जल की बूँद (kahani)

April 1975

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जल की बूँद अथाह सागर में गिरी तो सुवक कर रोने लगी। अपना अस्तित्व में क्यों मिटाऊँ? समर्पण के झंझट में मैं क्यों पड़ूं? ‘अहं’ को खोने पर मेरे पास बच ही क्या रहेगा?

पृथक व्यक्तित्व के लिए रुदन करती हुई जल बिन्दु को अधीरता समझी तो सागर बोला-’भद्र’। तुम समाप्त कहाँ हो रही हो-एकाकीपन से अपने जैसे ही अगणित भाई-बहनों के समन्वय में सम्मिलित हो रही हो। मैं तुम सबका सम्मिलित स्वरूप ही तो हूँ। अलग से तो मेरी भी सता नहीं।

बूँद का समाधान नहीं हुआ। वह पृथक अस्तित्व की रट लगाये ही रही। सागर ने उसके बचपन को समझा तो सूर्य के साथ उसे जहाँ चाहे वहाँ रहने के लिये भेज दिया।

बूँद को भाप होकर उड़ना पड़ा। बदली बनी। वर्षों के साथ जमीन पर गिरी और रज-कणों ने उसे सोख लिया। स्वतन्त्र अस्तित्व फिर खतरे में पड़ गया तो जलबिन्दु का रुदन फिर आरम्भ हो गया।

पवन ने बच्ची को मचलते देखा तो रुक गया और कहा-नादान, यह जगत समन्वय और समर्पण की धुरी पर भ्रमण कर रहा है तू अकेलेपन की अहंता लेकर यहाँ कहाँ रह सकेगी? कैसे जी सकेगी?


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