भागों में समुद्री तूफान आने तथा अन्य प्रकार की मौसम सम्बन्धी दुर्घटनाएँ घटित होने की आशंका है।

इन दिनों चन्द्रमा−पृथ्वी की निकटतम दूरी 18200 किलोमीटर पर होगी। इतना निकट वह पिछले 300 वर्षों में कुछ ही बार आया है। इन्हीं दिनों सूर्य भी प्रायः उसी देशान्तर पर भ्रमण कर रहा है जिस पर कि पृथ्वी और चन्द्रमा कर रहे हैं। फलतः वे दोनों सूर्य की परिक्रमा के निकटतम होने जा रहे हैं। ये तथ्य सूर्य की उन गतिविधियों में सहायक होंगे जो पृथ्वी के मौसम को प्रभावित करती हैं।

गतिशीलता का ही दूसरा नाम परिवर्तन है। यह हर वस्तु, व्यक्ति के लिए आवश्यक है। ग्रह नक्षत्र यों यथा स्थान जमे दीखते हैं। अपनी पृथ्वी का गोला उसके देश क्षेत्र यथा स्थान जड़वत् रहते दीखते हैं पर प्रकृति को यह असह्य है। स्थिर समुद्र, ज्वार भाटों की हलचल होने से ही सजीव है अन्यथा अब तक सड़ गल कर वह कब्र का विषाक्त हो गया होता, पृथ्वी समेत अन्य ग्रह भी न केवल धुरी और कक्षा पर घूमते हैं वरन् साँस लेते, फैलते−सिकुड़ते भी हैं। उनके भीतर रेंगने की क्रिया भी चलती रहती है। मनुष्य जीवन में भी सुख−दुख की, उत्थान−पतन की जन्म−मरण की, भली−बुरी परिस्थितियाँ आती जाती रहती हैं। एक स्थिति में सदा बने रहना न मनुष्य के लिये सम्भव है और न ग्रह नक्षत्रों के लिए।

संसार का भू सर्वेक्षण करने वाले अमेरिकी वैज्ञानिकों का कहना है कि अब से 10 करोड़ वर्ष पूर्व दक्षिणी ध्रुव उस क्षेत्र में था, जहाँ अब भारत है। महाद्वीपों के खिसकने की यह प्रक्रिया धीरे−धीरे चलती रहती है और जल को थल में तथा थल को जल में बदलती रहती हैं। दक्षिणी ध्रुव का गोडयानलेण्ड किसी समय बहुत विस्तृत था, अब वह सिकुड़ कर छोटा हो गया है। यूरोप और एशिया प्राचीन काल में एक ही महाद्वीप था। उनके बीच समुद्री अवरोधों की कोई बाधा न थी। हिमालय की पर्वत माला के बारे में उनका विचार है कि यह पहले भूमध्य सागर के गर्भ में डूबी हुई था, पीछे उभर का ऊपर आ गई। इसी प्रकार उस समय के विशालकाय पर्वत अब समुद्र तल में डूबे पड़े हैं।

साधारणतया यही समझा जाता है कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और सूर्य की परिक्रमा करती है पर अब उसकी एक और गति भी खोज ली गई है। समुद्र की लहरों पर, जिस तरह जलयान झोंके खाता हुआ चलता है, उसी तरह धरती भी एक तरह के झोंके हिलोरें लेती हुई झूलती जैसी चलती है।

रूसी भूतत्व वेत्ता वी. रीवन ने इन झोंकों का क्रम तथा परिमाण ठीक तरह नापने में सफलता पाई है। उनका कहना यह भी है कि ध्रुव करीब 10 मीटर व्यासार्ध के साथ एक घेरे में चारों ओर घूमते हैं, वे अपनी प्रारम्भिक स्थिति में प्रायः 14 महीने बाद लौटते रहते हैं।

पृथ्वी का वातावरण दिन−दिन अधिक गरम होता जा रहा है। इस संदर्भ में पश्चिमी जर्मनी के परमाणु विज्ञानी डा. आटो हकलसे ने प्रकृति विज्ञानियों की काँफ्रेंस में अपना निबन्ध सुनाते हुए कहा—धरती पर से अब हिमि युग का अन्त होने जा रहा है और ग्रीष्म युग पदार्पण कर रहा है! ध्रुवीय क्षेत्रों में क्रमशः सूर्य की किरणें अधिक प्रखर होती जा रही हैं। इससे बर्फ पिघलने का सिलसिला तेजी से चल पड़ा है। यह तेजी थल का एक बड़ा भाग जल में डुबो देगी और उथले समुद्रों में से बहुत से द्वीप ऊपर उभर आयेंगे। बढ़े हुए जल का दबाव जहाँ एक क्षेत्र को दबोचेगा वहाँ उसकी प्रतिक्रिया दूसरे क्षेत्रों को उभारने में भी व्यक्त होगी। व्यक्ति , देश और समाज भी इसी तरह दबते उभरते रहते हैं। नियति हर किसी को मीठे−कडुए अनुभव लेने के लिए बाध्य करती है।

मंगल को भूमि पुत्र कहा जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि पृथ्वी से मिलती−जुलती परिस्थितियाँ सौर मण्डल के मंगल ग्रह में ही हो सकती हैं। वहाँ कुछ वस्तुएँ ऐसी हैं जिनके बारे में यह कहा जाता है कि वे कभी न कभी पृथ्वी से अनुदान के रूप में वहाँ पहुँची हैं। स्वयमेव उस तरह के उपार्जन की क्षमता वहाँ के वातावरण में नहीं हैं। मनुष्य भी तो इसी प्रकार के आदान−प्रदान एक−दूसरे को देते हैं। कोई व्यक्ति अपने बल बूते उतना साधन सम्पन्न नहीं बन सकता जैसा कि वह होता है।

मंगल ग्रह पर यदि वनस्पति होगी तो उसके सम्बन्ध में धारणा है कि वह पृथ्वी पर पाई जाने वाली नागफनी से मिलती−जुलती होगी, हाँ उसका विस्तार पृथ्वी पर पाये जाने वाले सभी वृक्षों से अधिक होगा। अन्तरिक्ष वनस्पति विज्ञान के जन्म दाता गावरिल तिरबोज की इस मान्यता का नये खगोल वेत्ताओं ने समर्थन ही किया है। कजाकिस्तान की अन्तरिक्ष प्रयोगशाला के प्रवक्ता निकोलाई के अनुसार मंगल पर वही रासायनिक परिस्थितियाँ हैं जो पृथ्वी पर नागफनी उगने वाले क्षेत्रों में होती हैं। यह एक वनस्पति की बात हुई खोज क्रम आगे बतायेगा कि न केवल पृथ्वी और मंगल का वरन् अन्यान्य ग्रहों का भी आदान−प्रदान चिरकाल से चल रहा है और भविष्य में भी यह क्रम चलता रहेगा।

संसार के व्यक्ति यों को अन्तरिक्ष की स्थिति प्रायः अपनी जैसी ही दीखती है अपनी आँख पर जिस रंग का चश्मा चढ़ा हो वस्तुएँ उसी रंग की दीखने लगेंगी, भले ही वे वस्तुतः उस रंग की न हों।

समुद्र के किनारे खड़े होकर जब हम क्षितिज की ओर निगाह फेंकते हैं तो एक रेखा की तरह वह स्थान दीखता है जहाँ क्षितिज और समुद्र जल का मिलन होता है। यह मिलन रेखा कहाँ है इसे जानना हो तो समझना चाहिए कि वह सतह से उतनी ही ऊँची है जितनी कि हमारी आँखें खड़े होने की जगह से ऊँची हैं। यह दूरी चार किलोमीटर की होगी। इसी प्रकार हम जितने ऊँचे स्थान पर खड़े होकर देखेंगे क्षितिज की रेखा उतनी ही ऊँचाई पर तथा दूरी पर दिखाई देगी। यद्यपि पृथ्वी की गोलाई के आधार पर उस अनुपात में थोड़ा अन्तर तो आता ही है। मनुष्यों में भी थोड़ा बहुत भले−बुरे का अन्तर रहता है, पर वे विशेषतया उसी स्तर के दीखते हैं जैसी कि हमारी निज की स्थिति होती है।

जीवन की परम्पराएँ एक हैं। क्या जड़ और क्या चेतन, क्या व्यक्ति और क्या नक्षत्र सभी को नियति के सुदृढ़ नियमों में बँधकर रहना और चलना पड़ता हैं इस तथ्य को यदि ठीक तरह समझा जा सके तो हम परिवर्तनों से डरें नहीं वरन् उस गतिशीलता का आनंद लूटें। सुदृढ़ नियमों की जंजीर को समझलें तो फिर मर्यादा में रहने का महत्व समझें और उच्छृंखलता अपनाकर विपत्तियाँ मोल न लें।


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