संसार गुण−दोषों से भरा है। अकेला परमात्मा ही दोष रहित हैं। प्रायः मनुष्यों में दोष देखने का भाव रहता है। वह अच्छी से अच्छी वस्तु में, यहाँ तक कि परमात्मा में भी दोष निकाल लेते हैं। उसकी सारी शक्ति और समय इसी दोष−दर्शन में रहता है अतः वह किसी प्रकार की उन्नति नहीं कर पाता।
छिद्रान्वेषक व्यक्ति संसार की किसी बात में सुन्दरता नहीं देख सकता, क्योंकि उनका मस्तिष्क तो कुरूपताओं से भरा पड़ा हैं। यदि उसे किसी महापुरुष, समाज−सेवी तथा लोक−नायक के भी दर्शन कराकर उनकी महानता की चर्चा की जावे जो खिन्न मन से सुनेगा और मौका पाते ही दोष अलापना शुरू कर देगा। उन्हें अहंकारी, स्वार्थी आदि दोषों से अभिव्यक्ति कर दोषी ही सिद्ध करेगा।
दोष−दर्शी का बड़ा दुर्भाग्य है कि वह किसी वस्तु में गुण देख ही नहीं पाता, यदि वह अच्छे को अच्छा कहता है तो उसका छुद्र हृदय डाह की आग से जलने लगता है। दूसरों की निन्दा तथा आलोचना में ही उसे सन्तोष, सुख और शान्ति मिलती है।
दोष−दर्शी की दृष्टि महान व्यक्तियों के परिश्रम, पुरुषार्थ, त्याग, बलिदान, निःस्वार्थ एवं सच्चे सेवा−भाव की ओर जाती ही नहीं, जो कि उन्नति के वास्तविक हेतु होते हैं। अन्ततः किसी भी काम में सफलता नहीं पाता और उसका दोषी दूसरों को बनाता है।
सारी सृष्टि गुण−दोषों से भरी है। दुष्ट व्यक्ति दोषों की खोज में रहते हैं, जबकि साधु−पुरुषों की दृष्टि गुणों ही पर पड़ती है। उन्हें दूसरों के दोष दिखाई ही नहीं पड़ते, वे तो दुष्टों में भी गुण खोज लेते हैं। दूसरों के विषय में वार्तालाप के आधार पर कोई भी व्यक्ति अपने विषय में आसानी से जान सकता है कि वह दोषदर्शी है अथवा गुणदर्शी। जो व्यक्ति इस कसौटी पर अपने को परदोष−दर्शी पाये उसे चाहिये कि वह अपनी इस दुर्बलता को दूर करके अपना दृष्टिकोण गुण−दर्शी बनाये। क्योंकि दोष दर्शन की दुर्बलता एक ऐसा अभिशाप है जो मनुष्य का लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार का पतन कर देता है।
परदोष−दर्शी निन्दक व्यक्ति के मित्र कम तथा शत्रु अधिक होते हैं। संसार में कदाचित ही कोई ऐसा प्रमाण मिले कि किसी व्यक्ति ने दूषित दृष्टिकोण तथा पर निन्दा की वृत्ति रखकर भी जीवन में कोई सफलता प्राप्त की हो। संसार का इतिहास इस बात के उदाहरणों से अवश्य भरा पड़ा है कि घोरतम निन्दा, आलोचना एवं विरोध होने पर भी जिन सत्पुरुषों ने किसी की निन्दा नहीं की और अपनी गुण ग्राहिका वृत्ति में विश्वास बनाये रहे, उनकी संसार में पूजा हुई है और दोषदर्शी निन्दक जहाँ के तहाँ कीचड़ में पड़े रहकर कीड़े−मकोड़ों की मौत मरे हैं।
परदोष दर्शन की दुर्बलता त्याग कर आत्म−दोष दर्शन का साहस विकसित कीजिये। जब दृष्टि गुण, दोष देखने में समर्थ है तो वह गुण, दोष दोनों देखेगी। जब आप स्वयं ही अपने दोष तथा दूसरों के गुण देखने में लग जायेंगे, तो दूसरों के दोष देखना छिद्र खोजना तथा आलोचना करने में अपने अमूल्य समय का अपव्यय न करके उसे सत्कार्य में लगायेंगे तो संसार में सम्मान और सफलतापूर्वक जीकर परलोक के पवित्र मार्ग को प्राप्त करने में समर्थ होंगे।
रात और दिन की तरह दोनों की प्रकार के कारण, पदार्थ तथा व्यक्ति इस संसार में मौजूद हैं। यदि वह एक ही प्रकार के हो जायँ तो संसार की शोभा ही नष्ट हो जाय। भिन्नता को हटाकर सुविधायें उत्पन्न करने के लिए ही हमारे सारे प्रयत्न चलते हैं।
संसार की रचना में दोष और ईश्वर की भूल ढूँढ़ने की अपेक्षा हमें यही सोचना चाहिये कि क्या ऐसा सम्भव है कि अप्रिय के दुष्प्रभावों से बचा रहा जा सके और प्रिय के लाभ प्राप्त हो सके? विचार करने पर प्रतीत होता है कि ऐसी सुविधा भी परमात्मा की सृष्टि में मौजूद है। यदि हमें सचमुच प्रिय की प्राप्ति और अप्रिय से मुक्ति चाहिये तो इसके लिए सुगम मार्ग होगा, प्रिय दर्शन।
संसार में सभी वस्तुयें अच्छी और बुरी हैं। जिस प्रकार हम उसे देखने लगते हैं वह उसी तरह दिखाई देने लगती है। भागवत की कथा में प्रसंग है कि− जिस समय कंस की राज सभा में श्रीकृष्ण जी ने प्रवेश किया उस समय वे किसी को योद्धा, किसी को काल, किसी को ब्रह्म, किसी को बालक आदि रूपों में दिखाई दिये। यह आश्चर्य की बात नहीं है। हर आदमी, हर वस्तु को अपनी भावना के अनुरूप देखता है।
महर्षि दत्तात्रेय ने जब अपनी दोष−दृष्टि त्याग कर श्रेष्ठता ढूँढ़ने वाली वृत्ति जागृत कर ली, तो उन्हें चील, कुत्ते, मकड़ी, मछली आदि तुच्छ प्राणी भी गुणों के भाण्डागार दिखाई पड़ने लगे वे उन्हीं को अपना गुरु बनाते गये और उनसे शिक्षा ग्रहण करते गये। हम चाहें तो चोरों से भी सावधानी, सतर्कता, साहस आदि अनेक गुणों को सीख सकते हैं। वे इस दृष्टि से हम से कहीं आगे होते हैं। पाप की उपेक्षा कर पुण्य को तलाश करने का यदि हमारा स्वभाव बन जाये तो इस संसार में हमें सर्वत्र आनन्द की आनन्द झरता दीखने लगे। सारी दुनिया हमारे लिये उपकार, सहयोग, स्नेह और सद्भावना का उपहार लिए खड़ी है। पर हम उसे देख कहाँ पाते हैं, मन की मलीनता तो हमें केवल दुर्गन्ध सूँघने ओर गन्दगी ढूँढ़ने के लिए ही विवश किये रहती हैं।
सारे संसार को अपनी इच्छानुकूल बना लेना कठिन हैं। क्योंकि यह ईश्वर का बनाया हुआ है और अपनी इस कृति को वही बदल सकता है। इसी प्रकार मनुष्य भी अपनी बनाई हुई निजी दुनिया को बदल सकता है। यदि यह दृष्टिकोण बदल लिया जाय तो अपनी दुनिया फिर अनोखी ही बनती है और जीवन में आनन्द और सन्तोष की मंगलमय अनुभूतियाँ उपलब्ध होती रहती हैं।
ईर्ष्या एक अनैतिक गुण है। जिसके मन में इसका समावेश हो जाता है उसकी प्रगति के सभी द्वार बन्द हो जाते हैं। हर किसी को बुरा बताना, सब में दोष निकालना और उन्हें अपना शत्रु मानना बड़ा अवगुण है। जिसके कारण अपने भी विराने हो जाते हैं। जो लोग प्यार करते थे, सहयोग देते थे वे भी उदासीन, असन्तुष्ट और प्रति पक्षी बन जाते हैं।
आलसी और छिद्रान्वेषी और ईर्ष्यालु मनुष्य के लिये यह संसार नरक के अतिरिक्त कुछ नहीं है। पापी और दुराचारी, चोर और व्यभिचारी की न लोक में प्रतिष्ठा है और न परलोक में स्थान। यह ईर्ष्या रूपी पिशाचिनी भीतर ही भीतर कलेजे को चाटती रहती है और उन्नति तथा प्रगति के सभी द्वार बन्द कर देती है।
सामाजिक प्राणि होते हुए आपका निर्वाह समान से दूर रहकर नहीं हो सकता। ईर्ष्या बाधकत्व के दायरे में आबद्ध करती है, अतः याद रखिये कि ईर्ष्या से हम दूसरों का कुछ नहीं बिगाड़ सकते, बल्कि स्वयं ही अपनी हानि करते हैं। समाज में रहकर दूसरों से अच्छे सम्बन्ध जोड़िये और अपने आपको उनका शुभ−चिन्तक बनाइये।
आग जहाँ रक्खी जाती है पहले उसी जगह को जलाती है। ईर्ष्या से दूसरों का कितना अहित किया जा सकता है, यह अनिश्चित है, पर यह पूर्ण निश्चित है कि कुढ़न के कारण अपना शरीर और मस्तिष्क विकृत होता रहेगा जिससे अपना स्वास्थ्य एवं मानसिक सन्तुलन धीरे−धीरे घटने लगेगा।
अभी तक किसी महापुरुष के जीवन में कोई ऐसा उदाहरण नहीं मिला, जहाँ घृणा, द्वेष, परदोष−दर्शन तथा प्रतिशोध के द्वारा किसी मंगल कार्य की सिद्धि हुई हो।
दूसरों के दोष देखने ही हो तो घृणा की अपेक्षा सुधार की दृष्टि से देखने चाहिए। डाक्टर जिस दृष्टि से रोगी का निरीक्षण करता है और बिना किसी घृणा, द्वेष के उसे कष्ट मुक्त करने के प्रयास में निरत होता है, वही दृष्टिकोण हमारा भी रहना चाहिए। उपयुक्त तो यही है कि हम अपनी सारी चेतना को आत्मा−निरीक्षण और आत्म−सुधार पर केन्द्रित करें।