दो आदमी थे उनके समाने दो पत्थर रखे थे।
एक ने सामने के पत्थर को देखा। हाथ जोड़े। मन रोक और ध्यान के लिए आंखें मूँद ली। पत्थर भी उसी मुद्रा में निस्तब्ध पड़ गया।
दूसरे ने आँख खोली। मन को उछाला और छैनी हथौड़े हाथ में लेकर पत्थर की देव प्रतिमा गढ़ने लगा।
वह लगातार लगा रहा। मूर्ति बन कर तैयार हो गई। सुन्दर अति सुन्दर। दर्शकों का ताँता लग गया कलाकार की कला को मुक्त कंठ से सराहा गया। अन्ततः किसी श्रद्धालु ने उसे खरीदा और विशाल देवालय बनाकर उस प्रतिमा की प्रतिष्ठापना कर दी।
पहले आदमी का पहला पत्थर अभी भी जहाँ का तहाँ उसी ऊसर जमीन में पड़ा था। भक्त का हाथ जोड़ना-आंखें मूँदना और मन को रोकना अभी भी उसी क्रम से चल रहा था।
एक दिन वे दोनों व्यक्ति मिले। अपने-अपने आराध्य की चर्चा करने लगे। एक ने जड़ता की शिकायत की और दूसरे ने प्रगति का हर्ष संवाद सुनाया।
उसी रात्रि उन पत्थरों की आत्मायें भी भेंट का अवसर पा गई। एक ने भक्त की जड़ता पर दुःख प्रकट किया और दूसरी ने क्रियाशील श्रद्धा को मुक्त कंठ से सराहा।