हवा के बाद सबसे सस्ती और सर्वत्र उपलब्ध वस्तु पानी ही है। पानी चाहे जहाँ जितनी मात्रा में बिना मूल्य मिल सकता है।
पानी को दूसरे शब्दों में जीवन कह सकते हैं। प्राणी का महत्व कितना ही अधिक क्यों न हो वस्तुतः वह पानी का ही पुत्र है। शरीर में 85 प्रतिशत पानी और 15 प्रतिशत अन्य पदार्थ हैं। यदि पानी न होता तो यह धरती चन्द्रमा की तरह मृतक पिण्ड मात्र बनी रहती।
अपने सौरमण्डल में पृथ्वी को छोड़कर शुक्र और मंगल ग्रह ही ऐसे हैं जिनमें पानी का अस्तित्व मौजूद है। शेष ग्रह−उपग्रह इस सम्पदा की दृष्टि से निर्धन हैं। पृथ्वी को वनस्पति और प्राणियों से फला−फूला बनाने को श्रेय पानी को ही है जो अपने लोक में दो तिहाई की मात्रा में भरा पड़ा है। वैज्ञानिकों ने हिसाब लगाया है कि पृथ्वी पर साड़े बत्तीस करोड़ धन मील पानी होना चाहिए। जमीन के भीतर जो छिपा पड़ा है वह इससे अलग है। यदि उसे भी गिनना हो तो फिर 20 लाख धन मील पानी इसमें और जोड़ना पड़ेगा। अपने वायु मण्डल में भाप बादल बनकर प्रायः तीन हजार घन मील पानी इसमें और जोड़ना पड़ेगा। अपने वायुमण्डल में भाप बादल बनकर प्रायः तीन हजार घन मील की मात्रा में वह उड़ता−फिरता है। बादल बनकर समुद्र में प्रायः 1 लाख घन मील भाप उठती है, पर उसका 85 प्रतिशत समुद्रों पर ही बरस जाती है। धरती पर वर्षा करने के लिए प्रायः 15 प्रतिशत बादल ही आ पाते हैं।
पृथ्वी आरम्भ में आग को गोला थी वह ठण्डी हुई थी तो उसके भीतर की गैस पानी बनकर बरसने लगी। इसमें अमोनिया, कार्बनडाइ−आक्साइड, मीथेन गैस भी मिली हुई थीं। इन सबकी उलट−पुलट से प्रोटीन पैदा हुए और उनसे प्राणि जीवन का प्रादुर्भाव हुआ। इस प्रकार जीवन का जन्मदाता पानी को कहा जाय तो कुछ अत्युक्ति न होगी कोई प्राणधारी यहाँ तक कि वृक्ष वनस्पति भी पानी के बिना जीवित नहीं रह सकते।
पानी आखिर है क्या? वैज्ञानिक विश्लेषण के अनुसार उसकी कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं। आक्सीजन का एक और हाइड्रोजन के दो परमाणु मिलने से पानी का एक अणु बनता है। यह एक सम्मिश्रण है स्वतन्त्र तत्व नहीं, जैसा कि कहा और समझा जाता है।
पानी अपेक्षाकृत देर में गर्म होता हैं। उसमें बड़ी मात्रा में गर्मी सोख लेने की क्षमता है। यही कारण है कि जिस बर्तन में पानी गर्म करते हैं वह भरे हुए पानी की अपेक्षा अधिक गर्म होता है। भाप आकाश में उड़कर जब ठण्डी होने लगती है तो अपनी गर्मी हवा को सौंप देती है। उससे उत्तेजित हुई हवा तूफान बन जाती है और भयंकर उपद्रव खड़े करती है।
झील, तालाब, नदी, समुद्र आदि बड़े जलाशय अपने समीपवर्ती वातावरण की गर्मी सोखते रहते हैं और जब वातावरण ठण्डा होने लगता है तो संग्रहित गर्मी को छोड़ने लगते हैं। यही कारण है कि बड़े जलाशयों के आस−पास प्रायः सर्दी−गर्मी समतुल्य बनी रहती है उसमें बहुत अधिक अन्तर नहीं पड़ता। इसके विपरीत जहाँ पानी की कमी है, वहाँ सर्दी−गर्मी के दोनों ही मौसम अपेक्षाकृत अधिक ठण्डे और अधिक गर्म होते हैं। इतना ही नहीं दिन में अधिक गर्मी और रात को अधिक सर्दी भी ऐसे ही इलाकों में पड़ती है। रेगिस्तानी क्षेत्र में दिन में 50 डिग्री सेन्टीग्रेड तक तापमान पहुँच जाता है और रात में शून्य से भी नीचे उतर आता है। पानी न होने के कारण चन्द्रमा पर भी ऐसा ही असन्तुलन है। यदि पानी में अधिक ताप सोखने की शक्ति न होती तो वह सूर्य की गर्मी से कब का उड़ गया होता और भूतल पर उसकी एक बूँद भी दिखाई न पड़ती।
पानी की अपनी यह विशेषता सबसे निराली है कि वह ठण्ड से जमने पर हलका हो जाता है और फैलता है। जबकि अन्य सभी पदार्थ सिकुड़ते हैं। यदि बर्फ पानी से भारी होती तो फिर ध्रुव प्रदेशों की सारी बर्फ समुद्र तली में चली जाती और संसार का नक्शा ही दूसरा होता। तब न बादलों का अस्तित्व होता और न भाप से चलने वाले रेलगाड़ी के इंजन ही बन पाते।
गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध ऊपर की ओर चढ़ दौड़ना पानी की एक और विशेषता है। मिट्टी की निचली परत भीगने पर ऊपर तक सीलन चढ़ आना। जड़ों द्वारा जमीन से खींचा हुआ पानी पेड़ों की ऊपरी सतह तक जा पहुँचना, शरीर में रक्त का नीचे से ऊपर तक दौड़ना इसी विशेषता के कारण सम्भव होता है। पानी में रिसने की शक्ति है और घुलने की। वह इतनी अधिक वस्तुओं को अपने में घुला सकता है जितना अन्य कोई द्रव पदार्थ नहीं। इसी प्रकार वह मिट्टी, पत्थर आदि की दीवारों में अपने लिए जगह बनाता हुआ बाहर निकल आता है और रिसने लगता है। अपने शरीर से पसीना टपकता हुआ हम प्रायः देखते ही हैं।
मनुष्य शरीर में 65 प्रतिशत पानी और 35 प्रतिशत अन्य ठोस पदार्थ हैं। यदि इसमें पाँच प्रतिशत भी कमी पड़ जाय तो शरीर जलने लगेगा और तरह−तरह के रोग उठ खड़े होंगे। पन्द्रह प्रतिशत कमी पड़ जाने पर जो जीवित रह सकना सम्भव ही न होगा। इसी प्रकार यदि मात्रा बढ़ जाय तो भी जीवन संकट खड़ा हो जायगा। शरीर में पानी का सही अनुपात बनाये रहने के लिए मस्तिष्क का हाइपोथैलेमस नामक केन्द्र निरन्तर सजग रहता है। एक−दो प्रतिशत की घट−बढ़ होते ही प्यास लगती है अथवा पेशाब की हाजत होती है।
औसतन मनुष्य के शरीर में प्रायः 100 पौण्ड पानी रहता है। इसमें से 5 पौण्ड पेशाब, पसीने आदि में बाहर निकलता है और इतना ही बाहर से पीना पड़ता है। शरीर का सबसे पतला भाग रक्त है, जिससे 83 प्रतिशत पानी रहता है और सबसे ठोस भाग दाँत हैं जिनमें 2 प्रतिशत ही रहता है।
संसार की सभी सभ्यताएँ बड़ी नदियों के सहारे विकसित हुई हैं। आर्य सभ्यता गंगा−यमुना के दुआवा में फली−फूली। सिन्धु और उसकी सहायक नदियों ने भारत के उत्तर पच्छिम भाग को सभ्यता का केन्द्र बनाया। प्रायः सभी बड़े शहर किन्हीं बड़ी नदियों के किनारे बसे हैं। कृषि, उद्योग, पशु−पालन, मत्स्योद्योग आदि महत्वपूर्ण निर्वाह साधन बिना पानी के सम्भव ही नहीं हो सकते। प्राचीन काल में दुर्भिक्षों के कारण ही अधिक मृत्यु होती थीं और उसका प्रधान कारण वर्षा में कमी हो जाना ही होता था।
पानी नम्रता, सरसता, शीतलता और तरलता का प्रतीक है। मानवी चेतना में यही तत्व सज्जनता और सहृदयता के रूप में भरा पड़ा है। इसके घट जाने पर मनुष्य, नरपशु और सूख जाने पर नारकीय आग में निरन्तर जलने और दूसरों को जलाने वाला प्रेत−पिशाच बनकर रह जाता है।
पदार्थ का भौतिक मूल्य क्या है? लोग उसे कितना कीमती समझते हैं इस आधार पर यथार्थता नहीं परखी जा सकती। किसी वस्तु का वास्तविक मूल्य उसकी उपयोगिता ही हो सकती है। प्रचलन के आधार पर सोना कीमती है, पर जिस धातु के बिना संसार का एक दिन भी काम नहीं चल सकता वह लोहा है। संसार में से सोना चला जाय तो हर्ज नहीं, पर लोहे के बिना तो सारा काम ही रुक जायगा। घी के बिना गुजर है, पर पानी के बिना नहीं। जिसकी जितनी उपयोगिता है वह उतना ही मूल्यवान् है। इस कसौटी पर पानी की गरिमा अत्यधिक है साथ ही उनकी भी जो विश्व की प्रगति में अपनी क्षमताओं को नियोजित करके महामानवों की भूमिका निभा रहे हैं।