विज्ञान के साथ सद्ज्ञान के समन्वय की आवश्यकता

October 1975

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पिछले तीस वर्षों में मनुष्य को विज्ञान के देवता ने तीन उपलब्धियाँ प्रदान की हैं। इनमें से एक है अणुविखण्डन। सन् 45 में एलमागाडो (न्यू मैक्सिको) में प्रथम अणुविगठन परीक्षण हुआ था। तब से अब तक उस दिशा में एक से एक बड़ी उपलब्धियाँ प्राप्त हो चुकी हैं। दूसरी उपलब्धि है—आनुवांशिकी की नई व्याख्याएँ। जीवकोष की गहराई में समान जीवकोषों के पुनर्जन्म के लिए निर्देश संहिता की खोज। जीव तत्व के इस उद्गम केन्द्र के पकड़ में आ जाने से अब प्राणियों की आकृति और प्रकृति में अभीष्ट परिवर्तन कर सकने का सूत्र हाथ लग गया है। तीसरी उपलब्धि है—अन्तर्ग्रही यात्रा के लिए अपनी पृथ्वी की पकड़ से आगे वाले अन्तरिक्ष में प्रवेश। इस दिशा में चन्द्रयात्रा पहला कदम था। सौरमण्डल की खोज−खबर लेने के लिए अभी निर्जीव गुप्तचरों के रूप में राकेट भेजे गये हैं निकट भविष्य में उनमें शरीरधारी जा सकेंगे। पीछे सौरमण्डल की परिधि पार करके अनन्त अन्तरिक्ष में—सुविस्तृत ब्रह्माण्ड में—स्वेच्छा भ्रमण सम्भव हो जायगा।

यों मनुष्य की दुर्बुद्धि ने इन उपलब्धियों के कारण संसार को भयभीत ही किया है और अनेकों आशंकाओं में डुबोया है, पर यह सम्भावना भी विद्यमान है कि यदि उनका सदुपयोग सम्भव हो सका तो मानवी शक्ति एवं सुविधाओं की सीमा न रहेगी।

अणुविखण्डन का प्रधान रूप अणुबमों के रूप में ही सामने आया है और सर्वसाधारण के लिए अणु विज्ञान और अणुबम एक ही जाने जाते हैं और उससे इस सुन्दर पृथ्वी के सर्वनाश की सम्भावना ही सोची जाती है, पर यह एक पक्ष है समूचा प्रतिपादन नहीं। अणु शक्ति में प्रचुर विद्युत उत्पादन हो सकता है और उससे मानवी श्रम में बचत होने से वह अन्य साहित्य, कला आदि बौद्धिक प्रयोजनों के लिए अवकाश प्राप्त कर सकता है। उद्योग, चिकित्सा, मनोरंजन जैसे कितने ही प्रयोजन इस शक्ति से बहुत सस्ते मूल्य पर सरलता के साथ प्राप्त हो सकते हैं। इससे गरीबी एवं कड़ी मेहनत से छुटकारा मिल सकता है और अधिक सुख सुविधा भरा जीवन जिया जा सकता है।

परिष्कृत आनुवांशिकी में पीढ़ियों से चले आ रहे कुसंस्कारों से नई सन्तति को मुक्त किया जा सकेगा। शरीर में दुर्बलता, रुग्णता के अनेक बीज पीढ़ियों से चले आते हैं और स्वभाव में ऐसी प्रेरणाएँ भरी रहती है जो इच्छा के विपरित उसे अवाँछनीय स्थिति में डाले रखती है। सामान्य संकल्प बल एवं उपचार भी उन्हें पूरी तरह निरस्त नहीं कर सकते और प्रगति की आकाँक्षा किसी अज्ञात द्वारा पग−पग पर असफल की जाती रहती है। यद्यपि मूल कठिनाई अपने ही भीतर होती है, पर जब वह उलटने, बदलने में न आ सके तो उसे बाहरी भी कहा जा सकता है। भाग्य एवं विधि−विधान ऐसी ही विषम परिस्थिति को कहा जाता है। अब इस आनुवांशिकी की नवीनतम खोजों को फलितार्थ बनाने के प्रयत्न चल पड़े हैं और यह सम्भव दिखाई देने लगा है कि मनुष्य की प्रकृति ही नहीं आकृति भी बदली जा सकेगी। परिस्थितियों के साथ तालमेल कर चलने वाला सन्तुलित और परिष्कृत मनुष्य का निर्माण अगले दिनों सम्भव हो जायगा। उस प्रयास की सफलता को देव सृष्टि की अभिनव संरचना कहा जा सकेगा, वस्तुतः वह समय कितना सुन्दर और सुखद होगा इसकी कल्पना मात्र से मन में सिहरन उठती है।

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण और हवा के कड़े कवच के अन्दर निर्वाह करने वाला मनुष्य गूलर के भुनगों की तरह है यह बात तब समझ में आती है जब पृथ्वी और चन्द्रमा के बीच अधर अन्तरिक्ष में हम यात्रा पर निकलते हैं। ब्रह्माण्डीय सम्पदा कितनी असीम है, उसका विस्तार कितना सुविस्तृत है और उसमें रहने वाले प्राणी कितने समुन्नत है, इसका प्रत्यक्ष परिचय जब मिलेगा और ससीम का असीम के साथ निर्वाध आदान−प्रदान सम्भव होगा तो आदमी अपने को सचमुच ही ‘बड़ा’ अनुभव करेगा। तब उसका बड़प्पन सचमुच ही गौरवास्पद होगा।

भार और वायु रहित स्थिति में रह सकने की स्थिति ढूँढ़ने के प्रयास में मनुष्य के हाथों ऐसी एक से एक अद्भुत उपलब्धियाँ लगी हैं जो अन्तरिक्ष खोज से कम नहीं वरन् कुछ अधिक ही लाभदायक सिद्ध होगी। अन्तरिक्ष में कहीं भी बस सकना सम्भव हो सकता है। पृथ्वी तक आने वाले अन्तरिक्षीय अनुदानों में से अभी बहुत स्वल्प अंश ही काम में आता है उसकी उपयोगी मात्रा को ग्रहण करना और अनुपयोगी को हटाकर मौसम इच्छानुकूल बनाये जा सकते हैं। भूकम्प, बाढ़, तूफान आदि दैवी प्रकोपों पर नियन्त्रण किया जा सकता है। समुद्र, बादल, हवा, गर्मी, सर्दी आदि को इच्छानुवर्ती बनाया जा सकता है। यह सबब प्राप्त कर सकने के उपरान्त मनुष्य कितना बलिष्ठ और सशक्त होगा; इसकी कल्पना करने मात्र से लगता है कि हम किसी जादुई युग में भ्रमण कर रहे हैं। यह कल्पना सदा जल्पनाएँ ही बनी रहें, ऐसी बात नहीं है। प्रगति के पिछले इतिहास के साथ भविष्य की सम्भावनाओं को जोड़ देने पर लगता हे यह असम्भव नहीं वरन् पूर्णतया सम्भव है आज की कल्पना कल मूर्तिमान बन सके इसकी सम्भावनाएँ अमान्य नहीं ठहराई जा सकतीं।

प्रकृति के प्रत्येक कक्ष में एक से एक बड़ी सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं, यदि सीधे मार्ग पर चलकर उन्हें करतलगत किया जाय तो मनुष्य की भौतिक सम्पदा भी अतुलनीय बन सकती है,पर हो तो उलटा रहा है। विकास के नाम पर विनाश खोजा जा रहा है। यदि सीधी चाल चलें तो आकाश में घूमने वाले हिमपर्वतों तक को खोजा जा सकता है और उन्हें शुष्क उष्ण प्रदेशों कर सरसता और शीतलता का लाभ लिया जा सकता है।

आकाश से पानी बरसता है, छोटे−छोटे ओले भी बरसते हैं। पर कभी−कभी बर्फ की ऐसी चट्टानें भी बरसती देखी गई हैं जो तोप के गोले की तरह जहाँ भी गिरें वहाँ सफाया करके रखदें।

ब्रिटीशचेनल के समीप सामरसेट क्षेत्र में 10 नवम्बर 1950 में लैथम नामक किसान के खेत में 15 पौण्ड भारी बर्फ के गोले बरसे थे जिससे उसकी भेड़ें मर गई और जमीन में एक फुट गहरे गड्ढे हो गये थे।

लन्दन के पास वैंडस वार्य में 24 नवम्बर 1950 की ऐसी ही एक बड़ी चट्टान गिरी थी। अप्रैल सन् 1954 में कैलीफोर्निया के नापा स्थान पर एक−एक फुट के ओले पड़े थे। पेन्सिलवेनिया में रीडिंग नामक स्थान में एडविन ग्राफ नामक किसान के खेल में 50 पौण्ड भारी और दो फुट मोटी बर्फ की सिल्ली एक बड़े धमाके के साथ गिरी और जमीन में गड्ढा करती चली गई। पेन्सिलवेनिया गोर्वने तथा चेस्टर में भी ऐसे ही हिमखण्ड गिरे थे। 2 सितम्बर 1958 की रात को न्यूजर्सी में ग्रेस्टोन रोड पर भी ऐसा ही एक भयंकर गोला गिरा था जो छत में तीन फुट चौड़ा छेद बनाता हुआ एक घर में गिरा था और घर वाले मरते−मरते बचे थे।

आकाशीय स्थिति विशेषज्ञों द्वारा खोज करने पर पता चला है कि आकाश में हिमानी चट्टानें और पहाड़ियाँ इतनी अधिक मात्रा में विद्यमान है जोकि इधर से उबर ले जाने में इतनी आसान है कि उन्हें हलके चुम्बकीय थपेड़े देकर किसी भी क्षेत्र तक घसीट कर ले जाया जा सकता है और मनचाही मात्रा में धरती पर उतारा जा सकता है।

विज्ञान के साथ यदि सद्ज्ञान का समन्वय हो सके तो अपनी धरती पर इन्हीं पदार्थों, इन्हीं व्यक्ति यों और इन्हीं परिस्थितियों में स्वर्गीय वातावरण का सृजन हो सकता है।


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