मनुष्यों के बीच पाई जाने वाली भिन्नता और उसका विश्लेषण

April 1975

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जीवित रहने और मरने का बाहरी तरीका प्रायः सभी मनुष्यों का एक जैसा रहता है। किन्तु उद्देश्य में अन्तर आ जाने से जीवन का स्वरूप बदल जाता है और मृत्यु का स्तर भी। निरुद्देश्य जीवन और मरण कूड़े−करकट की तरह निरर्थक एवं भारभूत रहता है जबकि उद्देश्यपूर्ण जीवनयापन ऐतिहासिक बनता है और उससे मानवता को धन्य बनने का अवसर मिलता है।

सभी मनुष्य समान रूप से पेट भरते, वस्त्र पहनते, घरों में रहते, रात में सोते, मल त्याग करते हैं। शरीर की पाचन प्रणाली से लेकर श्वास प्रक्रिया तक विभिन्न क्रिया−कलापों का स्तर भी प्रायः एक जैसा ही रहता है। शरीरों की बनावट में भी कोई बहुत अधिक अन्तर नहीं होता। जन्मते भी माता के उदर से हैं और हृदय की धड़कन रुकने पर मरते भी सब एक ही तरह है। जन्म के समय असुविधा और मरण के समय कष्ट भी सभी को एक जैसा होता है। बचपन, जवानी, बुढ़ापा और मौत का क्रम भी एक समान रहता है। इतने पर भी एक जहाँ नर−पिशाच या नर−पशु जैसी जिन्दगी जीता है वहाँ दूसरा नर देव अथवा नर−नारायण बनकर रहता है। स्वयं महान बनता है और असंख्यों को अपनी महानता की नाव पर बिठाकर पार करता है। इस आकाश−पाताल जैसे अन्तर को देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है और यह जानने की इच्छा होती है कि जब जीवनयापन की पद्धति सब सन्त−असन्तों की एक जैसी होती है तो यह असाधारण अन्तर किस प्रकार उत्पन्न हो जाता है।

निरुद्देश्य जीवन पशु स्तर का है। शरीर के साथ संलग्न भूखे प्रायः मस्तिष्क को सोचने और शरीर को श्रम करने के लिए विवश करती हैं। जड़−पदार्थों में यह भूखे अत्यन्त स्वल्प होती हैं इसी के वे न कुछ सोचते हैं जिसे हम ‘जड़’ कहते हैं। यों पूर्णतया जड़ तो इस जगत में एक कण भी नहीं हैं। चेतन प्राणियों की तुलना में अत्यन्त चेतना रहने से ही उन पदार्थों को जड़ की संज्ञा दी गई है।

प्राणी की भूखे दो है। सक्रियता बनाये रहने वाली ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए आहार प्राप्त करने का प्रयत्न करना, यह शरीर की प्रथम भूख है। सृष्टि में प्राणियों की वंश परम्परा मिट न जाय, इसलिए प्रकृति प्रदत्त कामुकता की भूख को दूसरी आवश्यकता कह सकते हैं, जो जन्म के साथ तो नहीं होती, पर पीछे प्रौढ़ावस्था आने पर अनायास ही उत्पन्न हो जाती हैं। इसे मानसिक भूख कह सकते हैं। शरीर को क्षुधा पूर्ति की और मन को काम तृप्ति की आकाँक्षा प्राणियों में सहज ही रहती है। इसके लिए किसी को कुछ चिन्तन नहीं करना पड़ता।

प्राणी की जीवन रक्षा और उसकी वंश प्रवाह जारी रखने की दृष्टि से प्रकृति ने प्राणियों को यह दो प्रेरणाएँ दी हैं। इन्हीं से प्रेरित होकर वे घड़ी के पेंडुलम की तरह इधर−उधर हिलते हैं− भाग−दौड़ करते हैं−सोचते−विचारते हैं और सचेतन एवं सक्रिय दीखने वाली जिन्दगी पूरी कर लेते हैं। कीट−पतंगों से लेकर पशु−पक्षियों तक प्रायः सभी प्राणी इन्हीं दो आकाँक्षाओं से प्रेरित होकर विविध हलचलें करते दिखाई पड़ते हैं। मनुष्य भी इसी प्रवाह में बहता रहता है।

मनुष्य में अन्य प्राणियों की तुलना में एक विशेष क्षमता है जिसे ‘मनन’ कहते हैं। मनन करने वाले प्राणी को ही ‘मनुष्य’ कहा गया है। मनन उसे कई नये प्रश्नों पर सोचने के लिए विवश करता है। अन्य प्राणियों से ऊँचे स्तर की इन्द्रियाँ और चेतना उसे किस प्रयोजन के लिए मिली? और उनका सही सदुपयोग क्या हो सकता हैं? इन प्रश्नों पर गहराई से विचार करने पर इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि जो अन्य प्राणियों को नहीं मिला वह उसे अतिरिक्त रूप से उपलब्ध है तो अवश्य ही उसके साथ कुछ विशिष्ट उत्तरदायित्व भी जुड़ा होना चाहिए। यदि एक प्राणी को अन्य सभी की तुलना में अधिक ऐश्वर्य एवं उपभोग के साधन नियामक सत्ता देती तो स्पष्ट ही एक भारी अन्याय होता और फिर सृष्टि के समस्त प्राणी उस पक्षपात से रुष्ट होकर नियामक सत्ता को कोसते।

मनुष्य को सोचने, बोलने पढ़ने जैसी शारीरिक सुविधाओं से लेकर प्रकृति की वस्तुओं और शक्तियों का परिपूर्ण उपभोग करने की सुविधा प्राप्त है। यह असाधारण अनुदान न तो अनायास ही मिला है और न अकारण ही। सृजेता की इच्छा है कि यह विशिष्ठ सुविधा सम्पन्न मानव प्राणी अपनी गतिविधियों का निर्धारण एक ऐसे उच्च उद्देश्य के लिए करे तो पेट और प्रजनन के पशु प्रयोजनों ये ऊँचा हो। यह उद्देश्य अपनी चेतना को उच्चतम स्तर तक विकास करना और क्रिया−कलाप को अधिकाधिक लोकोपयोगी बनाना ही होता है।

उत्कृष्ट चिन्तन के आधार पर बने सुसंस्कृत व्यक्तित्व अपने आप में प्रकाश स्तम्भ जैसे महान होते हैं उनकी गतिविधियाँ दूसरे के लिए प्रेरणाप्रद एवं अनुकरणीय बनती हैं। मानव समाज को आदर्शवादिता के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देना इतना महान कार्य है कि उसका प्रतिफल चेतन और जड़ जगत में स्वर्गीय सुख−शान्ति और शोभा सौंदर्य के रूप में सामने आता है। यही है मानव जीवन का विशिष्ट प्रयोजन जिसे असाधारण अनुदानों के साथ नियन्ता ने असामान्य उत्तरदायित्व के रूप में उसके कन्धे पर छोड़ा हैं।

मनन शक्ति का जिसमें विकास हुआ वस्तुतः वही मनुष्य है। नर जन्म का स्वरूप, प्रयोजन और उपभोग क्या हो सकता है−क्या होना चाहिए इसके तलाश करने में चिन्तन शक्ति की तत्परता को ‘मनन’ कहते हैं। मनन के आधार पर आत्म−बोध होता है और आत्मा के अस्तित्व को−गौरव को अनुभव करते हुए उसकी क्षुधा पूरी करने की आकाँक्षा जागृत होती हैं। जबकि अविकसित प्राणी पेट और प्रजनन के साधन जुटाने की परिधि से आगे की बात सोच ही नहीं सकते। उनके भीतर मात्र प्रकृति प्रेरणा ही काम करती हैं। उन्हें मनुष्य जैसा उत्कृष्ट चिन्तन तन्त्र मिली ही नहीं जिसके आधार पर मनन कर सकना सम्भव हो सके जो अभिनव उद्देश्य की पूर्ति के लिए तड़पन उठा सके।

प्रकृति ने मनुष्य को उत्कृष्ट स्तर का तन्त्र प्रदान किया। उसका गौरव इसी में है कि उस अनुदान की सार्थकता सिद्ध करे और कृमि−कीटकों से ऊँचे स्तर की जिन्दगी जीकर दिखाये। यह उत्कृष्टता उपभोग की नहीं हो सकती। जैसा कि असंख्य नर−पशु सोचते हैं। अन्य प्राणी प्रकृति प्रदत्त कच्चा आहार करते हैं। मनुष्य उसे पका कर स्वादिष्ट बनाकर खाता है। अन्य प्राणी निर्लज्ज काम−सेवन करते हैं, मनुष्य उसे कलात्मक बनाकर कुछ अधिक रस लेता है। कीट−पतंग उतना उपार्जन ही पर्याप्त समझते हैं। जिससे पेट भर जाय, मनुष्य आगे के लिए संग्रह करता है। इसे विकसित क्षुधा प्रयोजन का अर्थ उपार्जन कह सकते हैं।

दूसरे प्राणी कामकौतुक करके घोंसले या माँदें बनाते और बच्चे के बड़े होने तक उसके पोषण−रक्षण का प्रबन्ध करते हैं। मनुष्य विवाह करता−परिवार बसाता और उसके लिए सुविधा साधन जुटाता है। इसे विवाह विस्तार कह सकते हैं।

अर्थ संग्रह और विवाह विस्तार को विद्वानों ने लोभ और मोह का नाम दिया है। पाशविक प्राणि−प्रेरणाओं को थोड़े अच्छे ढंग से प्रयुक्त कर लेना−उपभोग को थोड़ा अधिक सरस बना लेना ही मानव जीवन का उद्देश्य, उपभोग आमतौर से समझा जाता है और उतना ही कुछ लोग सोचते, करते हैं। मनन परायण व्यक्ति अनुभव करता है कि यह प्रचलित लोक−प्रवाह मानव जीवन के गौरव को सार्थक नहीं बनाता। यह तो मात्र पाशविक प्रयोजनों की ही पूर्ति हुई।

मननशील व्यक्ति का निष्कर्ष यह होता है कि अपनी चेतना में उत्कृष्ट चिन्तन का समावेश किया जाय और अपनी कार्य−पद्धति के साथ आदर्शवादी क्रिया−कलाप जोड़ कर रखा जाय। दोनों के समन्वय का नाम है परिष्कृत व्यक्तित्व। आत्मा को इसी स्तर पर पहुँचने की आकुलता रहती है। उसका निर्माण जिन तत्वों से हुआ है वे इससे कम ऊँचाई पर रहकर सन्तुष्ट ही नहीं हो सकते। मनन के फलस्वरूप जब यह विश्वास होता है कि हमारा अस्तित्व मात्र काया तक सीमित नहीं हैं वरन् उससे ऊँची उठी कोई आत्मसत्ता भी विद्यमान है, तो यह भी निश्चित करना पड़ता है कि आत्मा की क्षुधाएँ समझने और उसकी पूर्ति के लिए भी प्रयत्न किया जाना चाहिए। जिस प्रकार शरीर की भूख पेट और प्रजनन की−लोभ और मोह की गतिविधियों के साथ तृप्ति का अनुभव करती है, उसी प्रकार आत्मा का सन्तोष परिष्कृत व्यक्तित्व के साथ जुड़े रहने वाले उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की परिधि में ही सम्भव होता है।

मननशील व्यक्ति शरीरगत पशु प्रवृत्तियों के समाधान तक अपने चिन्तन और कर्तृत्व को अवरुद्ध नहीं करता वह उसका स्तर ऊँचा उठाता है। आत्म−निरीक्षण, आत्मसुधार, आत्म−निर्माण और आत्म−विकास की बात सोचता है। इसका प्रयोजन केवल इतना ही है कि सोचने और करने के घटिया स्तर को ऊँचा उठाकर वैसा बनाया जाय जिससे मानवता गौरवान्वित हो− आत्मा को सन्तोष मिले और व्यक्तित्व को देव स्तर का विकसित हुआ माना जाय।

यह चिन्तन प्रक्रिया समुद्र मंथन जैसी आन्तरिक हल−चल उत्पन्न करती है और इस नतीजे पर पहुँचाती है कि नियन्ता के अनुदान को सार्थक बनाया जाय। मानव−जीवन की गरिमा को मूर्तिमान किया जाय, ऐसा निर्णय जब गंभीरतापूर्वक किया जाता है तो उसी मार्ग पर चलने का साहस भी उत्पन्न होता है और पुराने ढर्रे की आदतें, प्रेरणाएँ छोड़ने में देर नहीं लगती। उस मार्ग पर अग्रसर होने से रोकने वाले अवरोध एवं परामर्श भी तब निस्सार प्रतीत होते हैं और उनके सामने झुकने में उतनी ही लज्जा अनुभव होती है, जितनी कि पशु स्तर के मनुष्यों को आदर्शवादी रीति−नीति अपनाने में झिझक लगती हैं।

चिन्तन का स्तर ही मनुष्य के व्यक्तित्व, गौरव, अस्तित्व एवं क्रिया−कलाप के अस्तर में जमीन−आसमान जैसा अन्तर उत्पन्न करता है। बाह्य दृष्टि से मानव प्राणियों के बीच बाह्य क्रिया−कलाप का अन्तर नगण्य जितना ही होता है। सन्त−असन्त−निकृष्ट और महान−खाते−सोते एक ही तरह है, पर उनका चिन्तन एवं किया−कलाप भिन्न दिशाओं में चलता है−भिन्न प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त होता है। नर−पशुओं के लिए इतना ही पर्याप्त है कि इन्द्रियजन्य वासनाओं और मनोजन्य तृष्णाओं की एक सीमा तक पूर्ति कर सकें। अर्थ संग्रह एवं परिवार विस्तार में एक हद तक सफल हो सकें। पेट और प्रजनन के प्रयोजनों में निरत रहना उनकी कामनाओं को पूर्ण करने के लिए आवश्यक भी रहता है और पर्याप्त भी।

किन्तु मनन परायण विवेकवान व्यक्ति गहराई में उतरते हैं और दूर की सोचते हैं उन्हें उदरपूर्ति और कामतृप्ति जैसे क्षुद्र लाभ अपर्याप्त लगते हैं। मानवी गरिमा का स्वरूप और लक्ष्य समझ में आ जाने से वे निरन्तर उस महानता की ओर अग्रसर होते हैं; जिसे मनीषियों ने आध्यात्मिकता का नाम दिया है। उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व मनन मंथन की महानतम उपलब्धि है। आत्म−बल का उदय इसी पृष्ठभूमि पर होता है और उसी के प्रकाश में ऐसा नीति निर्धारण बन पड़ता है जिसे देवोपम कहा जा सके। मनुष्य मनुष्यों के बीच पाई जाने वाली निष्कृष्टता और महानता की भिन्नता का यही है आन्तरिक विवेचन−विश्लेषण।


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