मानसिक विकृतियों का शरीर पर प्रभाव

October 1975

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मानसिक स्थिति में विकृति आते ही शरीर का ढाँचा लड़खड़ाने लगता है। स्पष्टतः सारे शरीर पर मन का नियन्त्रण है। उसका एक अचेतन भाग रक्त −संचार, श्वास−प्रश्वास, आकुँचन−प्रकुँचन, निद्रा, पलक झपकना, पाचन, मल विसर्जन आदि स्वसंचालित क्रिया−कलापों पर नियन्त्रण करता है और दूसरा सचेतन भाग विभिन्न प्रकार के जीवन व्यवहारों के लिए दसों इन्द्रियों को—अंग−प्रत्यंगों को सक्रिय करता है। शरीर और मन का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इस तथ्य को जानते हैं उन्हें विदित है कि मन को असन्तुलित करने का अर्थ न केवल शोक−सन्तापों में डूबकर असन्तोष एवं उद्वेग की आग में जलना है वरन् अच्छे भले शरीर को भी रोगी बना डालना है। अगणित शारीरिक रोग मानसिक असन्तुलन के कारण ही उत्पन्न होते हैं। ऐसे ही रोगों में एक जुकाम भी है।

अनेकों कठिन बीमारियों के इलाज ढूँढ़ निकाले गये हैं, पर एक रोग आज भी ऐसा है जो अनेकों औषधियों के उपरान्त भी काबू में नहीं आ रहा है—वह है—जुकाम।

शरीर शास्त्रियों के अनुसार जुकाम के भी विषाणु होते हैं। पर उनकी प्रकृति अन्य सजातियों से सर्वथा भिन्न है। चेचक, पोलियो आदि का आक्रमण एक बार हो जाने के उपरान्त शरीर में उस रोग से लड़ने की शक्ति उत्पन्न होती है। फलतः नये आक्रमण का खतरा नहीं रहता, पर जुकाम के बारे में यह बात नहीं है। वह बार−बार और लगातार होता रहता है। एक बार जिस दवा से अच्छा हुआ था, दूसरी बार उससे अच्छा नहीं होता जबकि यह बात दूसरी बीमारियों पर लागू नहीं होती।

कनाडा के एक शरीर शास्त्री और मनोविज्ञानी डा.डानियलकापोन का मत है—”जुकाम उतना शारीरिक रोग नहीं जितना मानसिक है।” जब मनुष्य थका, हारा और निठाल होता है तो उसे अपनी असफलताएँ निकट दिखती है उस लाँछन से बचने के लिए वह जुकाम बुला लेता है ताकि दूसरे उसकी हार का दोष इस आपत्ति के सिर मढ़ते हुए उसे निर्दोष ठहरा सकें। यह रोग वस्तुतः अंतर्मन का अनुदान है जो व्यक्ति स्वल्प शारीरिक कष्ट देकर अपने को असफलता के लाँछन से बचाता है। ऐसा रोगी बहुत हद तक पराजय की आत्म−प्रताड़ना से बच जाता है। जुकाम की दैवी विपत्ति टूट पड़ने से वह हारा; उसकी योग्यता, हिम्मत एवं चेष्टा में कोई कमी नहीं थी। यह मान लेने पर मनुष्य को सान्त्वना की एक हलकी थपकी मिल जाती है। अन्तःचेतना इसी प्रयोजन के लिए जुकाम का ताना−बाना बुनती है।

कोपान ने अपनी मान्यता की पुष्टि में अनेकों प्रमाण प्रस्तुत किये हैं। खिलाड़ी लोग प्रतियोगिता के दिनों, विद्यार्थी परीक्षा के दिनों, प्रत्याशी चुनाव तिथि पर अक्सर जुकाम पीड़ित होते हैं। इनमें अधिकाँश ऐसे होते हैं जिन्हें अपनी सफलता पर सन्देह होता है और हार की विभीषिका दिल को कमजोर करती है।

जुकाम के विषाणु होते तो हैं और उनमें एक से दूसरे को छूत लगाने की भी क्षमता होती है, पर उतने कष्टकारक नहीं होते जितने कि मनुष्यों को पीड़ित करते हैं। चूहे, बन्दर आदि के शरीर में जुकाम के विषाणु प्रवेश कराये गये किन्तु उनके शरीर पर कोई असर नहीं हुआ।

जुकाम का कारण सर्दी है यह मानना भी ठीक नहीं। क्योंकि ध्रुव प्रदेश में कड़ाके की ठंड का सामना करते हुए पीढ़ियां बिता देने वाले एस्किमो लोगों में से किसी को कभी भी जुकाम नहीं होता। उस क्षेत्र में अन्वेषण के लिए जाने वाले खोजी दलों का भी यही कथन है कि जब वे ध्रुव प्रदेश में रहे तब तक उन्हें जुकाम नहीं हुआ। पर्यवेक्षणों का निष्कर्ष यह है कि शीत ऋतु में कम और गर्मी के दिनों में जुकाम का प्रकोप अधिक होता है।

जुकाम की कितनी ही दवाएँ आविष्कृत हुई, पर वे सभी अपने प्रयोजन में असफल रहीं। अफीम कुछ लाभ जरूर पहुँचाती है, पर उससे दूसरी प्रकार की नई उलझनें उठ खड़ी होती है जो मूल रोग से कम कष्ट कारक नहीं हैं।

जुकाम तो एक उदाहरण है जो देखने में शारीरिक लगता है, पर वस्तुतः है मनोरोग। यही बात अधिकांश शारीरिक रोगों के बारे में है। यदि हम मानसिक सन्तुलन संभालें तो सहज ही अनेकों शारीरिक रोगों से छुटकारा पा सकते हैं।


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