कामना (kavita)

October 1975

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नहीं मांगते राज्य, स्वर्ग-सुख, हमें मुक्ति की चाह नहीं। बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।

जब पथ से विचलित हो जन-मन भूल जाय परमार्थ-प्रयोजन; खोजे अपना ही सुख-साधन, बढ़े असुरता का सम्मोहन;

तब हम प्रतिपल तिल-तिल जलकर बने ज्योति की रह कहीं। बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।

पराधीनता की कुंठाएं जब मानव को विवश बनायें; मृग-मरीचिका-सी आशाएं असफल प्राणों को भटकायें;

तब उस जीवन के मरुथल में, हमें बना दो छांह कहीं। बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।

तथाकथित सब धर्म-धुरंधर हों जब भाग्यवाद पर निर्भर, भूतल को भवसिन्धु बताकर दूर हटें झंझा से डरकर;

तब हम कर्णधार को लेकर, जूझें बनकर नाव कहीं। बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।

जब तक सुलभ न स्वर्ग सभी को, शान्ति नहीं व्याकुल धरती को; जब तक चैन न हर प्राणी को कैसे रुचे आत्म-सुख जी को?

जन्म-जन्म के पुण्य हमारे, लुट जायें परवाह नहीं। बस इतना कर दो, दुखियों में रहे कष्ट का दाह नहीं।।

*समाप्त*


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