लोकोत्तर जीवन श्रद्धाभूत ही नहीं विज्ञान-भूत भी

January 1969

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महर्षि उद्दालक ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को महर्षि का यज्ञ सम्पन्न कराने को भेजा। चित्र स्वं महान् विद्वान् थे, उन्होंने श्वेतकेतु से जीवात्मा की गति संबंधित कुछ प्रश्न किये। किन्तु श्वेतकेतु से उन प्रश्नों का उत्तर न बन पड़ा। उन्होंने कहा-हमारे पिताजी, अध्यात्म विद्या के पण्डित है, उनसे पूछकर उत्तर दूँगा।”

श्वेतकेतु पिता उद्दालक के पास आये। सारी बात कह सुनाई। महर्षि चित्र ने जो प्रश्न किये थे, वे भी सुनाये। किन्तु उद्दालक स्वं भी उन बातों को नहीं जानते थे। इसलिये उन्होंने श्वेतकेतु से कहा-तात् स्वं चित्र के पास जाकर इन प्रश्नों का समाधान करो। प्रतिष्ठा का अभिमान नहीं करना चाहिए। विद्या या ज्ञान छोटे बालक से भी सीखना चाहिये।”

श्वेतकेतु को अपने पिता की बात बहुत अच्छी लगी। वे चित्र के पास निरहंकार भाव से गये और विनीत भाव से पूछा-महर्षि हमारे पिताजी भी उन प्रश्नों का उत्तर नहीं दें सकते। उन्होंने आपसे ही वह विद्या जानने को भेजा है।” तब चित्र ने विनीत श्रद्धा से प्रसन्न होकर जीवात्मा की परलोक गति का विस्तृत अध्ययन कराया। कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में महर्षि चित्र ने जीव की गति और लोकोत्तर जीवन की व्याख्या करते हुए लिखा है-

“तनेतं देवयजनं पन्यानमासाद्याग्नि लोक भागच्छति। स वायुलोकं स वरुणलोकं स आदित्यलोकं स इन्द्रलोक स प्रजापति लोकं स बहालोकमं। तं ब्रह्रा हाभिधावत् मम यशमा विरजाँ पालयत्रदीं प्रापं न वाज्यंजिगीष्य. तीति।”

-कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद्। 3

अर्थात्-जो परमेश्वर की उपासना करता है, वह देवयान मार्ग द्वारा प्रथम अग्निलोक को प्राप्त होता है। फिर वायु-लोक में पहुँचता है, वहाँ से सूर्य-लोक में गमन करता, फिर वरुण-लोक में जाकर इन्द्र -लोक में पहुँचता है। इन्द्र-लोक से प्रजापति-लोक से ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इस ब्रह्म-लोक में प्रविष्ट होने वाले मार्ग पर ‘आर’ नामक एक बृहद् जलाशय है। उससे पार होने पर काम क्रोध आदि की उत्पत्ति द्वारा ब्रह्म-लोक प्राप्ति की साधना और यज्ञादि पुण्य कर्मों को नष्ट करने वाले ‘येष्टिह’ नामक मुहूर्ताभिमानी देवता निवास करते है, उनसे छुटकारा मिलने पर विरजा नाम की नदी मिलती है, जिसके दर्शन मात्र से वृद्धावस्था नष्ट हो जाती है। इससे आगे इला नाम की पृथिवी का स्वरूप इह्म नामक वृक्ष है, उससे आगे एक नगर है, जिसमें अनेकों देवता निवास करते है। उसमें बाग बगीचे, नदी-सरोवर बावड़ी, कुएँ आदि सब कुछ है.......।

इन व्याख्यानों को आज का प्रबुद्ध समाज मानने को तैयार नहीं होता। उन्हें काल्पनिक होने की बात कही जाती है। सम्भव है उपरोक्त कथन में जो नाम प्रयुक्त हुए हों, वह काल्पनिक हों पर आज का विज्ञान यह तो स्पष्ट मानने को तैयार हो गया कि पृथ्वी के अन्यत्र लोक भी है, वहाँ भी नदियाँ, पर्वत, खर-खड्ग प्रकाश, जल, वायु, ऊष्मा आदि है। चन्द्रमा के एक पर्वत का नाम शैलशिखर रखा गया है। इस तरह के अनेक काल्पनिक नाम रखे गये है। मंगल ग्रह के चित्र में कुछ उभरती हुई रेखायें दिखाई दी है, जिनके नहर या सड़क होने का अनुमान लगाया जाता है। यदि इस तरह का विज्ञान अन्य लोकों में सम्भव है, तो वहाँ भी सभ्य और साँस्कृतिक जीवन हो सकता है। इसमें सन्देह की गुँजाइश नहीं रह जाती।

अब तक जो वैज्ञानिक खोजें हुई है, उनमें बताया गाया है कि हमारी गड़ा में लगभग 100000000000 नक्षत्र है। ग्रह परिवारों से युक्त नक्षत्रों की संख्या 10000000000 नक्षत्र है। जीवों के निवास योग्य 5000000000 नक्षत्र है, जिनमें जीव है उन ग्रहों की संख्या 2500000000 बताई जाती है। ऐसे ग्रह जिनके प्राणी काफी समुन्नत हो चुके है, उनकी संख्या 500000000 है। जिन ग्रहों के जीव संकेत भेजना चाहते है और जिनके संकेत भेज रहे हैं उनकी संख्या क्रमशः 10,0000000 और 1000000 है। यह आँकड़े ब्रिटेन के प्रसिद्ध अन्तरिक्ष शास्त्री ‘डेस्मांड किंग हेली’ द्वारा विस्तृत अध्ययन खोज और अनुमान के आधार पर प्रस्तुत किये गये हैं।

कुछ ग्रह ऐसे ह, जहाँ जल व आक्सीजन की मात्रा इतनी कम है कि वहाँ जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती। चन्द्रमा का धरातल दिन में इतना गर्म रहता है कि धातुएँ पिघल जायें, इसलिये किसी मानव जैसे देहधारी का वहाँ होना नितान्त असम्भव है। इसी तरह रात में चन्द्रमा का तापमान शून्य से भी बहुत नीचे गिर जाता है इसलिये भी प्राणियों का अस्तित्व सम्भव नहीं दिखाई देता। चन्द्रमा का एक दिन पृथ्वी के सात दिन के बराबर होता हैं, इतने लम्बे समय तक सूर्य की ‘अल्ट्रावायलेट’ किरणों को सहन करना मानव शरीर के वश की बात नहीं। शुक्र ग्रह की स्थिति भी ऐसी ही है कि वहाँ जीवन की सम्भावना नहीं हो सकती।

किन्तु कुछ ऐसे कारण और परिस्थितियाँ भी हैं, जिनसे सौर-मण्डल के कुछ ग्रहों में जीवन होने का स्पष्ट प्रमाण मिल जाता है। यह हम सब जानते हैं कि पदार्थ समान परिस्थिति के अणुओं से मिलकर बनता है। अणु ही शरीर रचना के आधार होते हैं। वैज्ञानिकों को इन बातों के प्रमाण मिले हैं कि जिस तरह के अणु पृथ्वी में पाये जाते हैं, उस तरह के अणु लाखों मील दूर के ग्रहों में भी विद्यमान् हैं। वह शरीर रचना की स्थिति में होते हैं। अलबत्ता चेतनता उन ग्रहों में पहुँचना उन ग्रहों में पहुँच कर उन अणुओं से बने शरीर के कारण ज्ञान, आत्म-सुख सन्तोष, शांति आदि की परिस्थितियाँ पृथक् अनुभव कर सकती है। उनके बोलने और समझने के माध्यम अलग हो सकते हैं। शरीरों की आकृति भी भिन्न हो सकती है। चूँकि प्राकृतिक नियम और रासायनिक तत्व ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों पर अपरिवर्तित रहते है, इसलिये वैज्ञानिकों को यह भी आशा है कि रासायनिक तत्त्वों के मिश्रण से जैसी चेतनता तथा प्रतिक्रिया पृथ्वी पर अनुभव होती है, वैसी कल्पना से परे दूरियों पर बसे अगणित ग्रहों पर भी अवश्य होती होगी।

इटली के ब्रूनो कहते थे- ‘‘असंख्य ग्रहों पर जीवन का अस्तित्व है। विश्व में जीवन की अभिव्यक्ति असंख्य और अलग अलग रूपों में है। किसी ग्रह के निवासियों के हाथ पाँच, सात किसी के पाँव नहीं होते होंगे। कही दाँतों की आवश्यकता न होती होगी, कही पेट की। आकृतियाँ कहीं-कहीं कल्पनातीत भी हो सकती है। पृथ्वी अनन्त विश्व में एक छोटे से कण के बराबर है। यह सोचना हास्यास्पद है कि केवल पृथ्वी पर ही बुद्धि वाले जीव रहते है।”

बाद में इंग्लैण्ड के न्यूटन, जर्मनी के कैप्लेर और लैब्नीत्सा, गैलीलियो रूस के लोमोनासोव फ्राँस के देकार्ते और पास्कल आदि ने भी स्वीकार किया कि ब्रह्माण्ड के ग्रहों में जीवन है। वे वेदों के इस विश्वास को भी मानने को तैयार थे कि पृथ्वी से दूर आकाशीय पिण्डों में जीव की कर्मगति के अनुसार पुनर्जन्म होता है। यह जन्म कुछ समय के बाद भी हो सकते है और लम्बे समय के भी। मनुष्य अपने सारे जीवन के बाद मृत्यु के क्षणों तक जैसी मानसिक स्थिति विकसित कर लेता है, उसका प्राण शरीर और कारण शरीर भी उसी के अनुरूप परिवर्तित हो जाता है, फिर जहाँ उस शरीर के अनुरूप परिस्थितियाँ होती है, वह उसी आकाश पिण्ड की ओर खिच जाता है। और वहाँ सुख-दुःख की वैसी ही अनुभूति करता है, जिस तरह कि इस भौतिक जगत में।

सम्पूर्ण विश्व ब्रह्माण्ड मनुष्य शरीर की तरह ही एक स्वतन्त्र पिण्ड जैसा है, उसमें जीवों की गति उसी प्रकार सम्भव है, जिस तरह शरीर में अन्न-कणों की गति होती है।

अब इस मान्यता का खण्डन करना सम्भव हो गया है कि अन्य ग्रहों की तापमान की स्थिति में प्राणी का हाथ-पाँव-नाक-मुँह-पेट आदि) पृथ्वी पर है, वह अन्यत्र न हो। वातावरण के तापमान और दबाव की स्थिति में भी जीव प्राणी अपने आपको वातावरण के अनुकूल बना लेते है। इस दृष्टि से बृहस्पति, शनि, यूरेनस (उरण), नेपच्यून (वरुण), प्लूटो (यम) आदि ग्रहों को देखें तो जान पड़ता है कि वहाँ जीवन नहीं है, वहाँ मीथेन गैस की अधिकता है। बृहस्पति ग्रह पर बने बादल छाये रहते है।

बादलों का विश्लेषण करने पर वैज्ञानिकों ने पाया, उनमें हाइड्रोजन का सम्मिश्रण रहता है। अमोनिया और मीथेन गैसें भी अधिकता से पाई जाती है। बादलों में सोडियम धातु के कण भी पाये जाते है, इससे बृहस्पति के बादल चमकते है। इन परिस्थितियों में यद्यपि जीवाणुओं की शक्ति नष्ट हो जाती है, पर जिस तरह पृथ्वी पर ही विभिन्न तापमान और जल ऊष्मा की विभिन्न स्थितियों में मछली, साँप, मगर, कीड़े-मकोड़े वनस्पति, फल-पौधे स्तनधारी गोलकृमि और टारड़ीग्राडों जैसे जीव पाये जाते है, तो अन्य ग्रहों पर इस तरह की स्थिति सम्भाव्य है और इस तरह सूर्य, चन्द्रमा आदि पर भी जीवन सम्भव हो सकता है, भले ही शरीर की आकृति और आकार कुछ और ही क्यों न हो।

इस तथ्य की पुष्टि में अमरीकी वैज्ञानिक मिलर का प्रयोग प्रस्तुत किया जाना आवश्यक है। मिलर ने एक विशेष प्रकार के उपकरण में अमोनिया, मीथेन, पानी और हाइड्रोजन भर कर उसमें विद्युत धारा गुजारी फिर उस पात्र को सुरक्षित रख दिया गया। लगभग 10 दिन बाद उन्होंने पाया कि कई विचित्र जीव अणु उसमें उपज पड़े है, कुछ तो ‘एमीनो एसिड’ थे। इससे यह सिद्ध होता है, वातावरण की विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्राणियों का जीवन होना सम्भव है। यह भी सम्भव है कि उनमें से कुछ इतने शक्तिशाली हो कि दूर ग्रहों पर बैठे हुए अन्य ग्रहों-जिन में पृथ्वी भी सम्मिलित है- के लोगों पर शासन कर सकते है। उन्हें दण्ड दे सकते हों अथवा उन्हें अच्छी और उच्च स्थिति प्रदान कर सकते हो। लोकोत्तर निवासी पृथ्वी के लोगों को अदृश्य प्रेरणाएँ और सहायताएँ भी दे सकते है।

इस दृष्टि से यदि हम अपने आर्ष ग्रन्थों पर दिये गये सन्दर्भों और अनुसन्धानों को कसौटी पर उतारें, तो यह मानना पड़ेगा कि वे

सत्य है, आधारभूत है। अच्छे बुरे कर्मों के अनुसार जीवात्मा को अन्य लोकों में जाना पड़ता होगा और वहाँ वह अनुभूतियाँ होती होगी, जो कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में दी गई है।

इन वैज्ञानिक तथ्यों को देखते हुए, यदि कोई कहे कि मनुष्य को शुभ और सत्कर्म करना चाहिये, ताकि वह उच्च लोकों का आनन्द ले सके तो उसे हास्य या उपेक्षा की दृष्टि से नहीं, वैज्ञानिक दृष्टि से तथ्यपूर्ण अनुभव करना चाहिये। शास्त्रकार का यह वचन हम सबके लिये शिरोधार्य होना चाहिये-

सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्।

तथात्मानं समावत्स्व भ्रश्यसेन पुनयया।

यह मनुष्य शरीर पाना बड़ा दुर्लभ है। बड़े पुण्यों से यह प्राप्त किया जाता है। यह स्वर्गं की प्राप्ति का साधन है, इसलिये इस मनुष्य शरीर को प्राप्त करके इसे शुभ कर्मों में लगाना चाहिये, जिससे अवनति को प्राप्त न हो। पथ भ्रष्ट न हो।

जीवात्मा की अमरता को स्वीकार कर हमें भी ऊर्ध्व लोकों (स्वर्ग) और ब्रह्मानंद की प्राप्ति के प्रयत्न करने चाहिये। सत्कर्मों द्वारा आत्मा को विकसित करना उसका सर्वोत्तम और सरल उपाय है।


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