अपनों से अपनी बात - विदाई की घड़ियाँ, हमारी व्यथा-वेदना

January 1969

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आयु की दृष्टि में लगभग 60 वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। हमारे साँसारिक जीवन में एक बड़ा विराम यहीं लग जाना है। एक छोटे नाटक का यहीं पटाक्षेप है। दो वर्ष में कुछ ही अधिक दिन शेष हैं कि हमें अपनी वे सभी हलचलें बन्द कर देनी पड़ेगी जिनकी सर्वसाधारण को जानकारी बनी रहती हैं। इसके उपरान्त क्या करना होगा, इसकी सही रूपरेखा तो हमें भी मालूम नहीं है पर इतना सुनिश्चित है कि यदि आगे भी जीना पड़ा तो उससे सर्वसाधारण का कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध न होगा। कहना चाहिए जो ऐसा प्रकाश पाकर भी अन्धकार में भटके। यदि हमारी कोई विशेषता और बहादुरी है तो वह इतनी भर कि प्रलोभनों और आकर्षणों को चीरते हुए दैवी निर्देशों का पालन करने में हमने अपना सारा साहस और मनोबल झोंक दिया। जो सुझाया गया वही सोचा और जो कहा गया वही करने लगे। इसी प्रक्रिया में एक नगण्य सी जिन्दगी का एक छोटा-सा नाटक समाप्त हो चला, यही हमारी नन्हीं-सी आत्म-कथा है। अब जीवन के अन्तिम चरण में जो निर्देश मिला है उससे ऐसा विचित्र और कष्टकर निर्णय हमें स्वेच्छा से नहीं करना पड़ा है वरना इसके पीछे एक विवशता है। अब तक का सारा जीवन हमने एक ऐसी सत्ता के इशारे पर गुजारा है जो हर घड़ी हमारे साथ है। हमारी हर विचारणा और गति विधि पर उसका नियन्त्रण है। बाजीगर की उँगलियों से बंधी हुए धागों के साथ जुड़ी हुई कठपुतली तरह-तरह के अभिनय करती हैं। देखने वाले इसे कठपुतली की करतूत मानते हैं पर असल में वह बेजान लकड़ी का एक तुच्छ-सा उपकरण मात्र है। खेल तो बाजीगर की उँगलियाँ करती हैं। हमें पता नहीं कभी कोई इच्छा निज के मन में प्रेरणा से उठी है क्या? कोई क्रिया अपने मन से ही है क्या? जहाँ तक स्मृति साथ देती है एक ही अपना क्रम-एक ही ढर्रे पर लुढ़कता चला आ रहा है कि हमारी मार्ग-दर्शक शक्ति जिसे हम गुरुदेव के नाम से स्मरण करते हैं, जब भी जो निर्देश देती रही है बिना अनुनय किये कठपुतली की तरह सोचने और करने की हलचलें करते रहे हैं।

सौभाग्य ही कहना चाहिए कि आरम्भिक जीवन से ही हमें ऐसा मार्ग-दर्शन मिल गया। उसे अभागा ही इनकार कौन करे? कैसे करे? अपने बस की यह बात नहीं। जब सारी जिन्दगी के हँसते मुस्कराते दिन एक इशारे पर गुजार दिया तो अब इस जरा जीर्ण काया कि सुविधा-असुविधा का, परिजनों की मोह ममता का विचार कौन करे? दो ढाई वर्ष हमें अपना वर्तमान क्रिया कलाप समाप्त करना ही है और एक ऐसी तपश्चर्या में संलग्न होना ही है जिसमें जन संपर्क की न तो छूट है और न सुविधा।

पिछले और अगले दिनों की कभी तुलना करने लगते हैं तो लगता है छाती फट जाएगी और एक हूक पसलियों को चीर कर बाहर निकल पड़ेगी। कोई अपनी चमड़ी उखाड़कर भीतर का अन्तरंग परखने लगे तो उसे माँस और हड्डियों में एक तत्व उफनता दृष्टिगोचर होगा वह है असीम प्रेम। हमने जीवन में एक ही उपार्जन किया है-प्रेम एक ही सम्पदा कमाई है-प्रेम एक ही रस हमने चखा है और वह है प्रेम का। यों सभी में हमें अपनापन और आत्मभाव प्रतिबिंबित दिखाई पड़ता है पर उनके प्रति तो असीम ममता है जो एक लम्बी अवधि में भावनात्मक दृष्टि से हमारे अति समीप रहते रहे हैं। इनसे विलग होते हुए हमें कम व्यथा नहीं है।

प्रिय प्रेमी जन अपनी विरह वेदना व्यक्त करते हुए, यह बिछोह का अवसर टाल दो और अब तक की तरह आगे भी ऐसे ही बने रहो की बात कहते हैं तो उनकी आत्मीयता और व्यथा भली प्रकार समझ में आ जाती है। हर किसी को विश्वास रखना चाहिए कि और कुछ हमारे पास हो चाहे न हो असीम प्यार भरी ममता से हमारा अन्तःकरण भरा पूरा अवश्य है। जिसने हमें तिल-भर प्यार किया है उसके लिये अपने मन में से ताड़ बराबर ममता उमड़ी है। लम्बी अवधि से जिनके साथ हँसते, खेलते और प्यार करते चले आ रहे हैं उनसे विलग होने की बात सोचकर हमारा मन भी गाय बछड़े के वियोग की तरह कातर हो उठता है। कई बार लगता है कोई छाती में कुछ हूक रहा है। यह वियोग कैसे सहा जाएगा। जिसकी कल्पना मात्र से दिल बैठ जाता है, उसी असह्य को सहन करने में कितना बोझ पड़ेगा? और कहीं उस बोझ से यह टूट ढवड़ा चरमरा कर बैठ तो नहीं जायेगा ऐसी आशंका होती है।

ज्ञान और वैराग्य की पुस्तकें हमने बहुत पढ़ी है। माया, मोह की निरर्थकता पर बहुत प्रवचन सुने हैं। संसार मिथ्या है, कोई किसी का नहीं- सब स्वार्थ के हैं आदि आदि ब्रह्मचर्य में भी सम्मिलित होने का अवसर मिला है। यदा कदा उन शब्दों को दूसरों के सामने दुहराया भी हैं। पर अपनी दुर्बलता को प्रकट कर देना ही भला है कि हमारी मनोभूमि में अभी तक भी वह तत्व ज्ञान प्रवेश नहीं करता है। न कोई पराया दिखता है और न कहीं माया का आभास होता है जिससे विलग विरत हुआ जाय। जब अपनी ही आत्मा दूसरों में जगमगा रही है तो किससे मुँह मोड़ा जाय? किससे नाता तोड़ा जाय? जो हमें नहीं भुला पा रहे हैं, उन्हें हम कैसे भूल जायेंगे? जो साथ घुले और जुड़े हैं उनसे नाता कैसे तोड़ लें? कुछ भी सूझ नहीं पड़ता। पढ़ा हुआ ब्रह्मज्ञान रत्ती भर भी सहायता नहीं करता। इन दिनों, बहुत करके रात में जब आँख खुल जाती हैं तब यही प्रसंग मस्तिष्क में घूम जाता है। स्मृति पटल कर स्वजनों की हँसती बोलती मोह ममता से भरी एक कतार बढ़ती उमड़ती चली आती है। सभी एक से एक बढ़कर प्रेमी-सभी एक से एक बढ़कर आत्मीय-सभी की एक से एक बढ़कर ममता। इस स्वर्ग में से घसीट कर हमें कोई कहाँ लिये जो रहा है? क्यों लिये जा रहा है? इन्हें छोड़कर हम कहाँ रहेंगे? कैसे रहेंगे? कुछ भी तो सूझ नहीं पड़ता। आँखें बरसती रहती हैं और सिरहाने रखे वस्त्र गीले होते रहते हैं।

यह सोचने की गुँजाइश नहीं कि जिस कठोर कर्तव्य में हमें नियोजित किया जा रहा है वह अनुपयुक्त है। हमें कोई सता रहा है या बलात् विवश कर रहा है। हमें दूसरों से जितना प्यार है, हमारे मार्ग दर्शक को हमारे प्रति उसकी अपेक्षा कहीं अधिक प्यार है। स्वजनों की व्यथा हमें जैसे विचलित कर देती है हमारी व्यथा उन्हें कुछ भी प्रभावित न करती हो सो बात नहीं। पर वे दूरदर्शी हैं हम अज्ञानी। हमारे शरीर, मन और आत्मा का श्रम एवं सदुपयोग अधिक अच्छी तरह समझते हैं इससे उनके निर्णय और निर्देश अनुपयुक्त नहीं हो सकते। उसके पीछे हमारी आत्मा का और विश्व मानव का अविच्छिन्न हित साधन जुड़ा हुआ है यह सुनिश्चित है। यदि ऐसा न होता तो वे न तो हमारे परिवार को रुलाते और न हमें इधर उधर मुँह छिपाकर चुप-चुप सिसकते रहने की व्यथा-वेदना सहने का भार डालते।

गुरुदेव की विवशता है। आज की उबलती हुई दुनियाँ को शीतलता प्रदान कर सकने वाली परिस्थितियों की आवश्यकता है। वे परिस्थितियाँ समुद्र मंथन जैसे एक महान् संघर्ष से उत्पन्न होंगी। उस संघर्ष अभियान का सूत्र संचालन करने के लिये तेजस्वी आत्माओं का आगे आना आवश्यक है। ऐसी आत्मायें हैं तो पर उनकी नसों का ओज जम गया है। वे अकड़े और जकड़े बैठे हैं। जरूरत उस गर्मी की है जो इस अकड़न और जकड़न की स्थिति को बदले और जो जम गया है उसे पिघलाकर गतिशील बना दे। ऐसी गर्मी किसी प्रचण्ड तपस्या से ही उत्पन्न हो सकती है। पिछले स्वतन्त्रता संग्राम से ऐसी गर्मी श्री रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण और योगी अरविन्द जैसे तपस्वी उत्पन्न करते रहे हैं, अब उससे भी बड़ा मनुष्य के भावनात्मक नवनिर्माण का लक्ष सामने है। इसके लिये प्रबुद्ध आत्माओं का अवतरण और जागरण एक अनिवार्य आवश्यकता है। इसकी पूर्ति अनादि की उस सूक्ष्म ऊष्मा से भर देने पर ही सम्भव है जो समर्थ और सजग आत्माओं को तुच्छता के बन्धनों से मुक्त करके महानता की भूमिका में जागृत कर सके। ऐसी आत्मायें आज भी विद्यमान् है परा उनकी अज्ञात मूर्छा उठने ही नहीं देती। इनको जगाने के लिये जिस प्रखर ऊष्मा और प्रबल कोलाहल की जरूरत है वही किसी बड़े प्रयत्न से ही संभव है। लगता है ऐसा प्रयत्न उन्हें यह सूझा है जिसके आधार पर हमें कुछ ही दिन बाद एक अद्भुत तपश्चर्या में संलग्न होना है।

इतने महान् प्रयोजन की पूर्ति के लिये यदि अपने को पात्र समझ गया है तो यह बड़ी बात है। ऐसे सौभाग्य के लिये कुछ भी निछावर किया जा सकता है। भगवान् साहस दे तो जीवित दधीचि की तरह अपना माँस पशुओं को खिलाकर अस्थियों को उपहार देव प्रयोजन के लिये समर्पित कर देना एक अनुपम सौभाग्य ही माना जाएगा। छुट पुट त्याग, बलिदान तो इन साठ वर्षों में आये दिन करते रहने पड़े हैं पर अब अन्तिम पटाक्षेप के समय इतनी बड़ी परीक्षा में उत्तीर्ण होने का श्रेय मिलता है तो इससे कोई आत्मवेत्ता, सुखी, सन्तुष्ट, प्रसन्न और प्रमुदित ही हो सकता है। इसमें हमारे लिये रोने कलपने की क्यों आवश्यकता पड़े?

इन दिनों हमारी आन्तरिक स्थिति कुछ ऐसी है जिसका विश्लेषण कर सकना हमारे लिये कठिन है। हमारी व्यथा, वेदना के कष्ट से डरने की, परीक्षा में काँपने की अथवा मोह ममता न छोड़ सकने वाली अज्ञानी जैसी लगती भर है वस्तुतः वैसी है नहीं। डर या कायरता की मंजिल पार हो चुकी। सुख सुविधा की इच्छा के लिये अब मरने के दिनों गुँजाइश भी कहाँ रही? शौक मौज की आयु ढल गई। अब तो और कोई न सही अपना जराजीर्ण शरीर भी पग- पग पर असुविधाओं उत्पन्न करेगा ऐसी दशा में सुविधाओं की कामना, असुविधाओं की अनिच्छा भी रोने-कलपने का कारण नहीं हैं। कारण एक ही है हमारी भावुकता और छलछलाते प्यार से भरी मनोभूमि। जिनका रत्तीभर भी स्नेह हमने पाया है उनका बदला पहाड़ जैसा प्रतिदिन देने के लिये मन मचलता रहता है। अपनों के साथ अपनेपन भरा भावनात्मक आदान प्रदान अन्तः- करण में जो उल्लास उमगता रहता है उसका रस छोड़ते नहीं बनता। प्रियजनों के बिछोह की कल्पना न जाने क्या कलेजे को मरोड़ डालती हैं। ब्रह्मज्ञान की दृष्टि में यदि इसे मानवीय दुर्बलता कहा जाय तो हमें अपनी यह त्रुटि स्वीकार है। आखिर एक नगण्य से तुच्छ मानव ही तो हम हैं। कब हमने दावा किया है योगी यती होने का। हमारी दुर्बलता, ममता, बुद्धि यदि हमें आज बेतरह कचोटती हैं तो उसे हम छिपायेंगे भी नहीं। एक दुर्बल मानव प्राणी की भाव भरी दुर्बलता से उसके प्रियजनों को परिचित होना ही चाहिए।

यह एक तथ्य है कि हमारा हर कदम अपने छोटे से भाव भरे परिवार से विलुप्त होने की दशा में बढ़ रहा है। जब साठ वर्ष एक एक करके देखते देखते सामने बैठे पखेरुओं की तरह उड़ गये तो अब इन बेचारे दो वर्षों की क्या चलेगी। आजकल करते देखते देखते वह दिन भी आ रही रहा है जब हमें अपनी झोला और कम्बल पीठ पर लादे किसी अज्ञात दिशा में पदार्पण करते हुए देखा जाएगा और अन्तिम अभिवादन की एक कसक भर स्मृति लेकर हम सब अपने-अपने बन्धक क्षेत्रों की ओर लौट जायेंगे और एक सुखान्त कथानक का दुखान्त पटाक्षेप हो जाएगा। अब उस स्थिति को न तो टाला जा सकता है और न बदला। यह दर्द भरा दुखान्त पटाक्षेप हमारे लिये कितना असह्य होगा और छाती पर कितना बड़ा पत्थर बाँध कर हम अपना मानसिक सन्तुलन फिर स्थिर कर सकेंगे? इस सम्बन्ध में अभी कुछ कह सकना कठिन है। समय ही बतायेगा कि उस समय कैसी बीतेगी और उसका समाधान कैसे सम्भव होगा?

अभी तो इतना ही आवश्यकता प्रतीत होता हैं कि एक बार अपनी जी की दबी हुई व्यथायें अपने स्वजन परिजनों के सामने बैठकर खोलते। कहते हैं कि मन खोलकर कह लेने में चित्त हलका हो जाता है। परिजनों को अनावश्यक भी लगे पर हमारे लिये यह सुखद ही होगा। जो हमें थोड़ी राहत दे सके ऐसा कुछ निरर्थक हो तो भी उदारता पूर्वक उसे सुन भी लिया जाना चाहिए। यह पँक्तियाँ लिखते हुए सोचा यही गया है कि पाठक इसे बिना ऊँचा पढ़ते, सुनते रहेंगे, जो काफी लम्बी है और कई अंकों तक चलेगी।

सबसे बड़ा भार हमारे ऊपर उन भाव भरी सद्भावनाओं का है जिन्हें ज्ञात और अज्ञात व्यक्तियों न हमारे ऊपर समय-समय पर बरसाया है। सोच नहीं पाते कि इनका बदला कैसे चुकाया जाय। ऋण हमारे ऊपर बहुत है। जितना असीम प्यार, जितनी आत्माओं का, कितनी आत्मीयता और सौजन्यता से हमने पाया है उसकी स्मृति से जहाँ एक बार रोम-रोम पुलकित हो जाता है वहाँ दूसरे ही क्षण यह सोचते हैं कि उनका बदला कैसे चुकाया जाय। प्रेम का प्रतिदान भी तो दिया जाता है, लेकर के ही तो नहीं चला जाना चाहिए, जिससे पाया हैं उसे देना भी तो चाहिए। अपना नन्हा-सा कलेवर, नन्हा-सा दिल, नन्हा-सा प्यार, किस किस का कितना प्रतिदान चुका सकना इससे सम्भव होगा, यह विचार आते ही चित्त बहुत भारी और बहुत उदास हो जाता है।

जिसने हमारी कुछ सेवा सहायता की है, उनकी पाई-पाई चुका देंगे। न हमें स्वर्ग जाना है और न मुक्ति लेनी है। चौरासी लाख योनियों के चक्र में एक बार भगवान से प्रार्थना करके इसलिये प्रवेश करेंगे कि इस जन्म में जिस-जिस न जितना-जितना उपकार हमारा किया हो, जितनी सहायता की हो उसका एक-एक कण ब्याज सहित हमारे उस चौरासी चक्र में भुगतान करा दिया जाये। घास, फूल, पेड़, लकड़ी, बैल, गाय, गधा, भेड़ आदि बन कर हम किसी न किसी के कुछ काम आते रह सकते हैं और इससे अपने उपकारियों के अनुदान का बदला पूरे अधूरे रूप में चुकाते रह सकते हैं। सद्भावना का भार ही क्या कम है जो किसी की सहायता का भार और ओढ़ा जाय? यह सुविधा भगवान् से लड़ झगड़कर प्राप्त कर लेंगे पर जितने समय-समय पर ममता भरा प्यार हमें दिया है, हमारी तुच्छता को भुलाकर जो आदर, सम्मान, श्रद्धा, सद्भाव, स्नेह एवं अपनत्व प्रदान किया है उनके लिये क्या कुछ किया जाय समझ में नहीं आता। इच्छा प्रबल है कि अपना हृदय कोई बादल जैसा बना दे और उसमें प्यार का इतना जल भर दे कि जहाँ से एक बूँद स्नेह की मिली हो वहाँ एक प्रहर की वर्षा कर सकने का सुअवसर मिल जाय मालूम नहीं ऐसा सम्भव होगा कि नहीं, यदि सम्भव न हो सके तो हमारी अभिव्यंजना उन सभी तक पहुँचे जिनकी सद्भावना किसी रूप में हमें प्राप्त हुई हो। वे उदार सज्जन अनुभव करें कि उनके प्यार को भुलाया नहीं गया वरन् उसे पूरी तरह स्मरण रखा गया। बदला न चुकाया जा सका तो भी अपरिमित कृतज्ञता की भावना लेकर विदा हो रहे हैं। यह कृतज्ञता का ऋण भार तब तक सिर पर उठाये रहेंगे जब तक हमारी सत्ता कहीं बनी रहेगी। प्रत्युपकार प्रतिदान न बन सका हो तो प्रेमी परिजन समझें कि उनकी उदारता को कृतघ्नतापूर्वक भुलाया नहीं गया। हमारा कृतज्ञ मस्तक उनके चरणों में सदा विनम्र और विनयावत बना रहेगा जिन्होंने हमारे दोष दुर्गुणों के प्रति घृणा न करके केवल हमारे सद्गुण देखे और सद्भावनापूर्ण स्नेह और सम्मान प्रदान किया।

मन की दूसरी व्यथा जो खोलकर रखनी है यह है कि यह शरीर साठ वर्ष की लम्बी अवधि तक अगणित मनुष्यों और जीव जन्तुओं की सेवा सहायता से लाभ उठाता रहा है। जीवन धारण करने की क्रिया में असंख्यों की ज्ञात-अज्ञात सहायता का लाभ मिला है। अन्त में ऐसे शरीर का क्या किया जाय? सोचते हैं यह मरते-मरते नष्ट होते-होते किसी के कुछ काम आ सके तो इसकी कुछ सार्थक बन जाय। मौत सबको आती है-जरा जीर्ण शरीर के तो वह और भी अधिक निकट होती है। आज नहीं तो कल हमें भी मरना है। कही अज्ञात स्थिति में यह जल जाय तो बात दूसरी है अन्यथा मनुष्यों की पहुँच के भीतर स्थिति में प्राण निकले तो उस विकृत कलेवर का धूम धाम से संस्कार प्रदर्शन बिल्कुल न किया जाय हमने वसीयत कर दी है और इस घोषणा को ही वसीयत मान लिया जाय कि मरने से, पूरी मौत से पहले ही जब तक जीवन विद्यमान् रहे सारा रक्त निकाल लिया जाय और उसे किसी आवश्यकता वाले रोगी को दे दिया जाय। अब आँखें, फेफड़े, गुर्दे, दिल आदि अंग दूसरों के काम आने लगे हैं, तब तक शायद चमड़ी, माँस हड्डी आदि का भी कुछ उपयोग दूसरे रोगियों को यह अंग लगाने में होने लगे। जो भी अंग किसी के काम आ सकता हो तो उसे सरकारी संरक्षण

*समाप्त*


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