अपव्यय की आदत जीवन को नरक बनाती है।

April 1975

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धन कमाने का मुख्य उद्देश्य जीवनयापन की हमारी दैनिक एवं मूल आवश्यकताओं की पूर्ति करना माना गया है। जो लोग धन को परिश्रम से कमाते हैं वे उसका महत्व समझते हैं। जो धन को धन के लिये कमाते हैं और उसका उपयोग हमारी मानसिक, शारीरिक और आत्मिक प्रगति करने वाले कार्यों में नहीं करते वे अपने वास्तविक मार्ग से भटक जाते हैं।

हमारे देश में ऐसे लोगों की कमी नहीं जो मितव्ययिता का अर्थ समझते हों। धन के सदुपयोग के बजाय हमने उसकी उपयोगिता झूठी शान−शौकत, दिखावे, फैशन परस्ती एवं दुर्व्यसनों की पूर्ति में समझ ली है। केवल अमीर ही नहीं, गरीब भी अपनी शान−शौकत के दिखावे के लिये मितव्ययिता का मूल मन्त्र नहीं अपनाता और अनेक कष्टों का सामना जीवन भर करता रहता है।

मितव्ययिता का जीवन में बड़ा महत्व है। यह अपने आप में एक गुण है। जो लोग इसके महत्व को नहीं समझते और उसकी शक्ति से अपरिचित होते हैं वे हमेशा आर्थिक कठिनाइयों में फँसे रहते हैं, साथ ही परिवार की उन्नति हर तरह से रोक देते हैं।

जिसने भी जीवन की मूल आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये धन का उपयोग किया है, अपव्यय नहीं किया है, उसका जीवन सुखी ही रहा है दुःखी नहीं। सुख पैसा नहीं देता बल्कि उसका सदुपयोग हमारे सुख का कारण होता है। हजार आठ सौ रुपये पाने वाला व्यक्ति एक 70-80 रुपये पाने वाले व्यक्ति की तुलना में हाथ फैलाते दिख सकता है अगर उसने पैसे को सही ढंग से खर्च नहीं किया है। विवेकानन्द के पता की फिजूल खर्ची की आदत का परिणाम परिवार को भोगना पड़ा इसके विपरीत संसार में बड़े−बड़े विद्वान एवं विचारवान पुरुषों के जीवन से हमें यह शिक्षा मिलती है कि सादा जीवन उच्च विचार ने उन्हें महान बनाया। वे महान मितव्ययी थे। जिसके कारण आर्थिक दुख नाम की चीज उनके जीवन में न रही।

सत्य यह है कि हमने उचित एवं अनुचित खर्च पर विचार न कर, दिखावट, फैशन, सिनेमा, सिगरेट, शराब आदि फिजूलखर्ची की मूर्खता में हम उलझ गये। फिजूल खर्ची एक ऐसा अवगुण है जिससे मनुष्य स्वयं अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारता है। इससे लाभ की आशा तो हमें करना ही नहीं चाहिए, उल्टी बुरी आदतों में फँस जाते हैं। अपव्यय कितने भयंकर दुष्परिणाम हमारे जीवन में पैदा कर सकता है इसका बहुत कुछ अनुभव आज हम और हमारा समाज कर रहा है और आगे इससे भी बुरे अनुभव हो सकते हैं अगर हमने अपव्यय को न रोका और मितव्ययिता को न समझा या न अपनाया।

अपव्यय का कारण केवल हमारी अदूरदर्शिता है। धन को हमने झूठी शान−शौकत की पूर्ति का साधन मान लिया। हम इस सीमा तक भी जा सकते हैं कि भले ही हमारे बच्चे भरपेट भोजन के लिये तरसते हों पर हम अपनी शान के लिये, सिनेमा, सिगरेट, शराब आदि दुर्व्यसनों पर अवश्य खर्च करेंगे। यहाँ तक खर्च करेंगे कि हम कर्जदार बन जायेंगे। कर्ज भी वह जिसे आजीवन चुका भी न सकें।

अपव्यय की प्रवृत्ति मनुष्य के थोथेपन, उथलेपन और संकुचित दृष्टिकोण का प्रतीक हैं। वास्तविकता यह है कि जो जितना महान होगा वह उतना ही सजावट और प्रदर्शन जो जितना महान होगा वह उतना ही सजावट और प्रदर्शन के विरुद्ध होगा। हम केवल इस प्रवृत्ति के वशीभूत होकर दूसरे हमें अपने से किसी प्रकार कम न समझें, पैसे को अनाप−शनाप खर्च करते चलते हैं। यह हमारी कभी न खत्म होने वाली अभिलाषा बन जाती है। उसे समय जो हमारी सामर्थ्य में नहीं होता वह भी खर्च करते चलते हैं। समाज में ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे कि जिनकी ताकत 10-15 रुपये से ज्यादा का पेन्ट या 20-25 रुपये से ज्यादा की साड़ी लेने की नहीं पर वे 40-50 रुपये का पेन्ट, 70-80 रुपये की साड़ी खरीदते हैं। यह केवल दिमाग का दिवालियापन है। यहाँ तक की इस निकम्मी शान के लिये हम कर्जदार बनना भी पसन्द करते हैं।

मिथ्या फैशन के नाम पर समाज में होड़ लगी है। फैशन के नाम पर कितना भी खर्च करने में हम नहीं हिचकिचाते। इसके कारण न जाने कितने लोगों को जीवन निर्वाह की कठिनाइयाँ उठानी पड़ती है। फैशन वालों की पारिवारिक दशा बड़ी दयनीय मिलेगी।

फैशन के व्यसन से आज स्त्री और पुरुष दोनों ही ग्रस्त है। स्त्रियों में फैशन के बढ़ावे के कारण न केवल अपव्यय हो रहा है बल्कि अंग प्रदर्शन फैशन का अंग बन गया है और हमारे नैतिक मूल्यों पर बड़ा गहरा असर पड़ रहा है। परिवार में झगड़े, भाई−भाई में कटुता आदि बुराइयाँ इस धन के लालच और लालसा के कारण पनपती जा रही हैं।

विद्यार्थी वर्ग इससे अछूता नहीं बचा है बल्कि उनमें फैशन और दिखावे की लालसा बड़ी विस्तृत होती जा रही है। माँ−बाप जो अपने बच्चों के फैशन की पूर्ति नहीं कर सकते, उनकी बुरी आदतों की पूर्ति के लिये पैसा नहीं दे सकते वे बच्चों की निगाह में गिरे हुए है या फिर आर्थिक संकट उठा रहे है।

जिस प्रकार फैशन और दुर्व्यसन हमारे अपव्यय का कारण है उसी प्रकार स्त्रियों के आभूषण भी एक नशा है। यह गृह−कलह का एक बड़ा कारण बन गया है। प्रतिस्पर्धा परिवार में शुरू हो जाती हैं।

लालसा जब अपने धन से पूरी न हो तो फिर मनुष्य की प्रवृत्ति दूसरों का धन हड़प करने की होती है जिसके कारण चोरी और बच्चों की हत्यायें तक की जाती हैं।

इस समय हमारे समाज में दहेज प्रथा साथ ही वैवाहिक कुरीतियाँ आदमी को आर्थिक रूप से खोखला किये दे रही हैं। अगर आर्थिक दृष्टि से कमजोर नहीं भी होता है तो भी अमीर लोगों के विवाहों में अनावश्यक खर्चों को देखकर मध्यम वर्ग आपत्ति में पड़ जाता है।

इन सब के बावजूद दान−पुण्य करना दूसरों की सहायता करना प्रशंसनीय अवश्य है पर यदि यह कार्य अपनी सामर्थ्य के बाहर या परिणाम पर बगैर विचार किये करते हैं तो भी आदमी दुःख भोगता है। हानिकारक व्यसन के बारे में भी यही बात हैं कि हम उनके दुष्परिणाम जो हमारे मन पर और शरीर पर हो सकते हैं, उन पर कभी नहीं सोचते ओर उन्हें जीवन में अपनाये चलते हैं।

यह केवल मूढ़ लोगों की दृष्टि होती है जो फैशन,जेवर या व्यसन को बड़प्पन या अमीरी का चिन्ह मान लेते हैं। धन तो अहंकार पैदा करता है। धन संग्रह जब इतना दुःखदायी हो सकता है तो उसका अपव्यय कितना दुःखदायी होता है यह हम से छुपा नहीं हैं।

हम जिस ढंग से इतना ज्यादा पैसा खर्च करते हैं, जिन अनावश्यक बातों के लिये, अगर उनके उचित अनुचित परिणामों पर सन्तुलित रूप से विचार करें और उस अपव्यय को रोक कर उसी पैसे को अच्छे व्यवसाय, काम, शिक्षा या समाज उत्थान के कार्यों में लगायें तो न केवल मुनाफा प्राप्त होगा, हमारी शारीरिक, मानसिक और सामाजिक उन्नति भी हो सकती। दरअसल हम जितनी आवश्यकतायें बढ़ाते हैं, परेशानियाँ उतनी ही बढ़ती जाती हैं और उनकी पूर्ति के लिये उचित अनुचित साधनों का प्रयोग करना पड़ता है। हम प्रत्यक्ष में इसके परिणाम, बेईमानी, घूस, चोरी, हत्या, गृह कलह आदि के रूप में देख रहे हैं।

ऐसे आभूषण पहनने से क्या लाभ जो हमारे शरीर के अंगों को भी कष्ट दें। भारत ने धन के व्यय अपव्यय के अर्थ को गम्भीर दृष्टि से देखा है। हमारे धर्म शास्त्र तक में यह समझाया गया है (यजुर्वेद) कि कभी कर्जदार मत बनो। व्यर्थ कार्य मत करो जिससे कि कर्ज लेना पड़े।

भारतीय संस्कृति इन ओजपूर्ण विचारों से धनवान है। सादगी का जीवन उच्च जीवन हमारे यहाँ बताया गया है। अपव्यय की बात हम अपने पुराणों में नहीं देख पाते बल्कि यही शिक्षा हमें मिलती है कि मितव्ययिता का व्यवहार रखने से हम केवल सुखी एवं सज्जन कहलाने का ही सौभाग्य प्राप्त नहीं करते हैं बल्कि आत्म−गौरव, सादगी और वास्तविकता की अनुभूति भी करते हैं।


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