धरती और सूरज जरा−जीर्ण हो चुके अब मरने ही वाले हैं।

October 1975

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परिवर्तन प्रकृति का अटल नियम है। कोई वस्तु एक स्थिति में नहीं रह सकती। देर−सवेर से उसका परिवर्तन होता निश्चित है। प्राणी जन्म लेते है, बढ़ते हैं ओर अन्त में मृत्यु के ग्रास बन जाते है। सुदृढ़ इमारतें धराशायी होती हैं। विशाल वृक्ष ईंधन मात्र शेष रह जाते हैं। एक समय के सर्वशक्ति सम्पन्न व्यक्ति दूसरे समय धूलि चाटते और विस्मृति के गर्त में तिरस्कृत होते देखे जाते है।

अजर−अमर जैसी लगने वाली सत्ताएँ भी बदलती, मरती रहती है। सूरज और धरती तक इस चक्की में कितने डाले हैं। धरती को ही लें वह खण्ड प्रलय के आघातों से कई बार मरते−मरते बची है; किन्तु बकरे की माँ कब तक खैर मनायेगी। एक दिन तो अपने इस पूरे भूलोक का अस्तित्व ही महाकाल के पेट में सदा सर्वदा के लिए समा जायगा।

अन्तरिक्ष विज्ञानी एमिलियानी का कथन है—इन दिनों हम उष्ण युग में रह रहे हैं और तापमान बढ़ रहा है। यह तीन हजार वर्ष तक चलेगा। बढ़ी हुई गर्मी से ध्रुवों की बर्फ पिघलेगी और समुद्री बाढ़ से तटवर्ती क्षेत्रों की बुरी तरह बर्बादी होगी। इतना ही नहीं बची−कुची जमीन पर शीत प्रकोप का शिकंजा कसता चला जायगा और उस उथल−पुथल में आज के जीवधारियों के लिए फिर प्राण संकट आ खड़ा होगा।

सियामी विश्व−विद्यालय के भू−गर्भ विज्ञानी ‘सीजाके एमिलियानी’ ने समुद्र तल से तथा पर्वतों के उच्च शिखरों से प्राप्त चिर प्राचीन प्राणि कंकालों की शोध करके यह निष्कर्ष निकाला है कि पृथ्वी पर प्राणियों की सृष्टि होने के समय से लेकर अब तक 7 बार खण्ड प्रलय हो चुकी है। इनमें चार शीत प्रधान और तीन उष्णता प्रधान थीं। यह दोनों ही प्रायः एक−एक लाख वर्ष की होती रही हैं। इनमें विकसित प्रकोप ही होते रहे हैं केवल जीवाणुओं के रूप में जीवन शेष रहा है और फिर सह्य तापमान होने पर नये आकार−प्रकार के प्राणी विकसित होते रहे हैं। जीवाणु हर बार अवसर के अनुरूप नये रूप में विकसित होकर पिछली प्रलय से भिन्न स्तर के बनते रहे हैं।

पृथ्वी की आयु कितनी हो सकती है इस संदर्भ में कैलीफोर्निया के पुरातत्त्ववेत्ता जान एच. रेनाल्ड ने डकोट राज्य के रिचार्डटन नामक स्थान में मिली एक पुरानी उल्का के आधार पर यह सिद्ध किया है कि धरती की आयु लगभग पाँच अरब वर्ष है। इसी निष्कर्ष पर संसार के अन्य भू−गर्भ वेत्ता, प्राणिशास्त्री एवं पुराविद भी पहुँचे हैं। उसने अपने−अपने ढंग से जो अनुमान लगाये हैं उनसे थोड़े बहुत अन्तर के बाद लगभग इतनी ही आयु अपनी धरती की बैठती है।

पहले पृथ्वी दो ही गोलार्धों में बँटी थी। एक उत्तरी दूसरा दक्षिणी। पीछे धरती जैसे−जैसे अधिक ठण्डी होती गई और वातावरण बदलता गया समुद्रों ने करवटें लीं और धीरे−धीरे वह शकल बनती गई जो आजकल सामने है।

भूगोलवेत्ता ग्राहमडिप्थे का कथन है—धरती क्रमशः ठण्डी होती जा रही है और सूरज बूढ़ा। दोनों ही आधी उम्र पार कर चुके। अब वे उतने दिन और नहीं जी सकते जितने दिन कि जी लिये। अब वे ढलती आयु को पार करके मृत्यु के सुख में जाने की तैयारी कर रहे हैं।

मनुष्य को भी यदि यह विश्वास हो जाय कि उसे कल नहीं तो परसों निश्चित रूप से मरना है तो उसे वे अकर्म करने की इच्छा न रहे जिनमें वह दिन−रात लगा रहता है। संसार की हर वस्तु को बदलते, मरते देखकर हम अपने अन्त का अनुमान लगा सकें और उसकी शानदार तैयारी का उपक्रम बना सकें तो कितना अच्छा हो।


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