सुखी दाम्पत्य जीवन इस तरह बनता है।

April 1975

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सुख के साधनों के साथ स्नेह, प्रेम और आत्मीयतापूर्ण भावनाओं के सम्मिश्रण को ही स्वर्ग कहा जा सकता है। यह स्वर्ग हमारे घर में ही मौजूद है, हम भले ही न देख पाते हों, यह स्वर्ग है− दाम्पत्य−जीवन का सुख, किसी ऊपर वाले स्वर्ग से कम सरस, सुखद और रुचिपूर्ण नहीं हैं।

इस स्वर्ग को बनाने के लिये पति−पत्नी को अपने कर्त्तव्यों का पालन करना होगा, हम अपने कर्त्तव्यों का पालन करके ही अपने घर को स्वर्ग बना सकते हैं, यह कर्त्तव्य कई प्रकार के होते हैं।

दाम्पत्य−जीवन का महत्व मनुष्य की अनेकों कोमल एवं उदार भावनाओं, विचारशीलता तथा सद्वृत्तियों पर खड़ा होता है। स्नेह, आत्मीयता, त्याग, उत्सर्ग, सेवा, उदारता आदि अनेकों दैवी गुणों पर दाम्पत्य−जीवन की नींव लगती हैं।

दाम्पत्य−जीवन यथार्थ की धरती पर कर्त्तव्य और उत्तरदायित्व का सम्मिलित रूप है। जो स्त्री और पुरुष के परस्पर स्नेह, आत्मीयता, त्याग, बलिदान, जीवन की कठोरताओं और शुष्क−मरुभूमियों को भी सींचकर उन्हें सरस और स्वर्गीय बना देता है। अनेकों कठिनाइयों में भी इस सम्मिलित प्रयास से पग−पग पर नई आशा, नई उमंग, नई प्रेरणा जगी रहती है। पुरुष नारी की सरलता, सहिष्णुता, त्याग, सेवा से सशक्त बना रहता है तो नारी पुरुष के स्नेहपूर्ण, संरक्षण, आत्मीयता, आदर−सम्मान को पाकर सबला, देवी, गृहिणी के रूप में प्रतिष्ठित होती हैं।

पति−पत्नी की परस्पर आलोचना दाम्पत्य−जीवन के मधुर सम्बन्धों में खटास पैदा कर देती है। इससे एक दूसरे की आत्मीयता, प्रेम, स्नेहमय आकर्षण समाप्त हो जाता है। कई व्यक्ति अपनी पत्नी की बात−बात पर आलोचना करते हैं। उनके भोजन बनाने, रहन−सहन, ओढ़ने−पहने, बोल−चाल आदि तक में नुक्ताचीनी करते हैं। इससे स्त्रियों पर दूषित प्रभाव पड़ता है। पति की उपस्थिति उन्हें बोझ−सी लगती हैं वे उनकी उपेक्षा तक करने लगती है। इसी तरह स्त्रियों द्वारा पति की उपेक्षा आलोचना करना भी इतना ही बुरा है। पुरुषों को अपने काम से थक कर घर आने पर, उसे घर में प्रेम एवं उल्लास का समुद्र लहराता यदि मिले तो उनकी दिनभर की थकान, क्लाँति, परेशानी उसमें घुल जाती है। इसके स्थान पर यदि पत्नी की कटु आलोचना, एवं व्यंग्यबाण का सामना करना पड़े तो उस व्यक्ति की क्या दशा होगी इसका अनुमान तो कोई भुक्तभोगी ही लगा सकता है।

पति−पत्नी की एक−दूसरे के प्रति कट्टरता और अविश्वास की भावना भी गृहस्थी को नष्ट−भ्रष्ट कर देती है। जब पति−पत्नी एक−दूसरे के चरित्र, व्यवहार, रहन−सहन पर सन्देह करने लगते हैं तो पारस्परिक मधुर सम्बन्धी के बीच गहरी खाई पैदा हो जाती है और वह धीरे−धीरे बढ़ती जाती हैं। इससे दाम्पत्य−जीवन की सुख−शान्ति तो नष्ट होती ही है कालाँतर में घृणा, अलगाव, असहयोग, झूँठ बोलना, धोखेबाजी के रूप में अनेक दुर्भावनाओं की सृष्टि होती है। वस्तुतः परस्पर सचाई, नम्रता, सहिष्णुता और उदारतापूर्ण क्षमा से ही दाम्पत्य−जीवन निभता है।

सफल दाम्पत्य−जीवन के लिए परिष्कृत भावनायें और परिमार्जित दृष्टिकोण आवश्यक है। स्त्री−पुरुष के स्वभाव मिलते हों, एक−दूसरे के लिए आत्म−दान की भावना हो तो अल्प साधन, कम शिक्षा और स्वल्प सौंदर्य वाले दम्पत्ति भी मस्ती का, हँसी−सुखी का जीवन जी सकते हैं। विवाहों में जो कर्मकाण्ड आदर्श और संस्कार डालते जाते हैं उनका उद्देश्य भावनात्मक दृष्टि से स्त्री और पुरुष को चारों ओर से खींचकर एक केन्द्रबिन्दु पर लाना ही होता है। जिन घरों में उन आदर्शों पर अमल होता है वहाँ आमोद−प्रमोद, हास−विलास का जीवन सदैव उभरता हुआ रहता है। उन घरों में स्वर्ग जैसी परिस्थितियों का रसास्वादन किया जाता है।

सन् 1912 की घटना है, एक टाइटैनिक नामक अँग्रेजी जहाज समुद्र में डूब रहा था। कर्मचारी लाइफ बोटों द्वारा आवश्यक सामान और व्यक्तियों को बचाने का प्रयत्न कर रहे थे श्रीमती इसाडोर और श्री स्टास नाम का एक जोड़ा उस जहाज में यात्रा कर रहा था। लाइफ बोट में उन दोनों में से एक को बचाया जा सकता था। श्री स्टास ने अपनी पत्नी को लाइफ बोट में पहुँचा दिया ताकि उसकी जीवन रक्षा हो जाय, पर वोट अभी छूटा भी नहीं था कि इसाडोर कूदकर अपने जहाज में आ गई और बोली ‘स्वामी हम जीवन भर साथ रहे फिर अन्तिम समय क्यों अलग हों? साथ जिये हैं तो साथ ही मरेंगे। इन शब्दों में कितनी आत्मीयता कितना प्रेम, कितनी अभिन्नता थी। जिन दम्पत्तियों में इतना प्रगाढ़ स्नेह होता है उन्हीं का जीवन सफल माना जाता है।

दाम्पत्य−जीवन की सफलता के लिए भावनात्मक परिष्कार का उद्देश्य स्त्री−पुरुष को नेक और सुशील बनाना होता है। पुरुष में पुरुषत्व के, स्त्री में स्त्रीत्व के गुण विद्यमान हों तो कोई कारण नहीं कि दाम्पत्य−जीवन सुख से न बीते। अन्य सारी योजनायें−इन्हीं गुणों के विकास की माध्यम है। मुख्य रूप से पुरुष में शक्ति, साहस, सक्रियता और निर्भयता आदि गुणों का समावेश हो और स्त्री में कोमलता, मृदुता, दयालुता, स्नेह, सौम्यता और सहानुभूति के गुण होने चाहिए। दोनों के स्वभाव में अपने−अपने गुणों का पर्याप्त स्थान हो तो प्रेम, विश्वास, आत्मीयता आदि का परिमार्जन अपने आप होता है और दाम्पत्य−जीवन में घनिष्ठता बढ़ती जाती हैं और उनके जीवन में आनन्द की कोई कमी नहीं रहती ऐसे ही घरों में श्रेष्ठ और सद्गुणी सन्तानें जन्म लेती है और उनसे सामाजिक एवं राष्ट्रीय जीवन सुखी एवं समुन्नत होता है इसलिए दाम्पत्य−जीवन को पवित्र बनाना उद्देश्यपूर्ण रखना प्रत्येक गृहस्थ का मूल धर्म कर्त्तव्य है। दाम्पत्य जीवन और प्रेम−दाम्पत्य−जीवन को सुखी एवं सन्तुष्ट बनाये रखने के लिए जिस प्रेम की आवश्यकता है, जिन सद्भावनाओं की उपयोगिता है वे कभी भी किसी बाह्य उपकरण, वशीकरण मन्त्र आदि से उपलब्ध नहीं किये जा सकते। इसके लिए तो अपने आप में ही आवश्यक हेर−फेर करना पड़ेगा। अपनी द्वेष−दुर्भावनाओं को हटाकर विचार विनिमयपूर्वक फिर से समस्या का सुधार करना पड़ेगा। इसके अतिरिक्त ओर कोई उपाय नजर नहीं आता, प्रेम मानव अन्तःकरण की आध्यात्मिक प्यास है। हर पत्नी अपने घर से यह आकाँक्षा लेकर आती है कि उसे ससुराल में सामान्यतया सबका और विशेषतया अपने पति का प्यार मिलेगा। पति यह चाहता है कि उसकी स्त्री उससे प्रेम और ममत्व बनाये रखेगी। यह सर्वमान्य तथ्य है कि सारे झगड़े प्रेम के अभाव में उठ खड़े होते हैं।

इससे ऐसे अवसरों की तलाश करते रहना चाहिये जब दूसरे के साथ अधिक आत्मीयता, सहृदयता प्रदर्शित की जा सके। मुरझाये हुए अन्तःकरण प्यार की हलकी−सी बौछार से भी जी उठते हैं, अपने आप को न्यौछावर कर देने के लिए उद्यत हो उठते हैं। दाम्पत्य−जीवन को व्यवस्थित बनाये रखने के लिए धन की उतनी आवश्यकता नहीं, आलीशान महल, मकान भी उतने आवश्यक नहीं जितना प्रेमपूर्ण वातावरण होता है। सुख−सन्तोष का जीवन फँस की झोपड़ी में भी जिया जा सकता है, बशर्ते कि लोगों के अन्तःकरण पारस्परिक प्रेम−भावनाओं को स्थिर रख सकें।

आज के पारिवारिक जीवन को फिर से नया रूप देने की आवश्यकता सभी विचारवान पुरुष अनुभव कर रहे हैं। लोगों को शिक्षित बनाने, आमोद−प्रमोद के साधन जुटाने के भी अनेक कार्य सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर चल रहे हैं किन्तु गृहस्थ जीवन को सुव्यवस्थित, सुखी एवं संतुष्ट बनाने के लिए प्रेम, आत्मीयता के अभाव में सारी योजनाएँ विफल ही लग रही है। दाम्पत्य जीवन को फिर से सुदृढ़ बनाने के लिए, फिर से पति और पत्नियों को गुण, कर्म स्वभाव में परिवर्तन को प्राथमिकता देनी होगी। दाम्पत्य−जीवन की सफलता के लिए धन जुटायें पारिवारिक शिक्षा पर ध्यान दें और भी जो साधन उचित हों ग्रहण करें वह न भूलें कि पारस्परिक प्रेम आत्मीयता के अभाव में दाम्पत्य−जीवन सफल न होगा। इसके लिए प्रेम, विश्वास, सहिष्णुता, उदारता और आत्म−त्याग का आश्रय लेना पड़ेगा। इसी के आधार पर घरों में स्वर्ग उतरेगा।

दाम्पत्य−जीवन को सफल बनाने के लिए, पति−पत्नी को अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण रूप से पालन करना चाहिए तभी घर में स्वर्ग होने की कल्पना पूर्ण हो सकेगी।


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