सामान्य जीवन में महानता का समावेश

January 1969

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यह बात सही है कि महत्त्वाकाँक्षी व्यक्ति ही जीवन में महान् बनते है। जिनकी आकांक्षा रोटी-कपड़ा-वास विलास और बाल बच्चों तक ही सीमित है। वे ‘जन साधारण’ के अतिरिक्त और क्या हो सकते है।

मनुष्य अपनी आकांक्षाओं के अनुरूप ही पुरुषार्थ एवं प्रयत्न करता है। सामान्य इच्छाओं वाले व्यक्ति का कर्तव्य केवल रोटी के लिये और बीबी बच्चों की परवरिश भी को कुछ पैसे कमा लाने तक ही सीमित रहता है। किसी उन्मुक्त क्षेत्र में निकल, किसी उच्च कृत्य के लिये संघर्ष करना उसकी कल्पना के परे की बात होती है। वह इतने को बहुत बड़ी बात समझता है कि किसी प्रकार रोटी खाली जाये, कपड़े पहन लिये जायें ओर जो है उन बच्चों को पाल पोश कर किसी छोटे मोटे काम में लगा दिया जाये और उनके शादी ब्याह कर दिये जायें। अपनी आकांक्षा के अनुसार उनके बहुमूल्य मानव जीवन की इतने में ही इतिश्री हो जाती है। ऐसे अकल्पनाशील और महत्त्वाकाँक्षी व्यक्तियों की परिधि बहुत ही संकुचित होती है। वे कोई ऐसा काम नहीं कर सकते, जिससे कि उनके पीछे संसार कभी कभी उन्हें याद कर लिया करे। संसार तो दूर ऐसे संकुचित आकांक्षी को उसके बच्चे भी शीघ्र भूल जाते है।

यों जीवन यापन तो सभी को ही करना पड़ता है तथापि उस जीवनगति में यदि एक भी छोटा मोटा चिन्ह न छोड़ा गया, तो मानो उसका जन्म लेना, न लेना बराबर ही हुआ। वह आया और संसार को कुछ दिए बिना ही उसका ही हुआ। वह आया और संसार को कुछ दिए बिना ही उसका खा पीकर चला गया बौर पीछे अपनी ही तरह के बिना कुछ दिये, खा पीकर चले जाने वाले बच्चों के रूप में अपने दो चार प्रतिनिधि छोड़ गया। इस प्रकार के मानव जीवन और पशु जीवन में कोई अन्तर नहीं माना जा सकता। पशु भी तो यही सब कुछ करते है। आहार, निद्रा और मैथुन इन तीन प्रवृत्तियों के साथ जीते और चले जाते है। उनके पास भी न कोई महत्त्वाकाँक्षा होती है और न कल्पना।

यह बात गलत नहीं कि मनुष्य का यह सामान्य जीवन ही संसार की स्वभावों एवं सामान्यगति है। सभी को ऊँची कल्पनायें, महान्, आकांक्षाएँ और असाधारण कर्तृत्व प्राप्त नहीं होता। यद्यपि परमात्मा की ओर से ऐसा कोई पक्षपात अथवा प्रतिबन्ध नहीं होता तथापि अपनी प्रवृत्तियों और अपने जीवन के प्रति निजी दृष्टिकोण के कारण ही कोई महानता की और बढ़ता है और कोई सर्वसाधारण की परिधि तक ही रह जाते है और संसार में कोई महनीय अथवा स्मरणीय कार्य नहीं कर पाते है।

मनुष्य कोई यशस्वी काम न कर पाये, यह खेद का विषय नहीं है कि अपनी सामान्य जीवनगति में भी जिन मान्यताओं को समाविष्ट किया जा सकता है। उनको भी नहीं करता। रोटी रोजी एक सामान्य काम है, किन्तु जब इसमें इस जीवित अभिलाषा को जोड़ दिया जाता है कि मुझे रोटी रोजी कमानी है ओर शान, सम्मान के साथ कमानी है और यथासम्भव अच्छी से अच्छी कमानी है। तब यही सामान्य वृति सामान्यता से कुछ ऊपर उठ जाती है।

बच्चे होना एक सामान्य प्रक्रिया है। लोगों को होते ही है। किन्तु इनके विषय में यह भाव कि “जिस भगवान ने पैदा किये है, वही पालेगा अथवा सब अपना अपना भाग्य लेकर आते है, जीना है तो नंगे भूखे रहकर भी जी जायेंगे। ज्यादा क्या करना नमक रोटी मिलती रहे, किसी तरह पल जायें, सब अपना काम धन्धा करके पेट पाल लेंगे। इस प्रकार के मृत भाव मानवता के प्रतिकूल है। यह सामान्य मनोवृत्ति भी नहीं, हीनवृत्ति है। यदि इसी सामान्यता में यह उत्साह जोड़ दिया जाये कि बच्चे भगवान ने दिये है तो उन्हें अपनी शक्ति भर अच्छी प्रकार पालने, पढ़ाने, लिखाने और अपने से आगे बढ़ाने में कोई कसर न रखेंगे। इस बात का पूरा प्रयत्न करेंगे कि यह जीवन में उन्नति कर सकें और समाज के भद्र नागरिक बन सकें, तो बच्चों सम्बन्धी साधारण सामान्यता असामान्यता में बदल जाये। इसमें न तो किसी महान् आकांक्षा का बोझ ही है आर न जीवन में किसी बड़े संघर्ष की सम्भावना।

किन्तु दुःख की बात तो यह है कि लोग सामान्य जीवन ग्रहण करके भी तो उसे उत्साहपूर्वक बिताना नहीं चाहते। अपनी सामान्य परिधि में किसी असामान्य भाव का प्रवेश निषेध रखना चाहते हैं। अपने सीमित जीवन को मन, वचन, कर्म से और अधिक सीमित बना लेने में न जाने कौन-सा त्याग, वैराग्य अथवा साधुता समझते हैं। यदि किन्हीं कारणों से अपनी सीमित परिधि से बाहर नहीं निकला जा सकता तो उसी में रहकर ऊपर तो उठा ही जा सकता है।

यदि अपनी सीमित परिधि में रहकर ही कुछ ऊपर उठने की आकांक्षा ही जगा ली जाय, तब भी तो संतोष लायक बहुत कुछ किया जा सकता है। लोक-रंजन न सही आत्म-रंजन तो हो ही सकता है। आकांक्षा के अनुसार ही मनुष्य का कर्तव्य प्रस्फुटित होता है। उसकी प्रेरणा से मनुष्य के भीतर सोई पड़ी कल्पनायें और शक्तियाँ प्रबुद्ध होने लगती है। उसके मानस का महापुरुष समय के गर्भ में आ जाता है और तब उसी के अनुसार विचार और परिस्थितियाँ बनना आरम्भ हो जाती है। और शीघ्र न सही, जीवन की पूरी अवधि में अथवा जन्म-जन्मान्तर में कहीं न कहीं समय के गर्भ में आया मनुष्य का वह मानस महापुरुष अवतरित होकर भूतकाल के सारे सारे सामान्य जीवनों और संसार के समग्र ऋणों को सूद-दर-सूद के साथ चुका देता है। किन्तु कहाँ, कितने मनुष्य होते हैं, जो अपनी नितान्त सामान्यता में किंचित् उच्चता की आकांक्षा मिला कर इन सम्भावनाओं को भवितव्य बना लें।

छोड़िये, रोटी-रोजी और बाल-बच्चों की सामान्य परिधि में भी, यदि महानताओं की कल्पनाओं से भय लगता हो, वे आपको अपने अनुरूप न लगती हों, उनसे सम्बन्धित आवश्यक पुरुषार्थ एवं संघर्ष का उत्साह अपने में न पाते हों, महत्व का समावेश छोड़िये और इस ओर आ जाइये, जहाँ पर बिना किसी प्रकार का संघर्ष अथवा कष्ट किये, शांति एवं निरापद रूप में महानता की उपलब्धि हो सकती है। वह है जन-सेवा का क्षेत्र। समाज में अग्रसर हो रहने की आकांक्षा तो कुछ संघर्ष एवं कष्ट कर हो सकती है, किन्तु किसी की सेवा करने, सहायता एवं सहयोग करने में तो ऐसा कोई भय नहीं है।दूर न जाइये, अपने पड़ोस में देखिये कि कोई बीमार तो नहीं है-यदि है तो दवा लाने से उसकी श्रुषा करने तक जो भी आप कर सकते हों करिये। यदि आपकी सहायता की उसे आवश्यकता नहीं है, तो उसे देखने तथा शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की मंगल कामना देने में न तो आपका कुछ व्यय होगा और उसको भी इस सहानुभूति में सुख अनुभव होगा।

यदि आप पढ़े-लिखे हैं तो पास-पड़ोस में शिक्षा का वातावरण बना सकते है। समय निकालकर बच्चों और इच्छुक प्रौढ़ों को पढ़ा सकते है। किसी नियत स्थान पर नित्य नियम से किसी सद्ग्रन्थ का पाठ करके लोगों को सुना और समझा सकते है। निरक्षर स्त्री पुरुषों के पत्र लिख पढ़ सकते है। पितृहीन बच्चों का माँ की तरफ से पाठशालाओं में प्रतिनिधित्व कर सकते है। गरीब बच्चों की फीस माफी के लिये प्रयत्न करने में तो किसी प्रकार का व्यय अथवा भय नहीं है। अपने सदाचरण, सद्व्यवहार तथा शालीनता से दूसरों के हृदय में अपना स्थान बना सकते है। बड़े बूढ़ों के प्रति आदर तथा आत्मीयता की अभिव्यक्ति से उनकी सद्भावना तथा स्वरित के अधिकारी बन सकते है।

घरों और मोहल्ले की गलियों में यदि गन्दगी रहती है, तो उनकी सफाई की प्रेरणा तथा पहल कदमी द्वारा अपने को दूसरों की दृष्टि में उठा सकते हो। भूले को राह और परदेशी को धर्मशाला बतला आने, जैसे न जाने संसार में कितने साधारण एवं सामान्य कहे जाने वाले काम हो सकते है, जिन्हें यदि पूर्णरूप से प्रेम और सेवाभावना से किया जाये, तो वे काम भले ही अपने में महान् बना जाता है। आवश्यकता पड़ने पर लोग उसे याद करते है, अवसर आने पर चर्चा करते है और न रहने पर उसके लिये रोते भी है। सेवा एक ऐसा वशीकरण मन्त्र है, जो अपना प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहता।

यदि इसमें भी कोई भार अथवा स्वाभिमान का अवरोध आता हो तो आइए अपने तक केन्द्रित हो जाइये। देखिये आप में लोभ, मोह, क्रोध अथवा अहंकार आदि दोषों में से कोन सा दोष मौजूद है। जिस दोष को अपने अन्दर पायें। उसे तत्काल दूर करने में जुट जाये। यदि लोभ है तो तुरन्त त्याग वृत्ति को जगाकर उसे सन्मुख में खड़ा की दीजिये। क्रोध है तो क्षमाशीलता का अभ्यास कीजिये। यदि मोह का अन्धकार दिखलाई देता है तो ज्ञान का प्रकाश करने के लिये स्वाध्याय अथवा सत्संग में लग जाइये और यदि अहंकार के चिन्ह दिखाई देते हो, तो बच्चों तक से आदर और विनम्रतापूर्वक व्यवहार करना प्रारम्भ कर दीजिये।

इस प्रकार अपने मनो मन्दिर को, आत्मा के प्रकाश के प्रवेश के योग्य बना डालिये। जिस दिन आप अपने को दोष मुक्त कर आत्म प्रकाश की सम्भावना निश्चित कर लेंगे, उस दिन आप इतने महान् हो जायेंगे, जितना कोई यशस्वी ऐतिहासिक पुरुष भी नहीं होता। हो सकता है कि इतना कर लेने पर भी आपको कोई जान न पाये और आप संसार से गुमनाम विदा हो जाये। अथवा कोई स्मारक या चिन्ह न छोड़ पायें तथापि आपकी महानता में जरा भी बड़ी से बड़ी उन्नति से उच्च एवं महनीय होती है।

किन्तु यह सब हो तभी सकता है, जब आप अपने में उसके लिये आकांक्षा को जनम दें और यह विश्वास कर लें कि जीवन में सर्वमान्य से बढ़कर असामान्यता की ओर बढ़ना ही मनुष्यता की शोभा और ध्येय है। योनियों की चौबीस लाख सीढ़ियों को चढ़कर मानव-जीवन की उच्चता प्राप्त करने वाले हम मनुष्य यदि आलस्य, प्रसाद अथवा दीनता के करण हीन जीवन पद्धति अपनाकर अथवा पतन कर लें यह तो किसी प्रकार भी शोभनीय नहीं है।

सादे एवं सामान्य जीवन में भी यदि विचारों को उच्च रखा जाये, जो कुछ सोचा, समझा और किया जाये, वह उदास एवं आदर्श भावनाओं के अन्तर्गत सोचा तथा किया जाये, तो कोई कारण नहीं कि हम सामान्य जीवन परिधि में रहते हुए भी आत्मा से महान् न हो जाये। आत्मा की महानता ही तो वास्तविक तथा सर्वोपरि महानता है, जिसे ऊँचे-ऊँचे अथवा आश्चर्यजनक काम करके ही नहीं केवल सेवा भाव तथा आत्म परिष्कार के द्वारा भी पाया जा सकता है और यह किसी भी स्थिति अथवा वर्ग के व्यक्ति के लिये असंभव नहीं बशर्ते उसके लिये हृदय में जिज्ञासा तथा आकांक्षा का जागरण भर हो जाये।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118