धर्म का अन्तःकरण और आवरण

April 1975

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वैसे तो सृष्टि ही हर वस्तु का उसका अपना धर्म हैं। सूर्य का धर्म प्रकाश प्रदान करना तो चन्द्रमा का धर्म शीतलता प्रदान करना है। पर जड़−जंगम में संव्याप्त इस धर्म से हटकर एक धर्म और है जो मानव चेतना के स्तर को छूता है। वस्तुतः मानव धर्म की जब चर्चा होती है तब धर्म एक विशिष्ट परिवेश में सामने आती हैं। वैसे चेतना तो अन्य प्राणियों में भी है पर इस धर्म का सम्बन्ध मानव चेतना से ही विशेष रूप में हैं। इस धर्म−भावना ने ही मानव को मानव−संज्ञा से विभूषित कराया हैं।

‘धर्म−निरपेक्षता’ शब्द में एक भ्रान्ति प्रवेश कर गई है। धर्म को मजहब, सम्प्रदाय का पर्यायवाची मान लिया गया है। परिणामतः धर्म शब्द की गरिमा संदिग्ध हो गई

जहाँ हर मानव को धार्मिक कहलाने में गर्व का अनुभव करना चाहिए, वहाँ धार्मिक कहलाना संकोच का विषय बन गया है, आशंका का हेतु बना गया है।

वस्तुतः धर्म जीवन की वह रीति−नीति है जो कि मनुष्य को मानव बनाकर खड़ा कर देती है। धर्म धारण करने की वस्तु है। तभी धर्म मानवीय तत्वों के संरक्षण में कुछ महत्वपूर्ण अनुदान दे सकता है। “धर्मों रक्षति रक्षितैः’ इसीलिये सृष्टि निर्माण में मानवीय चेतना के प्रादुर्भाव के साथ ही साथ कर्तव्य अकर्तव्य की भावना ने सामाजिक प्राणी मानव के सामने धर्म का रूप प्रस्तुत कर दिया धर्म−भावना ईश्वरवादी दृष्टि से भी ऊँची है। रूस जैसा अनीश्वरवादी राष्ट्र भी अधार्मिक होकर जी नहीं सकता, क्योंकि मानव मात्र के कल्याण के लिए जो कुछ भी सम्भव हो सकता है वह सब मानव धर्म की सीमाओं में रहकर ही।

मनुष्य का धर्म यही है कि वह अपने बाह्य−व्यवहार एवं आन्तरिक वृत्तियों का परिशोधन कर अपने मूल रूप को जीवन में व्यक्त करे। यही शुद्ध स्वरूप ज्ञान “आत्मवत् सर्वभूतेषु” की श्रेष्ठतम भावनाओं को स्फुटित कर लोक मंगल को सहज साध्य बना सकता है।

स्थूल−स्तर पर हम धर्म को दो रूपों में दे सकते हैं। एक वह रूप जो देश, काल, पात्र के अनुरूप आचार संहिता प्रस्तुत करता है और आवश्यकता अनुसार यथोचित परिवर्तन के साथ लोक मंगल की दिशाएँ, सक्रिय बनाता रहता है। धर्म का यह रूप देश, काल, पात्र सापेक्ष होता है।

जिस देश में जलाभाव हो वहाँ सप्ताह में एक बार नहाना भी धार्मिक−कृत्य हो सकता है और जहाँ प्रकृति ने हर दिशा में जल राशि बिखरा रखी हो, वहाँ स्वास्थ्य संरक्षण के लिये प्रतिदिन स्नान करना धार्मिक कृत्य होगा ही। गरमी में जो वस्त्र काल−धर्म के प्रतीक होंगे वे शीत ऋतु में नहीं। इसी प्रकार पात्रानुसार धर्म−आचरण अपने आप में एक तथ्य है।

एक निरन्तर माँस भक्षण पर ही जीवित रहने वाले व्यक्तियों से माँस छुड़ाने का कार्य असम्भव सा लगता है महावीर स्वामी द्वारा कौवे का माँस छोड़ देने में धर्म बताकर माँस छोड़ने के शुभारम्भ की विधि के रूप में धार्मिक−प्रेरणा दी है। बहुविवाह ग्रसित समाज पर अंकुश लगाने हेतु मात्र चार विवाह को ही धार्मिक कृति बताकर मोहम्मद साहब ने धार्मिक आवरण का शुभारम्भ ही कराया था। धर्म का दूसरा रूप धर्म के मूल तत्वों से सम्बन्धित है जो शाश्वत है, अपरिवर्तनीय है। यह है मानव की आध्यात्मिक शक्तियों का उस चरम बिन्दु तक विकास जहाँ धरती पर स्वर्ग और मनुष्य में देवत्व का अवतरण हो जाता है। अर्थात् मानव का बाह्य आचरण एवं आन्तरिक विचारणा मानव मात्र के कल्याण की दिशा में उन्मुख हो जाते हैं। धर्म का यह स्वरूप सार्वभौमिक, सार्वकालिक एवं सर्वजनीन होता है। यहीं आकर मानव मात्र “वसुधैव कुटुम्बकम्” की उदात्त भावना−स्थली पर बिहार करने लगता है। धर्म के इस शाश्वत स्वरूप को कौन नकार सकता है।

बेईमान भी ईमानदार साथी चाहता है, विश्वासघाती भी विश्वासपात्र मित्र चाहता है, आचरणहीन पति−पत्नी भी आचरणावन पत्नी−पति चाहते हैं। इन्हीं सर्वमान्य विभूतियों का विकास धर्म का मूल स्वरूप है, पावन उद्देश्य है। यह धर्म वर्तमान को ही सब कुछ मानकर नहीं चलता, अपितु अतीत और आगत को वर्तमान के श्रेष्ठतम आचारों की शृंखला जोड़ता चलता है। यही उसकी शाश्वतता है।

लेकिन दुर्भाग्य से मानव धर्म के मूल तत्व भी देश, काल, पात्र की−संकुलित सीमाओं में बाँधकर साम्प्रदायिक−संकट का कारण बना दिये गये हैं। हम यह भूल जाते हैं कि सृष्टि के प्रारम्भ में मानवीय चेतना में उद्भूत ईश्वरीय प्रेरणा जन्य ज्ञान की पुस्तक ‘ऋग्वेद’ को एक से चार क्यों होना पड़ा? वैदिक कालीन जीवन क्रम के बीच बुद्ध और महावीर को क्यों अवतरित होना पड़ा? इसी क्रम की बढ़ती शृंखला में आचार्य शंकर को धर्म−विजय के लिये प्रयाण क्यों करना पड़ा? इन सारे प्रश्नों के उत्तर देश, काल, पात्र की आवश्यकता के परिवेश में सहज ही दिये जा सकते हैं, सब ही श्रद्धा से सम्मानित किये जा सकते हैं, सब ही श्रद्धा से सम्मानित किये जा सकते हैं। पर हमने विवेक को तिलाञ्जलि दे मानव धर्म को मजहब एवं सम्प्रदाय के शिकंजे में फँसने दिया और अनिष्टकर स्थिति पैदा करते चले गये।

सर्वजनहिताय, सर्वजनसुखाय के सन्देशवाहक मानव धर्म को हमने स्थूल धार्मिक−क्रिया−कलापों की अपनी−अपनी सीमाओं में बाँध, धर्म की इतिश्री मान ली और अपनी सहज धार्मिक वृत्ति को थोड़ी सन्तुष्टि दे, धर्म−आचरण से मुख मोड़ लिया।

वस्तुतः धर्म का और नैतिकता का कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है, इसे हमें न समझ सके। हमने धर्म क्षेत्र और कर्म क्षेत्र को अलग−अलग करके मानव जीवन को खण्डित करके रख दिया। हमारी इस धर्म की सत्ता ने जहाँ हमसे निर्दयता पूर्वक पशु−बलि तक करवा डाली, वहाँ हमारे आत्मबल को निर्बल बनाकर दया के नाम पर अन्याय, अनाचार के सामने समर्पण करने का आदी बना दिया।

ऐसी ही निर्बल−दया ग्रसित अर्जुन के कठोर कर्त्तव्य से विमुख होने पर योगिराज श्रीकृष्ण ने ‘अश्रु पूर्णा कुलेक्षणम्’ एवं ‘विषीदन्तम्’ की आकुल−व्याकुल मनःस्थिति की भर्त्सना करते हुये ‘कृपया परमाविष्टः’ की हीन वृत्ति को पाप बताया है। वास्तविक मानव धर्म नैतिक बनने की प्रेरणा देता है, साहसी बनने की स्फुरणा देता है। तभी हम गीता का उपदेश सुनने की अपेक्षा किसी द्रौपदी के चीर हरण की रक्षा में सन्नद्ध हो सकते हैं। धार्मिकता जन्य इसी नैतिक साहस में मानव कल्याण के लिये उत्सर्ग कर सकने की क्षमता है मानवीय एकता की ममता है।

ऐसे मानव धर्म के प्रचार−प्रसार एवं पुनः स्थापना के लिये “नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः” के गुणों से परिवेष्टित आत्मबल को जंगलों, गुफाओं, कुटियों, मन्दिरों से बाहर निकाल कर खेतों, खलिहानों, कलों−कारखानों, कार्यालयों, न्यायालयों, झोंपड़ियों, महलों में लाना होगा और उसे मानवीय पीड़ाओं का अनुभव कराना होगा। तब कहीं मानव−वेदना से पीड़ित आत्म−बल लोक मंगल के लिए ‘भर्तृहरि’ के कथन को साकार करने का साहस जुटा सकेगा। “चाहे नीति−निपुण लोग निन्दा करें या प्रशंसा, चाहे लक्ष्मी आये या जहाँ उसकी इच्छा हो चली जाये, मृत्यु आज हो या सौ वर्ष बाद, धीर पुरुष तो वह है जो न्याय के पथ से तनिक भी विचलित नहीं होता।”

समस्त आत्माओं की पीड़ा अनुभव कर उनके यथासामर्थ्य त्राण हेतु अथक पुरुषार्थ ही मानव धर्म हैं। ऐसा धर्म हमारे बिखरे व्यक्तित्व को सुसंगठित करता है, हमारी सम्पूर्ण आत्मस्थ−शक्तियों का सर्वांगीण विकास करता है। हमें शिव से शिवत्व की ओर ले जाता है और हमारी सर्वशक्तिमत्ता की अनुभूति करा हमें नर से नारायण बना देता है।

फिर मजहब, सम्प्रदाय, पन्थ, ग्रन्थ सब अपने सीमित ‘स्व’ को इस धर्म के ‘स्व’ में समर्पित कर अभिन्न हो जाते हैं, अद्वैत हो जाते हैं और लोक मंगल मानव जीवन में सहज साधक हो जाता है, परम आराध्य हो जाता है। धर्म की इस उदात्त पृष्ठभूमि पर आते ही नास्तिकता अपने ही अस्तित्व को नकारने का नाम हो जाती हैं। क्योंकि नास्तिकता ईश्वर पर अविश्वास नहीं अपितु स्वयं पर ही अविश्वास है।


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