अंगदान की परम्परा भी चलेगी

April 1975

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मानव शरीर का मृत्यु के उपरान्त लोकोपयोगी कार्यों के लिए कुछ उपयोग हो सके इसकी परम्परा वेन्थन महोदय ने डाली। उन्होंने वसीयत की थी कि उन्हें कब्र में न गाढ़ा जाय वरन् अस्पताल में चीर−फाड़ करके छात्रों की ज्ञान वृद्धि के लिए दे दिया जाय। उनका अस्थिपंजर भी अध्ययन के लिए सुरक्षित रखा जाय।

जब एक के अंगों को दूसरे के शरीर में लगाने की प्रत्यारोपण पद्धति प्रकाश में आई तो उदार लोगों ने अपने शरीर के हृदय, फेफड़े, जिगर, गुर्दे आदि दान देने आरम्भ कर दिये। यों यह प्रत्यारोपण, एक व्यक्ति के शरीर का कोई अवयव लेकर दूसरे में जीवित स्थिति में भी किया जा सकता है, जैसा कि एक जीवित व्यक्ति का रक्त दूसरे जीवित व्यक्ति को दिया जा सकता है। पर यह कार्य काफी कठिन है इसमें देने वाले को अधिक क्षति उठानी पड़ती हैं और यह खतरा भी रहता है कि यदि आपरेशन सफल न हुआ तो यह या दोनों पक्षों को बहुत घाटा पड़ सकता है।

अस्तु यह अधिक उपयुक्त समझा गया कि ‘मृत्यु’ के उपरान्त उदार व्यक्ति दूसरे जरूरतमंदों को अपने अवयवों का दान कर दें। इसके लिए ‘मृत्यु’ की परिभाषा इतनी ही पर्याप्त मानी गई हैं कि मस्तिष्क की गतिविधियों के विद्युत रेखाचित्र खिंचने बन्द हो जायं और उसे गतिहीन घोषित कर दिया जाय। यदि मुर्दा कुछ अधिक देर पड़ा रहा तो वह सड़ने लगेगा और उसके विषाक्त अवयव किसी काम के न रहेंगे।

उपरोक्त स्तर की मृत्यु घोषित होते ही मृत शरीर को तत्काल ऐसे उपकरणों में जकड़ दिया जाता है कि वह फाड़−चीड़ करने में लगने वाले समय तक सड़न से बचा रहे। इसके लिए तत्काल मृत शरीर के हृदय को मशीन द्वारा ऑक्सीजन मिला हुआ रक्त देना आरम्भ कर दिया जाता है ताकि उसके कोष, ऊतक और स्नायु कठोर न होने पायें।

ऐसे एक विशेष अनुदान का उल्लेख अंग प्रत्यारोपण के प्रसंगों में अविस्मरणीय है। इसमें सर्वांग दान किया गया था। न्यूयार्क के एक 57 वर्षीय नागरिक ने अपना शरीर न्यूयार्क मेमोरियल अस्पताल को दे दिया। वह कष्टसाध्य रोग से पीड़ित था और मरना लगभग निश्चित था। ऐसी दशा में भी इतना दान साहस भी कम सराहनीय नहीं था।

मृत्यु से पहले ही डाक्टरों ने यह जाँच करली थी कि उसका कौन−सा अंग प्रत्यारोपण के उपयुक्त है। साथ ही यह भी निश्चित कर लिया गया था कि उसका कौन−सा अंग किस रोगी को लगाया जायगा। उसकी पूरी तैयारी करके रखीं गई ताकि बिना समय गँवाये तत्काल वह कार्य सम्पन्न किया जा सके।

20 फरवरी की शाम को उस व्यक्ति की मृत्यु हुई। डा0 जैक ब्लाक, डा0 जैरी ने कुछ ही मिनटों में उसका दिल निकाल लिया और उसे 36 वर्षीय एक हृदय रोगी का दिल निकाल कर उसकी जगह यह नया दिल फिट कर दिया गया। जिगर एक 27 वर्षीय यकृत केन्सर की मरीज महिला को लगा दिया गया। दो गुर्दों में से एक 29 वर्षीय युवक के और एक 38 वर्षीय स्त्री के शरीर में लगाया गया। दो आँखों में से एक को एक तरुण की और एक को एक वृद्ध की आँखें में से एक को एक तरुण की और एक को एक वृद्ध की आँखों में फिट किया गया।

प्रत्यारोपण विशेषज्ञा डा0 एडवर्ड वीटो और डा0 लिल्लेहाई ने खोज करके बताया है कि मनुष्य शरीर के 27 अवयव ऐसे है जो एक से निकाल कर दूसरे के शरीर में लगाये जा सकते हैं, इस प्रकार एक मुर्दा सत्रह जरूरतमन्दों की आवश्यकता पूरी करते हुए अपनी मृत्यु को भी सार्थक बना सकता है।

मानवी उदारता निकट भविष्य में न केवल अपना धन, बुद्धि, वैभव, श्रम लोक−मंगल के लिए समर्पित करेगी वरन् जीर्ण−शीर्ण अंग अवयवों को भी अधिक जरूरतमंदों को देने की पुण्य परम्परा प्रचलित करेगी, ऐसे उत्साह वर्धक चिन्ह अभी से दीख पड़ रहे हैं।


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