हारमोन सूक्ष्म शक्ति यों के केन्द्र

October 1975

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भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही क्षेत्रों में सूक्ष्म शक्ति की ही प्रखरता काम करती देखी जा सकती है। जीवन की गरिमा और सफलता उसके स्थूल वैभव में सन्निहित नहीं है जैसी कि आम लोगों द्वारा समझी जाती है। उसका वर्चस्व सूक्ष्म चिन्तन द्वारा किये गये आत्म निरीक्षण और आत्म निर्माण में सन्निहित है। सद्गुणों की सम्पदा वह स्वर्ण भण्डार है जिसके छोटे−छोटे टुकड़ों के बदले प्रचुर मात्रा में मनोरंजक सामग्री खरीदी जा सकती है।

उदाहरण के लिए शरीर संचालन को ही लेते हैं। लगता है हाथ, पैर, सिर आदि के सहारे ही जीवन यात्रा चल रही है। ऊपरी परत उखड़ने पर पता लगता है कि रक्त ,माँस, हड्डी आदि धातुएँ प्रधान हैं। पीछे हृदय, फेफड़े, आमाशय, गुर्दे आदि के कल पुर्जे परस्पर मिल−जुल कर जिस तरह काम कर रहे हैं, उस तालमेल को देखकर अचम्भा होता है। आगे चलकर कोटि−कोटि जीवाणुओं की विचित्र गति विधियाँ देखकर उसे जादू का महल मानना पड़ता है। कभी मस्तिष्क का नियन्त्रण प्रधान लगता है, कभी हृदय का रक्त संचालन। कभी प्रतीत होता है—इन दोनों सेनापतियों की कमान में काया के असंख्य कल पुर्जे अनुशासित सैनिकों की तरह अहिर्निशि अपनी ड्यूटी दे रहे हैं।

हमारे शरीर में दो प्रकार की ग्रन्थियों का जाल बिछा हुआ है। एक वे हैं जो विशेष अंगों को अपना विशेष काम करने की शक्ति देने के लिए अपने स्राव निर्धारित नलिकाओं द्वारा यथा स्थान पहुँचाती हैं। आमाशय, आंतें, जिगर, गुर्दे, फेफड़े आदि अवयव उन्हीं स्रावों से शक्ति पाकर अपने−अपने काम ठीक तरह चला पाते हैं। दूसरी तरह की ग्रन्थियाँ वे हैं जो किसी विशेष स्थान से सम्बन्धित न होकर समूचे रक्त में अपना प्रभाव उत्पन्न करती हैं। स्राव तो उनसे भी निकलते हैं, पर वे समीपस्थ बारीक रक्त नलिकाओं द्वारा समूचे शरीर में फैले जाते हैं। उन्हें नलिका रहित ग्रन्थियाँ अथवा एण्डोक्राइन ग्लैण्ड कहते हैं। इनका महत्व अपने शरीर में अनेक दृष्टियों से अत्यधिक है। इन्हें अन्तः स्रावी ग्रन्थियाँ भी कहते हैं।

यह दूसरे किस्म की ग्रन्थियाँ ही जीव में नर−नारी का भेद, उनका कद, स्वभाव, बुद्धि, सौंदर्य, पुरुषार्थ आदि शारीरिक और मानसिक स्थिति को न्यूनाधिक करने के लिये उत्तरदायी है। इन्हें एक प्रकार से व्यक्ति त्व की सूत्र संचालिका कह सकते हैं।

एण्डीक्राइन ग्रन्थियाँ शरीर के विभिन्न स्थानों में अवस्थित हैं और उनके कार्य भी भिन्न−भिन्न हैं। इतने पर भी वे एक दूसरे के साथ संबद्ध हैं और मिल−जुल कर जीवन की गति विधियों के संचालन में ताल−मेल बिठाती है। इन्हें संगीत मण्डली कह सकते हैं जिसके सभी सदस्य अलग−अलग बाजे बजाते हैं, फिर भी इनकी ध्वनि ताल एक होती है। यदि इनमें से कोई बाजा अथवा वादक अपनी गतिविधियाँ वेसुरी कर दे तो सारी मण्डली का मजा मिट्टी हो जाता है। इसी प्रकार यह ग्रन्थियाँ एक दूसरे की पूरक बन कर रहती हैं। इनमें से एक भी गड़बड़ाती हैं तो दूसरी अन्य भी डगमगाने लगती है।

हारमोन बनाने वाली ग्रन्थियों में पाँच प्रमुख हैं (1) पिट्यूटरी (2) थाइराइड (3) पैराथाइराइड (4) पेंक्रियाज (5) एड्रीनल। इन ग्रन्थियाँ के तीन प्रमुख कार्य हैं एक शरीर तंत्र का रख रखाव तथा उन्हें क्रिया शील बनाये रहना। दूसरा शरीर वृद्धि को सुनियोजित रखना। तीसरा नर एवं मादा प्रजनन तंत्र का सुचारु रूप से संचालन।

पिट्यूटरी सब अन्तः स्रावी ग्रन्थियों के मास्टर है। बादाम जैसी आकृति की यह ग्रन्थि आँखों के गड्ढों के पीछे—कनपटी के पास है। इसके अगले हिस्से में से छह और पिछले में से दो हारमोन उत्पन्न होते हैं। ये शरीर की वृद्धि के काम आते हैं। शकर, चर्बी, स्टार्च, पानी आदि की ठीक मात्रा शरीर में बनाये रहना इन्हीं का काम है।

पिट्यूटरी पीयूष ग्रन्थि—खोपड़ी के आधार में—मस्तिष्क के नीचे—एक छोटे से गड्ढे में स्थित है। यह एक छोटी सी नलिका द्वारा मस्तिष्क से जुड़ती है। यह आकार में छोटी, पर प्रभाव में बहुत प्रखर है। इसमें अधिक स्राव होने लगे तो मनुष्य असाधारण रूप से लम्बे और बेडौल हो जाते हैं। सिर में दर्द रहता है, तथा दूसरी शिकायतें पैदा होती हैं।

अन्तः स्रावी ग्रन्थियों में एक है’थाइराइड’। यह गर्दन में साँस की नली के सामने होती है। इसके स्राव शरीर को विकसित करते हैं और सक्रियता प्रदान करते हैं। इसके स्राव बढ़ जायं तो वजन घटता जायगा, हृदय की धड़कन तेज हो जायगी, हाथ काँपने लगेंगे, आंखें उभरती , बाहर निकलती सी दिखाई पड़ेगी, और भूख बहुत अधिक लगने लगेगी । इस ग्रन्थि में आयोडीन रसायन घट जाता है तो गलगण्ड −− फूलने का रोग हो जाता है। हिमालय की तराई में यह रोग अधिक पाया जाता है। यदि बचपन में ही इसका स्राव कम निकले तो, मस्तिष्क अविकसित रह जायगा और बच्चा अपंग स्थिति का रहा जायगा।

तीसरी ग्रन्थियाँ हैं पैराथाइराइड। ये चार के समूह में होती है। इनका स्थान थाइराइड ग्रन्थि के पीछे है। इनका मुख्य काम हड्डियों को मजबूत बनाना है। यदि इनके स्राव बढ़ जायं तो हड्डियाँ बालुई हो जायेंगी और तनिक से आघात से उनके टूटने या मुड़ने का खतरा बना रहेगा। गुर्दे की पथरी भी इसी गड़बड़ी से उत्पन्न होती हैं। स्त्रियों के प्रजनन केंद्रों की हड्डियाँ गड़बड़ा जाने से वे बिना आपरेशन के बच्चा नहीं जन पातीं।

पेट में— आमाशय के नीचे पेंक्रियाज ग्रन्थि है। इसका मुख्य काम भोजन पचाने वाले रस पैदा करना है। साथ ही वह इंसुलिन नामक विशेष हारमोन भी बनाती है। यह रक्त में शकर का अनुपात ठीक रखती है।

आमाशय में आइलेट्स आफ लैंगर हेन्स ग्रन्थियाँ होती हैं। इनके स्राव इन्सुलिन कहलाते हैं। इन्हीं के कारण खाये गये कार्बोहाइड्रेट जाति के खाद्य पदार्थ शर्करा रूप में परिणत होते हैं और उनके द्वारा उत्पन्न गर्मी का लाभ सारा शरीर उठाता है। इन यह ग्रन्थियाँ इन्सुलिन के उत्पादन में कमी आ जाती है तो शर्करा शरीर में पचती नहीं और पेशाब के साथ बाहर निकलने लगती है। इसी स्थिति को डायबिटीज −मधुमेह— कहते हैं। कभी −कभी इन ग्रन्थियों में ट्यूमर हो जाता है और अनावश्यक मात्रा में इन्सुलिन बनने लगता है। तब सिर में चक्कर आना, रक्त चाप की कमी, बेहोशी जैसी शिकायतें रहने लगती हैं।

(5) एड्रीनल ग्रन्थियाँ गुर्दे के ऊपर दो हिस्सों में बँटी हैं। कार्टेक्स से तीन प्रकार के स्राव निकलते हैं। (1) ग्लूको कार्टिकाइड (2) इलेक्ट्रो कोटिकाइड (3) सेक्स हारमोन । इनमें प्रथम का कार्य शरीर में कार्बोहाइड्रेटों तथा बसा का भण्डार जमा करना है और प्रोटीनों का सही विभाजन करना है। वही इस संचय का उपयोग आपत्ति कालीन स्थितियों में करता है। दूसरा स्राव शरीर में पानी को तथा ऐडियम क्लोराइड को रोकता है। यह रोक थाम न हो तो शरीर पाला मारे वृक्ष की तरह सूख जायगा।

भावनात्मक उद्वेगों से एड्रीनल असाधारण रूप से उत्तेजित हो जाती है और आपत्ति से लोहा ले सकने योग्य शारीरिक एवं मानसिक ऊर्जा उत्पन्न करती है। क्रोध, भय, हर्ष, रोमाँस जैसे अवसरों पर रोमाँच हो जाता है, साँस तेज हो जाती है, रक्त प्रवाह बढ़ जाता है, पसीना छूटता है, यह सब इसी हारमोन का चमत्कार है। जिसके कारण मनुष्य असाधारण रूप से साहस एवं पराक्रम कर पाता है यौन संस्थानों पर इसी का भारी प्रभाव छाया रहता है।

वृषण ग्रन्थि नर में होती है, उसी से उसका पौरुष जगता है और दाढ़ी,मूँछ आदि पुरुष आकृति को नारी से भिन्न करने वाले लक्षण प्रकट होते है। यदि ये ग्रन्थियाँ निकाल ली जायँ तो सिंह भी भीगी बिल्ली की तरह डरता, सहमता दिखाई पड़ेगा। सन्तानोत्पादन से लेकर साहसिक कार्य करने तक से वे वंचित रह जायेंगे। यह वृषण ग्रन्थियाँ मादा के गर्भाशय के दोनों छोरों पर दूसरे रूप में होती है इन्हें डिम्ब कोष कहते हैं। इनसे दो स्राव निकलते हैं (1) ईस्ट्रोजेन (2) प्रोजेस्ट्रान। स्त्रियोचित कोमलता और गर्भधारण की क्षमता इन्हीं स्रावों से सम्बन्धित है। इनमें गड़बड़ी हो तो नारी में नर के चिह्न प्रकट होने लगेंगे अथवा वह गर्भधारण करने के अयोग्य रह जायगी। मूत्राशय को नियंत्रित करने वाली हारमोन ग्रन्थि लड़खड़ा जाय तो हर घड़ी पेशाब रिसने लगे। स्त्रियों का मासिक धर्म कभी बन्द ही न हो, प्रसव के उपरान्त जननेन्द्रिय सिकुड़ कर पूर्ववत् बन ही न सके । स्तनों में दूध बनाने का कार्य प्रोलैक्टीन ए. और बी. स्रावों पर निर्भर रहता है, यदि वे संतुलित न हों तो बच्चों को माता को दूध ही न मिल सके। काम शक्ति की न्यूनता और अधिकता भी इन्हीं स्रावों से सम्बन्धित है। यदि पीयूष ग्रन्थि का स्राव बढ़ जाय तो मनुष्य दैत्याकार बढ़ता चला जायगा, उनमें कमी आ जाने पर बौना रहना पड़ता है। थाइराइड की गड़बड़ी से इतनी क्षुधा जागृत हो सकती है, जिसे तृप्त करना ही कठिन पड़ जाय। यों दिन भर में इसका स्राव 1 बटा 2800 ओंस जितनी नगण्य मात्रा में निकलता है पर उसमें भी तनिक सी कमी पड़ जाय तो समझना चाहिए कि जवानी में बुढ़ापा आ गया।

मस्तिष्क के मध्य में अवस्थित पिट्यूटरी ग्रन्थि अन्य सभी हारमोन ग्रन्थियों का नियंत्रण करती है। मस्तिष्क की तीक्ष्णता और सुकोमल भाव संवेदना से भी इसी का सीधा सम्बन्ध है। योग विज्ञान के अनुसार इसे आज्ञाचक्र कहा जाता है। शिव तथा दुर्गा को तीन नेत्र वाला चित्रित किया जाता है। यह आज्ञाचक्र की प्रखरता का ही संकेत है। दिव्य दृष्टि का अतीन्द्रिय चेतना का सम्बन्ध इसी शक्ति केन्द्र से है। ध्यान साधना में इसी स्थान में प्रकाश ज्योति की धारणा को महत्व दिया जाता है। क्षीरसागर में सोये शेषशायी विष्णु की ओर मानसरोवर स्थित कैलाश पर विराजमान शिव की कल्पना इस आज्ञाचक्र के रहस्योद्घाटन के रूप में ही की गई है। ग्रेमैटर—मस्तिष्कीय मज्जा क्षेत्र—क्षीर सागर या मानसरोवर कहा गया है। इसी के मध्य में से पिट्यूटरी ग्रन्थि का चेतन पक्ष आज्ञाचक्र अवस्थित है।

शिवजी ने तीसरा नेत्र खोल कर कामदेव को जला दिया था। इस उपाख्यान की संगति इस प्रकार बैठती है कि इस केन्द्र से कामोत्तेजना का सीधा सम्बन्ध है। बर्लिन मेडिकल कालेज में एक ऐसा 11 वर्षीय लड़का लाया गया जिसके यौन अंग पूर्ण विकसित जैसे विकसित हो गये थे और उसे इस दृष्टि से परिपक्व वयस्क घोषित कर दिया गया। उस लड़के की यही ग्रन्थि अधिक स्राव दे रही थी।

शरीर की असाधारण घट−बढ़ से इसी ग्रन्थि का सीधा सम्बन्ध है। संसार में सबसे ऊँचा 8 फुट 11 इंच ऊँचा राबर्ट वाडली और 25 इंच ऊँच बौना टामथम्ब अपनी विलक्षणता इसलिए प्रस्तुत कर सके कि उनकी पिट्यूटरी ग्रन्थि के स्रावों ने असाधारण रीति अपनाई थी।

हारमोन स्रावों पर कैसे नियंत्रण किया जाय, इसका कोई कारगर उपाय समझ में नहीं आया। एक प्राणी के हारमोन दूसरे प्राणी के शरीर में पहुँचाने की क्रिया बहुत थोड़ा लाभ पहुँचा सकी है और कई बार तो उसके उलटे परिणाम हुए है। उदाहरण के लिए सौंदर्य बढ़ाने के नाम पर, स्त्रियों के बढ़े हुए स्तन छोटे करने के लिए ‘रिड्युसिंग क्रीम’ का उपयोग चला और छोटों को बड़ा बनाने के लिए एस्ट्रोजन हारमोन शरीर में पहुँचाये गये। इससे तात्कालिक लाभ तो दिखाई पड़ा, पर कुछ दिन बाद दूसरी यौन विकृतियाँ खड़ी हो गई। इसी प्रयोग में फ्रेंच महिला की दाढ़ी−मूँछ उग आई और वह रहासहा सौंदर्य भी खो बैठी। नये प्रयोगों में उन स्थानों पर विद्युत संचार कराने के उपचार काम में लाये गये हैं, पर लगता है; वे संस्थान कहीं अन्यत्र से प्रेरणा लेते हैं और चिकित्सा उपकरणों से क्रुद्ध होकर कुछ नई कठिनाई खड़ी कर देते हैं।

हारमोन विज्ञान हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाता है। शरीर संस्थान के विभिन्न अवयव कितने ही समर्थ सुविकसित दिखाई क्यों न पड़ते हों उनका उतना महत्व नहीं जितना नगण्य सी एक ग्रन्थि की विशेष के एक बूँद से भी कम मात्रा में निकलने वाले स्राव का। जीवन का बाहरी रूप कितना ही बढ़ा−चढ़ा क्यों न हो उसकी सम्पदाओं की उपलब्धि, स्थिरता और सफलता का सारा आधार आन्तरिक प्रवृत्तियों की धुरी पर गति शील हो रहा है। स्थूल पर अटकी पड़ी हमारी मोटी दृष्टि यदि सूक्ष्म की गहरी परतों के भीतर झाँक सके तो उसे हारमोन शोधकर्ताओं की तरह इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि चेतना का प्रकृति संस्थान ही शक्ति स्रोत है, उसी की श्रेष्ठता−निष्कृष्टता के आधार पर हम उत्थान, पतन की परिस्थितियाँ प्राप्त करते हैं।


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