समाज की अभिनव रचना-सद्विचारों से

January 1969

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सामाजिक सुख शांति के लिये केवल राज दण्ड अथवा राज नियमों पर निर्भर रहा जा सकता और न उसकी स्थापना मात्र निन्दा करते रहने से ही सम्भव है। राजदण्ड, राज नियम और सामूहिक निन्दा भी आवश्यक है, उनकी उपयोगिता भी कम नहीं है, तथापि यह समाज में व्याप्त पापों ओर अपराधों का पूर्ण उपचार नहीं है। इसके साथ निरपराध एवं निष्पाप समाज की रचना के लिये मनुष्यों के आन्तरिक स्तर का सद्विचारों से भरापूरा रहना भी आवश्यक है। मनुष्यों का अन्तर जब तक स्वयं ही उज्ज्वल व सदाशयतापूर्ण न होगा,निष्पाप समाज की रचना का स्वप्न अधूरा ही बना रहेगा। राज नियमों के प्रति आदर, निन्दा के प्रति भय और समाज के प्रति निष्ठा भी तो ऐसे व्यक्तियों में होती है, जिनके हृदय उदार और उज्ज्वल होते है। मलीन और कलुषित हृदय वाले अपराधी लोग इस सबकी परवाह कब करते है।

संसार में सारे कष्टों की जड़ कुकर्म ही होते है, इसमें किसी प्रकार का सन्देह नहीं संसार में जिस परिमाण से कुकर्म बढ़ेंगे, दुःख क्लेश भी उसी मात्रा में बढ़ते जायेंगे यदि संसार में सुख शांति की स्थापना वाँछनीय है तो पहले कुकर्मों को हटाना होगा। कुकर्मों को घुटने, हटाने ओर मिटाने का एक ही उपाय है कि मनुष्य की विचार धारा में आदर्शवाद का समावेश किया जाये। मस्तिष्क को घेरे रहने वाली अनैतिक एवं अवांछनीय विचार धारा ही कुकर्मों को जन्म दिया करती है। यदि विचार सही और शुद्ध हों तो मनुष्य से कुकर्म बन पड़ने की सम्भावना नहीं रहती।

विचारों की बुराई ही बुरे कर्मों के रूप में प्रकट होती है। जिस प्रकार हिमपात का कारण हवा में पानी का होना है-यदि हवा में पानी का अंश न हो तो बरफ गिर ही नहीं सकती, पानी ही तो जम कर बरफ बनती है। इसी प्रकार यदि विचारों में बुराई का अंश हो तो अपकर्ष न बन पड़े। मनुष्य के कुकर्म उसके विचारों का ही स्थूल रूप होता है। अस्तु, कुकर्मों को नष्ट करने के लिये विचारों में व्याप्त मलीनता को नष्ट करना ही होगा।

मनुष्य के बिगड़े विचारों का सुधार राज नियमों अथवा राज दण्ड के भय से नहीं हो सकता। उसके लिये तो उसकी विरोधी विचार धारा को ही सामने लाना होगा। असद्विचारों का उपचार सद्विचारों के सिवाय और क्या हो सकता है? आये दिन लोग पाप करते रहते है और उसका दण्ड भी पाते रहते है, लेकिन उससे पार होकर फिर पाप में प्रवृत्त हो जाते है। दूषित विचारधारा के कारण लोगों के सोचने, समझने का ढंग भी अजीब हो जाता है। दण्ड पाने के बाद भी चोर सोचता है-क्या हुआ कुछ दिनों को कष्ट मिल गया-उससे हमारी क्या विशेष हानि हो गई? चलो फिर कही हाथ मारेंगे। यदि गहरा हाथ लग गया, तब तो कचहरी अदालत से निपट ही लेंगे, नहीं तो फँस गए तो फिर कुछ दिनों की काट आयेंगे। अपने काम के लाभ का त्याग क्यों किया जाय? जुआरी सोचता है यदि आज हार गये तो क्या हुआ, कल जीत कर मालामाल हो जायेंगे। हानि लाभ कब निश्चित है। जिस प्रकार पैसे का एक अन्धा खेल है, उसी प्रकार हमारा खेल भी पैसे का अन्धा खेल है। जीते तो पौबारह, नहीं तो कुछ घाटा ही सही।

इसी प्रकार कोई व्यभिचारी भी सोच सकता है। मैं जो कुछ करता हूँ अपने लिये करता हूँ। उसकी हानि होगी तो हमको ही होगी। पैसा हमारा जाता, स्वास्थ्य हमारा बरबाद होता, रोगी होंगे तो हम होंगे, गृह कलह हमारे घर पैदा होगा, इसमें समाज का क्या जाता है। न जाने हमारी व्यक्तिगत बातों की निन्दा करता हुआ, व्यर्थ में क्यों माल बजाया करता है? यह सब सोचना क्या है? दूषित विचार धारा का परिणाम है। समाज से अपने को पृथक मानकर चलना अथवा अपने व्यक्तिगत कर्मों का फल व्यक्तिगत मानना बुद्धि हीनता के सिवाय ओर कुछ नहीं है। मनुष्य जो कुछ सोचता अथवा करता है, उसका सम्बन्ध किन्हीं दूसरों से अवश्य रहता है। यह बात भिन्न है कि वह सम्बन्ध निकट का हो अथवा दूर का, प्रत्यक्ष हो अथवा परोक्ष। समाज से अपने को अथवा समाज को अपने से पृथक मानकर चलना दूषित विचार धारा का प्रमाण है।

कुविचार के कारण प्रायः लोग यह नहीं समझ पाते कि अपकर्मों में जो तात्कालिक लाभ अथवा आनन्द दिखलाई देता है, वह भविष्य के बहुत से सुखों को नष्ट कर देता है। तात्कालिक लाभ के कारण लोग पाप के आकर्षण पर नियंत्रण, नहीं रख पाते ओर उस ओर प्रेरित हो जाते है। सोच लेते है कि अभी जो आनन्द मिल रहा है, उसे तो ले ही ले, भविष्य में जो होगा देखा जायेगा। इस प्रकार से वर्तमान पर भविष्य को बलिदान करने वाले व्यक्ति बुद्धिमान नहीं माने जा सकते। बुद्धिमान वही होता है, जो वर्तमान की आधार शिला पर अपने भविष्य का राजमहल खड़ा करता है। ऐसे ही विचारहीन वर्तमान के लोभी अपने लिए और अपने साथ समाज के लिये कष्ट कर परिस्थितियाँ पैदा किया करते है। यदि ऐसे लोगों की विचारधारा में संशोधन करके समाजमुखी बनाया जा सके तो निष्पाप समाज की रचना बहुत कठिन न रह जाये।

मनुष्यों का कुमार्ग पर भटक जाने का एक कारण और भी है। सत्कर्मों का कोई तात्कालिक लाभ उतना शीघ्र नहीं मिलता, जितना शीघ्र असत्य अथवा बेईमानी आदि कुकर्मों का लाभ। फिर सत्कर्मों में कुछ त्याग भी रहता है, कुछ कष्ट भी। इस सरलता के धोखे में आकर लोग सन्मार्ग पर न चलकर कुमार्ग की ओर बढ़ जाते है। ऐसे लाभ के लोभी जल्दबाजी को सोचना चाहिये कि धीरज का फल मीठा भी होता है और देर तक आनन्द देने वाला भी। पहले कष्ट उठाकर पीछे सुख पाना अधिक आनन्ददायक है, बदले इसके कि पहले तो थोड़ा सा मजा ले लिया जाय और फिर पीछे देर तक कष्ट भोग किया जाय। ऐसे लोभी लोग ही अविवेक के कारण मजा लेने के लिए तमाम चीजें खाते रहते है। वे स्वाद के कारण पथ्य, अपथ्य अथवा भोक्ता भुक्त का विचार नहीं करते और चार दिनों के मजा के लिये महीनों बीमार होकर चारपाई पर पड़े पड़े रोपा करते है। ऐसे रोगियों ओर अदूरदर्शी व्यक्तियों से समाज को कष्ट देने के सिवाय सुख की आशा किस प्रकार की जा सकती है।

पवित्र विचारधारा के लोग अपने कर्मों के दूरगामी और समाज सम्बन्धी हानि लाभ पर विचार कर लेना अपना कर्तव्य समझते है। ऐसे पावन मनुष्य ही संसार में सुख शांति की वृद्धि में सहायक सिद्ध होते है। जो जीवन को कोई महत्व समझते है, जिनके जीने का कोई अदृश्य होता है और जिनके मन मस्तिष्क में पृथकता की संकीर्णता नहीं होती, जो अन्तःकरण में परमात्मा के निवास का विश्वास रखते है, उनसे अपकर्म बन पड़ना सम्भव नहीं होता। उन्हें लोक परलोक, जीवन जन्म के बनने बिगड़ने का विचार रहता है।

ऐसे पवित्रात्मा जन कष्टकर होने पर भी सत्कर्म से विमुख नहीं होते। कुकर्मों द्वारा होने वाले बड़े बड़े लाभों की उपेक्षा करके सत्कर्मों से होने वाले थोड़े लाभ में ही संतुष्ट हो जाते है। उन्हें पुण्य परमार्थ, ईश्वरीय न्याय और समयानुसार सत्कर्मों के मंगलमय परिणाम में विश्वास रहता है। उनका यह विश्वास ही उन्हें कुकर्मों के चक्रों से बचाकर भवसागर से पार उतार ले जाता है। इस पुण्य पूर्ण विश्वास के अभाव में मनुष्य उसी प्रकार अवांछित दिशा में भटक जाता है, जिस प्रकार निराधार नाव कही से कही को चल देती है। जिसका मन मंगल भावनाओं से ओत प्रोत नहीं, जिसका मस्तिष्क ठीक दिशा में सोचने का अभ्यस्त नहीं, उसे कुविचार और कुभावनायें घेरेंगी ही ओर उनके फलस्वरूप वह कुकर्म करके अपने और समाज दोनों के लिये दुःख का कारण बनेगा ही। विचारों के आधार पर मनुष्य सुखी ओर दुःखी होता है। इसलिये उन्हें ही समाज की अभिनव रचना और उसकी निरामयाः का आधार मानकर चलना हमारा सबका कर्तव्य है।

निष्पाप समाज की रचना का आधार सद्विचार है, किन्तु सद्विचारों की रचना का उपाय क्या है, इसको जाने बिना समस्या का पूरा समाधान नहीं होता। सद्विचारों की रचना का उपाय अध्यात्मवाद को माना गया है। ऐसे अध्यात्मवाद को जिसका आधार परमार्थ ओर परहित हो। जो जितना परमार्थवादी होगा, वह उसी गहराई से जन जन में उसी आत्मा का दर्शन करेगा, जिसका निवास उसके स्वं के अस्तित्व में है। परमार्थी व्यक्ति अपने से भिन्न किसी को नहीं देखता और जिस प्रकार वह अपने को कष्ट देना पसन्द नहीं करता उसी प्रकार किसी दूसरे को कष्ट देने का विचार नहीं रखता। वह दूसरों की सेवा और परोपकार के पथिक के पास असद्विचार उसी प्रकार नहीं आते जिस प्रकार विरागी व्यक्ति के पास माया मोह नहीं आने पाते।

दया, करुणा ओर प्रेम परमार्थ प्रधान व्यक्ति के ऐसे गुण है, जिनको संसार का कोई भी प्रलोभन अथवा परिस्थिति उससे नहीं छीन सकती। परमार्थ प्रधान अध्यात्मवाद सद्विचारों की रचना का अमोघ उपाय है। इसी के आधार पर ऋषियों, मुनियों और मनीषी व्यक्तियों ने अमर आत्म सुख का लाभ पाया और उसका प्रसाद संसार को बाँटकर अपना मानव जीवन धन्य बनाया है।

सच्चा आध्यात्मिक व्यक्ति अखण्ड आस्तिक होता है। वह कण कण में व्यापक प्रभु का दर्शन पाता और नमस्कार में अपनी विनम्रता व्यक्त करता रहता है। जिस व्यक्ति को सब ओर, सब जगह, भीतर बाहर अपने में और दूसरे में परमात्मा की उपस्थिति का अविरल विश्वास बना रहेगा, उसके मन में कुविचारों का आना किस प्रकार सम्भव हो सकता है? वह तो सदा सर्वदा ऐसे ही कर्म करने और भावनायें रखने का प्रयत्न करता रहेगा, जो उसके सर्वशक्तिमान प्रभु को पसन्द हो, जिनसे वह प्रसन्न हो सके।

परमात्मा की प्रसन्नता का सम्पादन करना ही सच्ची आस्तिकता भी है। ईश्वर का अस्तित्व मानकर भी दुष्कर्म करने अथवा दुर्भाव रखने वाला यदि अपने को आस्तिक कहता है तो उसका यह कथन उपहास के सिवाय विश्वास का विषय नहीं बन सकता। ईश्वर में विश्वास रखकर भी जो व्यक्ति दुष्कर्म करता अथवा दुर्भावनायें रखता है, जो ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखता। ऐसे आस्तिक बनाम नास्तिक को सौ वर्ष की तपस्या के बाद भी क्षमा नहीं किया जा सकता।

संसार की वास्तविक सुख शांति के लिये निष्पाप समाज की रचना का स्वप्न तभी साकार हो सकता है, अब आस्तिकतापूर्ण अध्यात्मवाद द्वारा विचारों का परिमार्जन कर नित्यप्रति होने वाले कुकर्मों पर प्रतिबन्ध लगा दिया जाये। क्योंकि विचारों से कर्म ओर कर्मों से दुःख सुख का अविच्छिन्न सम्बन्ध है। इससे अन्यथा संसार में स्थायी और वास्तविक सुख शांति का कोई उपाय दृष्टि गोचर नहीं होता।


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