धर्म रहित विज्ञान हमारा सर्वनाश करके छोड़ेगा

January 1969

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विज्ञान ने मनुष्य को बहुत सुख सुविधायें प्रदान की है। इनसे कौन इनकार कर सकता है। यातायात के सुन्दर साधन, चिकित्सा के बढ़िया उपकरण और औषधियाँ कृषि और उद्योग बढ़ाने वाली बढ़िया मशीनें देकर अनन्त उपकार किये है। विज्ञान है मनुष्य जाति के साथ। किन्तु यदि उन आँकड़ों और परिणामों तक भी पहुँचा जा सके, जो सामान्य रूप से सामने नहीं आते तो यही पता चलेगा कि विज्ञान अच्छा है अवश्य पर धार्मिक नियन्त्रण के अभाव में उससे अपराध, उद्दण्डता और भयानकता का ही अधिक विकास हुआ है। जनहित उसके आगे चींटी के बच्चे की तरह रह गया।

जब यह विश्वास कर लिया जाता है कि विश्व रचना की प्रधान भूमिका किसी समर्थ सत्ता के हाथ में है जो हमें दिखाई नहीं देती पर स्वयं सबको देख सकती है। और तद्नुरूप कर्मफल भी प्रदान करती रहती है। तब मनुष्य अपराध नहीं कर सकता। सामाजिक दण्ड से बचने के लिये बुद्धि काम कर जाती है पर जब घट घट में व्याप्त परमात्मा का भय हो जाता है तो मनुष्य एकान्त और निर्जन में भी पाप करने से काँपता है, इसलिये धर्म की महत्ता और आवश्यकता सर्वोपरि है। विज्ञान न ईश्वर को मानता है, न धर्म की ओर न कर्मफल को ऐसी दशा में वह पाप की ओर से हमें उच्छृंखल एवं स्वच्छन्द ही बना सकता है। विज्ञान को धर्म का आश्रित रखा गया होता तो आज की तरह परिस्थितियाँ भयंकर न होतीं।

एक वैज्ञानिक की प्रयोगशाला की ओर आपको ले चलना चाहेंगे, जहाँ आपके लिये दवायें बनती है। जहाँ औषधि, शारीरिक क्रिया, अन्तरिक्ष आदि के प्रभाव को जानने के लिये परीक्षण किए जाते है। वहाँ तरह तरह की पीड़ा और यन्त्रणाएँ पाते हुए,पशु पक्षियों और कीटपतंगों के साथ हो रही निर्दयता को आप देखेंगे तो कहेंगे यह सुविधायें और उपलब्धियों की अपेक्षा हम अभाव ग्रस्त रहे होते तो कही अच्छा था।

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में एक प्रयोग चल रहा था। कई कुत्तों को जंजीर से बाँध कर आग की लपटों में फेंक दिया गया। 5-7 दिन तक कुत्ते चिनगारियों में तड़प तड़प कर झुलसते रहे। उस अवस्था में भी उनको जान से नहीं मारा गया, क्योंकि वहाँ प्रोफेसरों को उद्वेगों की उत्पत्ति पर परीक्षण करना था। ऐसे ही एक प्रयोग में कोलम्बिया विश्वविद्यालय में कुत्तों के हाथ पैरों को हथौड़ों से इस तरह कूटा और कुचला गया, जिस तरह लोहार लोहे को घन से पीटता है।

अधिकांश कुत्ते उसी दिन मर गये। तीन कुत्ते बचे उन्हें अगले दिन फिर प्रयोगशाला में लाया गया। बेचारों ने घुट घुट कर प्राण् त्यागे। प्रयोगों के दरम्यान इन्हें पीटता, भूखों मारना, जलाना, सर्दी में ठिठुरना, आँखें फोड़ना, जब तक थक कर बेहोश न हो जायें-दौड़ाना पानी में डूबो देना, सोने न देना, चमड़ी उधेड़ लेना, शरीर के किसी अंग को विषाणुओं के इंजेक्शन देकर उस हिस्से को सड़ाकर इंजेक्शन तैयार करना, शरीर को जीवित काटकर अनेक प्रकार की चर्बी और औषधियाँ प्राप्त करना, यह सब अन्धी कोठरियों में होता रहता है, विज्ञान के विकास के लिये।

1928 से जान हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी के अन्वेषक बिल्लियों पर प्रयोग कर रहे है। उनको चमड़ी पकड़कर नोंचा और झकझोरा जाता है, कान और पूँछ खींची जाती है, पिटाई की जाती है। यह सब केवल इसलिये किया जाता है कि ऐसा करते समय जीवाणुओं की हलचल का पता लगाया जा सके। एक बार एक बिल्ली की पूँछ को भींचकर किसी औजार से इतना दबाया गया कि खून छलछला उठा। यह बिल्ली 140 दिन जिन्दा रही। इस बीच उसे लगभग 100 दिन इसी तरह उत्पीड़ित किया गया। एक बार कई कुत्ते 65 दिन बिल्कुल भूखे रखे गये। उनके पहले भी किया जा चुका है। तात्पर्य यह है कि इस तरह के भयंकर प्रयोग इतने छुपा कर किए जाते है कि पड़ोसी अध्यापक भी नहीं जान पाते।

अमेरिका के वाल्टर अस्पताल में बन्दरों को 9-9 घण्टे बेहोश रखा गया। चेतना आने पर उनके मस्तिष्क का कुछ अंश काटकर उनमें बिजली के करेंट दौड़ाया गया। बन्दर बुरी तरह चीखते। कई बार 6-6 घण्टे तक लगातार बिजली का करेंट डालकर तड़पाया गया। बन्दर उछल कूद करते है तो उन्हें ऐसी निर्दयता से बाँधा जाता है कि वे हिलडुल तक न सकें। उस समय उनकी आँख, मुँह और चिल्लाहट से ही उनके भय, कष्ट और पीड़ा को आँका जा सकता है। प्रयोग के बाद न उन्हें कोई भोजन, न पानी, न हवा, न औषधि बेचारे तड़प तड़प कर प्राण देते है और मनुष्य जाति को आशीर्वाद देते विदा होते है-ओरे निर्दय मनुष्य तू किसी का दर्द नहीं जान सकता, तो तेरी भी दुर्गति ही होगी।

चूहे, मेंढक, मछली और छोटे छोटे कीड़ों को काटना तो अब साधारण बात हो गई है, कौन जाने इन प्रयोगों में एक दिन स्वयं मनुष्य को ही न काटा जाने लगे। कही लुक छिप कर होता भी हो तो कुछ आश्चर्य नहीं।

यह मूक आत्माओं के शाप कभी निरर्थक नहीं हो सकते। सबसे धनी देश अमेरिका, आज सबसे अधिक दुःखी है। अपराध और आत्म हत्याएँ वही सर्वाधिक होती है। पागल और विक्षिप्तों की वहाँ कतारें लगी है। पति पत्नी कोई कोई ऐसा होगा, जहाँ परस्पर प्रेम और विश्वास हो, अधिकांश एक दूसरे से सशंकित ही रहते है। यह उन अदृश्य अभिशापों का ही प्रतिफल हो सकता है।

पशु माना कि अपने कर्मों से उन योनियों में आये है पर उन्हें उन असुविधाजनक योनियों में पहुँचाकर विधाता ने जो दण्ड देना था दे दिया। उससे आगे दण्ड देने का मनुष्य को कोई अधिकार नहीं। उच्छृंखलता का बर्ताव जब उनके साथ किया जा सकता है, तो यही स्वभाव एक दिन मनुष्य से भेद करा सकता है, वही इन देशों में हो भी रहा है।

इन प्रयोग और उपलब्धियों से जो उपकरण बनते चले जा रहे है, उनकी भयानकता का चित्रण करते हुए, अमेरिका के सुविख्यात विज्ञान लेखक आइजैक आसिमोव ने सन् 1990 में दुनियाँ का नक्शा प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि-कल कारखाने व मोटरें जिस तेजी से बढ़ रही है, उसे देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि 1990 में शुद्ध वायु और जल मिलना असम्भव हो जायेगा। उस समय धूम्रपान रोकने के लिये एक ऐसा घर बनाना पड़ेगा, जहाँ सब बीड़ी पिया करेंगे खुले आम कोई न पी सकेगा, क्योंकि अभी तो बीड़ी सिगरेट पीने वालों को ओठ और फेफड़े के कैंसर हो रहे है, तब धुँआ इतना बढ़ जायेगा कि न पीने वालों को भी तम्बाकू के धुँए से फेफड़े और त्वचा का कैंसर होने लगेगा।”

“शुद्ध पानी केवल समुद्र को साफ करने से ही मिल सकेगा, वह भी बहुत महँगा पड़ेगा। प्रति व्यक्ति शुद्ध पानी का राशन तक किया जा सकेगा। लोग बस्ती वाले क्षेत्रों के शोर गुल से इतना ऊब जायेंगे कि हर कोई जंगल की और भागेगा, कुछ लोग समुद्र में रहना चाहेंगे, पर तब यह समस्या पैदा होगी कि आणविक रद्दी (रेडियो एक्टिव वेस्ट) को कहाँ फेंका जायेगा। क्योंकि उसका जहर भी मनुष्य के लिये घातक होगा। तब उसे सम्भव है शीशे के घनों में भर कर समुद्र में ही डूबोया जाये।”

विज्ञान ने मनुष्य की परिस्थिति को सुधारा नहीं उलझा दिया है। चिकित्सा क्षेत्र में ही अनेक महत्त्वपूर्ण खोजें हुई है, पर यदि मनुष्य का भावनात्मक स्तर विकसित नहीं होता तो वह सुविधायें भी प्राण लेवा बन सकती है। विदेशों में नींद न आने पर नींद की गोली खाने का आम रिवाज है। पर वह स्वयं इतनी खतरनाक है कि आगामी पीढ़ी को शंकर जी की बारात बना सकती है। बेल्जियम के लीज नगर में सैजा वाँदेपुत माइकेल नामक एक सुन्दर तरुणी जिसे प्रायः गोलियाँ लेकर नींद बुलानी पड़ती थी, जब उसे बच्चा हुआ, तो उसके सब ड़ड़ड़ड़ सुन्दर और स्वस्थ थे, किन्तु उसके हाथ ही नहीं थे। माँ ने स्वयं बच्चे को एक दबा की प्राण घातक मात्रा देकर उसे इस कष्ट से छुटकारा दिलाया। बाद में उसे गिरफ्तार भी किया गया। पर न तो गिरफ्तारी कुछ कर सकती है और न दवाओं पर नियन्त्रण। उनकी प्रतिक्रिया तो कही भी किसी न किसी रूप परिलक्षित होती ही है।

एरिजोना (अमेरिका) की श्रीमती फिकवाइन को थैलिडोमाइड की टिकिया दी गई। दवा ने हृदय को प्रभावित किया। वह गर्भवती थीं, डाक्टरों ने बताया कि उन्हें जो संतान होगी, वह लंगड़ी-लूली होगी। फिकबाइन ने बच्चे के भ्रूण को ही मार डालने का निश्चय किया पर एरिजोना में गर्भपात अपराध है, इसलिये उसने स्वीडन जाकर गर्भपात किया। इस नींद लाने वाली दवा के कारण लंगड़ी-लूली सन्तानों की संख्या विदेशों में तेजी से बढ़ रही है। यह सब वर्तमान विज्ञान की दोहरी देन है, एक ओर तो भावनाओं का गिर जाना और दूसरी ओर जहरीले पदार्थों को शरीर में पहुँचाना। इससे अधिक तो वह अल्प-विकसित देश ही सुखी हैं, जिनमें विज्ञान का प्रसार उतना नहीं हुआ।

थैलिडोमाइड ही नहीं, डाइएथिलीन ग्लाइकोज, स्टालिनोत आदि औषधियों ने हजारों की जानें लीं और अनेक अष्टावक्र पैदा किये हैं। स्व० डा राममनोहर लोहिया ने एकबार दाँतों को पुष्ट करने वाली एक दवा के विरुद्ध कुछ प्रमाण प्रस्तुत किये थे। उस के बाद राज्य सरकार को उस दवा पर प्रतिबन्ध लगाना पड़ा था। यहाँ हमारा तात्पर्य यह नहीं कि दवायें सर्वथा बुरी हैं वरन हम विज्ञान के उस पक्ष को व्यक्त करना चाहते हैं, जो मनुष्य को अस्वाभाविक क्रियाओं की प्रेरणा देता है और उससे मानव-जाति का संकट बढ़ता है। यह संकट मानव-जाति पर निरन्तर गहरा होता जा रहा है।

जर्मनी के औचविज स्मारक को अभी युगों तक भूला न जा सकेगा, यह वह स्थान है, जहाँ 40 लाख लोगों को नाजियों ने एक साथ मृत्यु के घाट उतार दिया था। उससे क्रूर अत्याचार मानव-जाति के इतिहास में नहीं है, किन्तु आधुनिक विज्ञान उससे भी बड़े अत्याचारों की तैयारी कर रहा है। फिलहाल संसार 700 अरब रुपये प्रतिवर्ष शस्त्रास्त्रों पर व्यय करता है। एक ब्रिटिश विमान-वाहक जंगी जहाज 8611 करोड़ रुपये में पड़ता है, जबकि 53 करोड़ रुपये से मिश्र के प्रत्येक नागरिक को शुद्ध जल की व्यवस्था की जा सकती है। इतनी रकम से 600 अच्छे देहाती अस्पताल खोले जा सकते हैं। एक एटलस मिसाइल लगभग 40 करोड़ रुपये का पड़ता है, इतनी पूँजी को यदि नाइट्रोजन खाद का कारखाना बनाने में लगा दिया जाये तो उससे 50 से 70 टन वार्षिक उत्पादन वाला कारखाना तैयार हो सकता है। एक पोलारिस मिसाइल ब्रिटेन के चार विश्व-विद्यालय, एक ए.बी. बमवर्षक से सात सौ सेकेंडरी स्कूल, एक टी.एस.आर. 2 से पचास सर्व धन सम्पन्न अस्पतालों का एक वर्ष का खर्चा चल सकता है। एक मिसाइल विध्वंसक की कीमत से एक लाख ट्रैक्टर खरीदे जा सकते है। इतनी भारी शक्ति विज्ञान ने केवल मानवीय सभ्यता के विनाश के लिये तैयार की है और उसके प्रयोग के बाद कैसी भयंकर परिस्थिति उत्पन्न होगी, उसका अभी अनुमान बाकी है। जब यह सब वस्तुएँ बन रही है तो परिणाम भी किसी न किसी दिन निकलना ही है।

आधुनिक भौतिकतावादी विज्ञान ने नैतिक आदर्शों और भावनात्मक उत्कृष्टता पर इतनी गहरी चोट की है कि पशु पक्षियों को ही नहीं मनुष्य को भी अब घास पात की तरह जलती हुई भट्ठियों में झोंक देने वाला मान लिया गया है। व्यक्ति और समाज में बढ़ती हुई उद्विग्नता, रुग्णता, वेदना एवं व्यथा इस बात का प्रमाण है कि विज्ञान के प्रतिफल मानवीय आदर्श और आकांक्षाओं के विपरीत ही गये है। उसने मनुष्य को सामूहिक आत्महत्या के गर्त की ओर ही धकेलने का प्रयास किया और कर रहा है।

प्रेसीडेन्ट ट्रूमैन का वह फरमान युग युगान्तरों तक नहीं भूला जा सकेगा, जिसमें उन्होंने नागाशाकी और हिरोशिमा (जापान) में अणुबम गिराने का आर्डर दिया था। अमरीकी वायुसेना के एक भूतपूर्व विमान चालक क्लाड एथर्ली ने आगे बढ़कर कहा-यह कार्य में करने के लिये तैयार हूँ।” उसके साथ कुछ और लोग भी आगे आये।6 अगस्त 1945 वह अभागा दिन था, जिस दिन क्लाड एथर्ली ने हिरोशिमा पर पहली बार अणुबम गिराया और 78 हजार आदमियों को एक बारगी मौत के घाट उतार दिया। इससे अधिक अपंग और उससे भी अधिक बेघरबार हो गये। उस बम विस्फोट से उत्पन्न विकिरण के दुष्परिणामों को जापान अब भी भोग रहा है। आज भी वहाँ देश के सब भागों में अधिक रोगी और अपाहिज पड़े, विज्ञान को कोस रहे है और भगवान से प्रार्थना कर रहे है, ”है प्रभु!तू ऐसी दुनिया से हमें मुक्ति दे।”

क्या इतने मनुष्यों का सर्वनाश क्लाड एथर्ली को यों ही छोड़ सकता था। बम गिराकर लौटते समय जैसे ही उसने उस भयंकर कृत्य की झाँकी देखी, लोगों को जलते तवे पर पानी की बूँदों की तरह जलते देखा तो उसकी आत्मा कचोटने लगी। उसने तमगा पाया सही-पर यह भावना दिनोंदिन बढ़ती ही गई कि उस भयानक विनाश के लिये मैं ही जिम्मेदार हूँ। 1947 में सेना से छुट्टी लेने के बाद भी वह पाप छाया की तरह उसका पीछा करता रहा। जहाँ भी वह फोटो और फिल्में देखता वही उसके सिर भूत सवार होता। उसके कानों में सैकड़ों जख्मी जापानियों की चीख पुकारें गूँजने लगती। एक दिन तो उसने पश्चाताप से आविर्भूत अपनी एक रक्त वाहिनी नली ही काट डालीं। वहाँ से किसी तरह बचा तो वह विक्षुब्ध हो गया। चोरी और डकैती डालने लगा और अन्त में उसे एक पागलखाने में शरण मिली, जहाँ वह बड़-बड़ा कर मर गया।

पाप और उसकी विभीषिकाएँ कही भी हों मनुष्य समाज को चैन नहीं लेने देती और विज्ञान ने पाप और विभीषिकाएँ को बढ़ाया ही है। अमेरिका आदि देशों में आत्म हत्या की प्रवृत्ति का विश्लेषण करते हुए, अंग्रेजी के विद्वान् ग्रेगरी कार्सो ने लिखा है कि -”आस्ट्रिया, डेनमार्क, जापान आदि में अमेरिका से भी दुगुनी आत्म हत्याएँ होती है। फाँस में कुछ कम है, पर इंग्लैण्ड और वेल्स उस कमी को पूरा कर देते है। कनाडा, आइलैण्ड, इटली, नीदरलैण्ड, नार्वे, पुर्तगाल, स्काटलैंड और स्पेन में भी आत्म हत्याओं का जोर है और उसका कारण युद्ध और उसके प्रभाव से उत्पन्न वायु मण्डल पर भयंकर परिस्थितियों के सूक्ष्म कम्पन और भौतिक विज्ञान के द्वारा उत्पन्न दूषित वातावरण अधिक है। सन् 1952 में अमेरिका में 15400 आत्म हत्याएँ हुई। एक लाख लोगों के पीछे 10 व्यक्ति केवल आत्म हत्या से मरते है। उससे चिन्तित होकर लास एन्जिल्स में आत्म-हत्या निषेध केन्द्र की स्थापना की गई। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ मेंटल हेल्थ और अमेरिका की पब्लिक हेल्थ सर्विस दोनों ने मिलकर उन परिस्थितियों का गहन अध्ययन करके यह निष्कर्ष निकाला कि अन्य कारणों की अंश विज्ञान जनित मानवीय अशान्ति आत्म-हत्या का एक प्रमुख कारण है। उस पर युद्ध का और गहरा प्रभाव देखा गया है।”

पशु-पक्षियों के उत्पीड़न से लेकर मानवीय अशान्ति तक की जितनी व्यथायें इस युग में बढ़ रही है, उनका प्रमुख कारण भावनाओं का गिर जाना है। मनुष्य का अन्तःकरण भी यांत्रिक हो गया है, इसलिये अब उसमें प्रेम, विश्वास, त्याग, क्षमा, उदारता, दया, मैत्री और समानता का स्थान स्वार्थ और छल-कपट ने ले लिया है। विज्ञान ने बताया कि कर्मफल कोई वस्तु नहीं, इसलिये कुछ भी करने से डरना नहीं चाहिये, पर तथ्य यह बताते हैं, कि न तो एक व्यक्ति का पाप उसे छोड़ सकता है और न सामूहिक अपराध समाज के बख्श सकते है। पाप और अत्याचार का दण्ड प्रकृति का एक सनातन सत्य और अटल सिद्धान्त है, उससे कोई बच नहीं सकता। उसकी कृपा तो नैतिक आदर्शों और मानवीय भावनाओं से ही मिल सकती है, इसके लिये विज्ञान और तद्जन्य साधन आवश्यक नहीं। एक प्रयोग ऋषि करके दिखा गये हैं कि मनुष्य साधनों के अभाव में त्याग-तपस्या का जीवन जीकर भी अधिक सुखी रह सकता है, यदि वह भावनाओं की दृष्टि से उत्कृष्ट हो, यदि भावनाओं और आकांक्षाएँ निकृष्ट और अधोगामी हों तो स्वर्ग में रहकर भी मनुष्य सुख नहीं रह सकता।

यह परिस्थिति आज शीशे की तरह साफ दिखाई दे रही है। अनेक साधनों और सुविधाओं के होते हुए भी आज का मनुष्य दुखी और अशान्त है। इस स्थिति में परिवर्तन तभी संभव है, जब भौतिक विज्ञान को धर्म के बन्धन और नियंत्रण में रखा जाये। इसके बिना विज्ञान पागल हाथी की तरह ही उत्पाद करता है। वही आज हो भी रहा है। धर्म का अभाव ही आज की अशान्ति और उद्विग्नता का कारण है। उसका निवारण होगा, तभी मानवीय संभवतः चैन की साँस ले सकेगी।


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