संग्रह का अर्थ है कल पर अविश्वास, ईश्वर पर अश्रद्धा और भविष्य की अवज्ञा। जब पिछले कल हमें जीवित रहने के लिए जितना आवश्यक था, उतना मिल गया तो कल न मिलेगा; इसका कोई कारण नहीं। यदि जीवन सत्य है तो यह भी सत्य है कि जीवनोपयोगी पदार्थ अन्तिम साँस चलने तक मिलते रहेंगे। नियति ने उसकी उचित व्यवस्था पहले से ही कर रखी है। तृष्णा ऐसी ही अक्लमंदी है जो निर्वाह के लिए आवश्यक साधन उपलब्ध रहने पर भी निरन्तर अतृप्तिजन्य उद्विग्नता में जलाती रहती है।
जिन्हें ईश्वर की उदारता पर विश्वास है वे उदार बनकर जीते हैं। बादलों का कोष चुका नहीं वे बार−बार खाली होते हैं, पर फिर भर जाते हैं। नदियाँ उदारता पूर्वक देती है और यह विश्वास करती है कि उनका प्रवाह चलता रहेगा। अक्षय जल स्रोत उनकी पूर्ति करते रहेंगे। वृक्ष प्रसन्नतापूर्वक देते हैं और सोचते हैं कि वे ठूँठ नहीं रह सकते। नियति का चक्र उन्हें हरा−भरा रखने की व्यवस्था करता ही रहेगा। कृपणता, संकीर्ण−चिन्तन का ही नाम है। ऐसे व्यक्ति कुछ संग्रह तो कर सकते हैं, पर साथ ही बढ़ती हुई तृष्णा के कारण उस सुख से वंचित ही रहते हैं जो उदार रहने पर उन्हें अनवरत रूप से मिलता रह सकता था।
खिलते हुए पुष्प हवा की झोली में अपना सौरभ भरते हैं−गायें दूध देने के बदले कोई प्रतिपादन नहीं माँगती। कैसा अच्छा होता कि उदारता को जीवित रखकर हम हँसते और हँसाते हुए जीवन के दिन पूरे करते।