जागृत कुण्डलिनी और कुण्डलिनी जागरण-

January 1969

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ब्रह्म को जहाँ सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और निर्विकार कहा जाता है वहाँ उसे मूढ़ भी कहा जाता है। मूढ़ का अर्थ है अज्ञानी गुम-सुम बैठा रहने वाला। उसकी न कोई इच्छा है न आकांक्षा ऐसा ब्रह्म विश्व के सृजन और पालन का उत्तरदायित्व भला कैसे पूरा कर सकता था। इसलिये उस जागृत करने की आवश्यकता पड़ी। इस आवश्यकता की पूर्ति उसकी शक्ति (शिव) ने की। यह शक्ति या शिव तत्व और कुछ नहीं कुण्डलिनी ही है, वहीं ब्रह्म को क्रियाशील बनाती है। इस शास्त्रीय विवेचन की पुष्टि के लिये शरीरगत कुण्डलिनी तत्व का अध्ययन करना चाहिए।

मेरुदण्ड के अन्तिम भाग की स्थूल रचना और गतिविधि की चर्चा पिछले पृष्ठों में की जा चुकी है यहाँ तक डाक्टरों और वैज्ञानिकों की भी पहुँच हो चुकी है किन्तु मेरुदण्ड के भीतर सूक्ष्म प्रवाह और चैतन्य लोकों के निर्माण और उनके क्रिया कलाप का अध्ययन केवल भारतीय योगी ही कर सके हैं। इन सूक्ष्म लोकों का महत्व सर्वाधिक है। उनकी जानकारी से ही विश्व रहस्यों का उद्घाटन होता है। अलौकिक शक्तियाँ प्राप्त होती है, मनुष्य जीवन का वास्तविक अर्थ समझ में आता है और स्वर्ग, मुक्ति या परम पद प्राप्ति का द्वार खुलता है।

गुदा क्षेत्र में सोई हुई कुण्डलिनी दो धाराओं इड़ा और पिंगला (यह नाड़ियाँ ऋण विद्युत् और धन विद्युत् गत विद्युत् के आणविक स्वरूप में अन्तर है) में होकर ऊपर को उठती है और मस्तिष्क में जाकर मूढ़ ब्रह्म की चेतना को झकझोरती है। कुण्डलिनी यदि जागृत नहीं है तो इड़ा और पिंगला अपने सामान्य परिवेश में ही काम करती है, उसी प्रकार मस्तिष्क भी सामान्य ढीले-पोले काम करता रहता है पर जागृत कुण्डलिनी के आवेश को संभालना तो मस्तिष्क के लिये भी कठिन हो जाता है। फिर वह बैठा नहीं रह सकता। कुछ न कुछ उछल-कूद तोड़-फोड़ बनाव शृंगार उसे करना ही पड़ता हैं। जिस व्यक्ति की कुण्डलिनी जाग जाती है वह जागृत अवस्था की तहत गम्भीर निद्रावस्था में भी उतना ही सचेतन रहता है। उसकी स्वप्न और जागृति में कोई अन्तर नहीं आता। जिस तरह जागृत अवस्था में वह किसी से बातचीत करता, सुनता, सोचता, विचारता, प्रेरणा देता, सहायता, सहयोग देता रहता है उसी प्रकार स्वप्नावस्था में भी उसकी गतिविधियाँ चला करती हैं। उस अवस्था में वह किसी का भला भी कर सकता है और नई-नई जानकारियों के लिये अन्य ब्रह्माण्डों में सैर के लिये भी जा सकता है। अन्य ब्रह्माण्डों का अर्थ विद्धि रूप से सूर्य, चन्द्र, बृहस्पति, शुक्र, हर्शल, प्लूटो आदि से है। यह आश्चर्य लगने वाली बात उसके लिये बिल्कुल साधारण और सामान्य होती है। साधना में तीन व्यक्तियों को कभी कभी रात में ऐसे कुछ स्वप्न हो जाते हैं जिसमें उन्हें किसी भविष्य की घटना का पूर्वाभास मिल जाता है या किसी गोपनीय रहस्य का पता चल जाता है। वह कुण्डलिनी की ही शक्ति होती है।

हमारी धरती गोलाकार है उसके केन्द्र में अति गर्मी है जिससे वहाँ की सब वस्तुएँ और धातुएँ गली हुई तरल स्थिति में होती हैं। मूलाधार की वह गाँठ, जहाँ मेरुदण्ड समाप्त होता है और जिसे अनेक नाड़ी गुच्छकों ने बाँध रखा है, का भेदन किया जाय तो वहाँ अत्यन्त तेजस्वी और उष्ण शक्ति मिलती है, यही कुण्डलिनी है। वह स्फुरणा वाली शक्ति है इसलिये यहाँ नाड़ी गुच्छक भी स्फुरित से है चारों ओर को उत्तेजित से बने रहते हैं। यहाँ की अग्नि पृथ्वी में पाई जाने वाली अग्नि से बहुत कुछ मिलती जुलती होती है।

विज्ञान का एक नियम है कि एक पदार्थ के सभी अणुओं की चेष्टाएँ मूल पदार्थ जैसी ही होती हैं। उदाहरणार्थ लोहे में जो गुण और चेष्टा होगी वही उसके परमाणु में भी होगी। नमक में जो गुण और तत्व होंगे उसके परमाणु में भी वही होंगे। गुदा पार्थिव पदार्थों से बना हुआ होने के कारण उसके गुण, अहंकार और वासनायें भी पार्थिव होती हैं इसलिये शक्ति की दृष्टि से भी वह कुण्डलिनी की तरह ही महत्त्वपूर्ण होता है अर्थात् कुण्डलिनी का एक उपयोग केवल पार्थिव काम वासना-जन्य सुखों के लिये भी किया जा सकता है पर उस स्थिति में शक्ति अधोगामी होने से उसका पतन शीघ्र हो जाता है और ऐसे मनुष्य की वासनायें मृत्यु तक भी शान्त नहीं होती इसलिये उसे उनकी पूर्ति के लिये पुनः जीवन धारण करना पड़ता है।

लेकिन जब कुण्डलिनी जागृत हो जाती है और इड़ा, पिंगला समान गति से ऊर्ध्वगामी हो जाती हैं तो एक तीसरी धारा सुषुम्ना का आविर्भाव होता है। उससे ऊर्ध्वमुखी लोकों की अनुभूति और गमन का सुख मिलता है यह सुख संभोग सुख जैसा होता है पर संभोग का सुख क्षणिक होता है और ऊर्ध्वमुखी आध्यात्मिक सुख का रसास्वादन निरन्तर किया जा सकता है। पर उसके लिये कुण्डलिनी को जगाना आवश्यक हो जाता है।

कुण्डलिनी जगाने का अर्थ भीतर गोलों की कुण्डलिनी को क्रियावान् करना है। पवित्रता के बिना इस कार्य में बड़ा जोखिम है। इसलिये उसे गुप्त रखा गया।

कुण्डलिनी के दो उत्पत्ति स्थान माने गये हैं, एक सूर्य केन्द्र में निवास करने वाली पुरुषरूपी और दूसरी स्त्री रूप में पृथ्वी केन्द्र में। पृथ्वी केन्द्र में कुण्डलिनी को प्राणधारियों की जीवन सत्ता का केन्द्र कह सकते हैं। यह दरअसल सूर्य कुण्डलिनी का ही बीज है। कहा जाता है कि संसार जो कुछ भी है वह सब बीज रूप से देह में विद्यमान् है सूर्य भी कुण्डलिनी के रूप में शरीर में बैठा हुआ है। शारीरिक मूलाधार में ग्रन्थि का जब विकास होता है तब उसमें सूर्य जैसी होती है। अर्थात् उसमें मनुष्य की शक्ति सूर्य की जितनी शक्ति वाली, सर्वव्यापी, सर्व-समर्थ हो जाती है फिर उस शक्ति का नियन्त्रण करना कठिन हो जाता है। कमजोर मन और शरीर वाले उस शक्ति को धारण नहीं कर सकते।

गायत्री का देवता “सविता” है और कुण्डलिनी की प्रतिनिधि शक्ति भी सूर्य ही है इसलिये गायत्री उपासना का सीधा प्रभाव मेरुदण्ड से होकर इस गुदा क्षेत्र में ही होता है। ऊपर से उतरने वाला प्राण प्रवाह पहले यहीं पहुँचता है और फिर गुच्छकों के द्वारा सारे शरीर में संचित होता रहता है। जितना अधिक साधन का विकास होता है उतना ही प्राणशक्ति का अभिवर्द्धन और उसी अनुपात से कुण्डलिनी जागृत होती चलती है। यह प्रकाश धीरे-धीरे नेत्र, वाणी, मुख और ललाट आदि सम्पूर्ण शरीर में चमकने लगता है। त्वचा में यही कोमलता और बुद्धि में सात्विकता एवं पवित्रता की अभिवृद्धि करता है। यह क्रिया धीरे-धीरे होती है इसलिये हानि की भी आशंका नहीं रहती उपासक अपने आत्म-कल्याण भर के संकेत प्राप्त करता हुआ जो वास्तविक लक्ष्य है वह जीवन -मुक्ति भी प्राप्त कर लेता हैं।

सविता लोक से आने वाले प्राणकण यद्यपि बहुत छोटे होते हैं किन्तु इतने प्रकाशमय होते है कि बिना दिव्य-दृष्टि के भी उन्हें देखा जा सकता है। आसमान की ओर देखने पर वायु में छोटे-छोटे प्रकाश के कण अति शीघ्रता से चारों ओर उछलते हुए दिख पड़ते हैं ये प्राणकण ही हैं। यह कण सात ईश्वर कणों से विनिर्मित होता है। यह प्राण कण सफेद होता है पर ईश्वर के सातों अणु सात रंगों के बने होते हैं। सूर्य भी सात रंगों का प्रकाश है। नाभि चक्र में घुसने पर यह रंग अलग-अलग होकर अपने क्रिया क्षेत्रों में बँट जाते हैं नीला और लाल रंग मिली हुई हल्की बैगनी (वायलेट) और नीली किरणें कंठ में चली जाती हैं और हल्की नीली कण्ठ चक्र में। यह दोनों गले को शुद्ध रखती हैं और वाणी को मधुर बनाती हैं। कासनी और गहरा नीला मस्तिष्क में चले जाते हैं उससे विचार, भक्ति और वैराग्य के गुणों का आविर्भाव होता है। गहरा नीला मगज के निचले और मध्य भाग तथा नीला रंग सहस्रार का पोषण करता है।

पीली किरणें हृदय में प्रवेश करती है उससे रक्तकणों की शक्ति और स्निग्धता बढ़ती है। शरीर सुन्दर बनता है। यही किरणें बाद में मस्तिष्क को चली जाती हैं जिससे विचार और भावनाओं का समन्वय होता है।

हरी किरणें पेट की अन्तड़ियों में कार्य करती हैं इससे पाचन क्रिया सशक्त बनती है। गुलाबी किरणें ज्ञान तन्तुओं के साथ सारे शरीर में फैलती है आरोग्य की दृष्टि से इन किरणों का बड़ा भारी महत्व है ऐसी की बहुतायत वाला व्यक्ति किसी को भी हाथ रखकर स्वस्थ कर सकता है। देवदारु और यूकेलिप्टस वृक्षों में इन किरणों की ही बहुतायत होती है जिससे उनकी छाया भी बहुत आरोग्यवर्धक होती हैं। नारंगी लाल किरणें जननेन्द्रियों तक पहुँचकर गुदा वाले रोग ठीक कर देती हैं और शरीर की गर्मी में सन्तुलन रखती हैं। हलकी बैंगनी किरणें भी यहाँ आकर इस क्रिया में हाथ बँटाती हैं यदि कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सके तो इन किरणों को ही मस्तिष्क में भेजकर भविष्य ज्ञान, दूर दर्शन, दर श्रवण आदि चमत्कार, प्राप्त किये जा सकते हैं। शुद्ध पीले रंग से बुद्धि का विकास होता है। गहरा लाल किरमिजी (क्रिमसन) से सर्वात्म भाव और प्रेमभाव का विकास होता है। इन रंगों की सम्मिलित शक्ति से आध्यात्मिकता का विकास होता हैं। इस तरह यह देखने में आता है कि कुण्डलिनी जागरण से आन्तरिक कलेवर का आमूल-चूल परिवर्तन हो जाता है। इस क्रान्ति का माध्यम शरीरस्थ कुण्डलिनी को सूर्य कुण्डलिनी से जोड़ देना ही होता है। यह क्रिया वैसे ही है जैसे किसी बड़े तालाब से छोटी सी नाली लगाकर खेतों तक पानी पहुँचा देते हैं। कुण्डलिनी जागरण की यह साधना समय साध्य तो है पर जोखिम नहीं है।


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