देखने वाली आत्मा को आँखें आवश्यक नहीं

January 1969

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कई वर्ष पूर्व में मास्को से टेलीविजन पर एक अत्यन्त आश्चर्यजनक कार्यक्रम प्रसारित किया गया। निजनी की एक 22 वर्षीय तरुणी रोसा कुलेशोवा ने अपने दाहिने हाथ की तीसरी और चौथी उँगलियों से स्पर्श कर के अख़बार का एक लेख पढ़ा और फोटो चित्रों को बिना आँख की मदद से देखकर पहचाना इस कार्यक्रम को हजारों रूसियों और दूसरे देशवासियों ने देखा और बड़ा आश्चर्य व्यक्त किया।

रोसा निजनी के एक अन्ध विद्यालय में अध्यापन का कार्य करती है। एक दिन जब वह पढ़ा रही थी, तब एकाएक उसने अनुभव किया कि वह बिना आँखों की सहायता उँगलियों के पोरों से देख सकती है। उसने धीर धीरे अभ्यास बढ़ाया। स्पर्श से ही वह अंक पहचानने लगी। कुछ दिन में तो वह कागजों पर हुए रंग को भी केवल स्पर्श से जानने लगी। दिसम्बर 62 को उसने सोवियत संघ, मनोवैज्ञानिक संघ की यूराल शाखा के सदस्यों के सामने प्रदर्शन किया। तुरन्त प्रेस से आये अख़बार को उँगलियों की मदद से बढ़कर सुना दिया। यही नहीं अख़बार पर जहाँ चित्र थे, उनके पोज और वह चित्र कैसे कपड़े पहने थे, यह सब अत्यन्त सूक्ष्म विभाजन तक उसने केवल स्पर्श से बता दिये, स्पर्श से वह किस प्रकार अक्षर रंग या चित्रों को पहचान लेती है, इसका कोई निश्चित उत्तर रोसा नहीं दे सकी किन्तु उसने इतना अवश्य बताया कि कोई भी वस्तु छूने से कुछ तरंग जैसी लाइनें मस्तिष्क तक दौड़ने लगती हैं और सब कुछ स्पष्ट होने लगता है।

वैज्ञानिक बहुत हैरान हुए, खारकोव विश्व-विद्यालय के एक मनोविज्ञान शास्त्री ने कहा-सम्भव है वस्तुओं से इन्फ्रारेड किरणें निकलती हों और उनके स्पन्दन से पता चलता हो, इसलिये रोसा पर कुछ प्रयोग किये गये। पालिश किये हुये काँच के पार से वस्तुएँ दिखाई गईं। अब इन्फ्रारेड किरणों की सम्भावना को रोक दिया गया था तो भी रोसा ने पहले की तरह ही सब कुछ बता दिया। यही नहीं उसे एक लम्बी नली के पार से रंग दिखाये गये, तब उसने नली के मुँह पर उगली रखकर सब कुछ सही सही बता दिया। वैज्ञानिक कोई कारण समझ न सके, अन्त में रूसी अख़बार ‘इजवेस्तिया’ ने स्वीकार किया, वह किसी दिव्य दृष्टि का चमत्कार है।

टेलीविजन पर हुए कार्यक्रम को देखने के बाद खार्कोष के डाक्टर ओल्गा ब्लिजनोव ने अपनी पुत्री पर भी इस तरह का प्रयोग किया और देखा कि रौसा कुलेशोवा की तरह नीले, काले, हरे, लाल सब रंगों को केवल स्पर्श से जान लेती है। उसका भी परीक्षण किया गया। लेता ब्लिजनोव के सामने चौकोर कागजों का पूरा बण्डल रखा गया और उसके नीचे एक कागज में कुछ लिखकर छुपा दिया गया। आश्चर्य कि उसने बण्डल के ऊपर वाले कागज को छूकर यह बता दिया कि सबसे नीचे वाले कागज में क्या लिखा हुआ है। इतना ही नहीं वह दो ढाई इंच दूर उँगलियाँ रखकर भी फोटो, चित्र, रंग और अक्षर पहचान लेती है, जबकि उसकी आँखों में मजबूत पट्टी बंधी होती है।

प्रोफेसर अलेक्जाँदेर स्मिर्नोव ने इस विद्या का गहन अध्ययन किया। उन्होंने ऐसी क्षमता के कुछ लड़के भी खोज निकाले पर इस रहस्य का सही पता न लगा सके। इन चर्चाओं को न्यूयार्क में बारनार्ड कालेज के प्रोफेसर डा. रिचर्ड पी. यूज ने भी सुना तो उन्होंने बताया कि 1939 में कैण्टकी के हाईस्कूल में पैट्रीशिया आइन्सवर्य नाम की एक लड़की भी इस तरह की दिव्य दृष्टि रखती है। अब तक वह स्त्री कई बच्चों की माँ हो चुकी थी, इसलिये श्री डा. यूज ने कालेज के लड़कों पर प्रयोग दोहराया और बाद में उन्होंने बताया कि 135 विद्यार्थियों में से 15 प्रतिशत छात्रों में इस तरह की क्षमता पाई गई, जो अभ्यास के द्वारा अपनी दिव्य दृष्टि बढ़ा सकते है। उनकी इस घोषणा से वैज्ञानिकों में हलचल उत्पन्न हो गई कि क्या सृष्टि का प्रत्येक प्रत्येक सचमुच आदिकाल से ही ऐसी क्षमता अपने भीतर छिपाये है। इतना स्पष्ट ज्ञान होते हुए भी वह सर्वथा अज्ञानी बना हुआ है। उसे भविष्य और दूरस्थ वस्तुओं का तो दूर कई बार तो पास की वस्तुएँ भी पहचानना कठिन हो जाता है। अपने माता पिता और बच्चों के मन की भी बात न जान सकने वाले मनुष्य में कोई विलक्षण दिव्य दृष्टि का होना सचमुच आश्चर्यजनक है, पर योग विद्या और आत्मा का रहस्य जानने वाले भारतीय आचार्यों के लिये यह कोई कठिन बात नहीं रही। यहाँ आदि काल से सूक्ष्म तत्त्वों का ही परीक्षण, विश्लेषण शोध और अभ्यास किया जाता रहा है।

ध्यान बिंदूपनिषद के 94 वें शोध मन्त्र में बताया है-

अथात्म निणयं ध्याख्यास्ये हदि स्थाने अष्टवल पंद्य वर्तते तन्मध्ये रेखा वलयं कृत्वा जीवात्म रुपं ज्योतीरुप-मणु मात्रं वर्तते, तस्मिन सर्व प्रतिष्ठितं भवति सर्व जानाति।

अर्थात्- अब आत्मा के विषय में विचार करते हैं। हृदय स्थान में अष्टदल कमल है, उसमें रेखाओं का आश्रय लेकर जीवात्मा ज्योतिरूप अणुमात्र रूप में रहता है। उसी में सब कुछ प्रतिष्ठित है, वही सब कुछ जानता है (बिना इन्द्रियों की मदद से अपनी सूक्ष्म इन्द्रियों के माध्यम से )।

गणपत्युपनिषत् की छः वीं ऋचा का एक अंश-

त्वं चत्वारि वाक्यरिमिता पदानि। त्वं गुणमयातीतः त्वं मूलाधारे स्थितोअसि नित्यम्। त्वं शक्तिन्नयात्मकः।

वाणी के चार रूप परा, पश्यंति, बैखरी और मध्यमा भी तुम हो, गुणातीत हो मूलाधार में स्थित, इच्छा-शक्ति क्रिया शक्ति और ज्ञान शक्ति, यह तीनों रूप तुम्हारे ही हैं।

योग उपनिषदों में आत्मानुभूति और आत्म साक्षात्कार के साधनों का विस्तृत विवरण दिया गया है और यह बताया गया है, आत्मा को जान लेने पर मनुष्य की सम्पूर्ण चेष्टाएँ आत्मा बन जाती हैं, तब वह न केवल छिपी से छिपी वस्तु के रहस्य को समझ सकती हैं, वरन् लाखों मील दूर की वस्तु को देख, सुन-समझ और कोई सन्देश भी भेज सकती हैं। इन उपनिषदों में यह भी बताया गया है कि आत्मा शुद्ध-बुद्ध और निर्विकार है, इसलिए ये आवश्यक नहीं कि उसकी अनुभूति के लिये कठिन योग क्रियायें ही की जायें, मनुष्य अभ्यास द्वारा अपने मन के मैल और आत्मा पर चढ़ी बुराइयाँ काम,क्रोध, लोभ,मोह, मद, मत्सर आदि को त्याग डाले तो ही उन अनुभूतियों और शक्तियों का सहज स्वामी बन सकता है। योग का मार्ग वैसे कठिन है पर वह पूर्ण विज्ञान समस्त तरीका है, इसलिये उसकी उपयोगिता भी कम नहीं है।

मेरुस्तम्भ के शिखर के सीधे ऊपर खोपड़ी के बीजों-बीच से थोड़ा हटकर लालिमा लिये हुए भूरे रंग की कोण की शकल की एक वस्तु मस्तिष्क की पिछले कोठरी के आगे तीसरी कोठरी की तह से मिली हुई पाई जाती है। यह गुद्दी का पुञ्ज है, जिसमें छोटे छोटे खुरदुरे दानेदार अणु होते हैं, इन्हें ‘मस्तिष्क बालुका’ कहा जाता है। इसे पाश्चात्य वैज्ञानिक ‘पाइनल ग्लैण्ड’ या ‘पाइनल बाड़ी’ कहते हैं, पर वे अभी उसके कार्य अभिप्राय और उपयोग से बिल्कुल अनभिज्ञ हैं। मोटी जानकारियाँ ही इस सम्बन्ध में मिलती हैं।

दूरवर्ती वस्तुओं और सूक्ष्म से सूक्ष्म मन तक के लगाव का कारण योगी लोग इसी स्थान को मानते हैं। यह आत्मा की ज्ञान शक्ति का कोष कहा जा सकता है। इस अवयव के लिये यह आवश्यक नहीं कि इसमें कोई बाह्य द्वार हो जैसा कि, कान, नाक, मुँह में होता है। इसमें से उठने वाले विचार कम्पन स्थूल पदार्थों का भेदन भी उसी तरह कर जाते हैं, जिस तरह ‘एक्सरेज’। वह सूक्ष्म विचार कम्पन पहाड़ों की चट्टानों, लोहे आदि का भी भेदन कर उसके भीतर की आणविक संरचना का ज्ञान प्रभाव कर सकते हैं।

उल्लेखनीय है कि जमशेद जी टाटा को खनिज और इस्पात का कारखाना खड़ा करने का स्थान स्वामी विवेकानन्द ने लन्दन में तब बताया था, जब श्री टाटा जी वहाँ उसकी स्वीकृति लेने गये थे। खनिज पदार्थ, पानी और तेल के कुओं तक का पता धरती के भीतर हजारों फीट निचाई में हों तो वहाँ भी यह विचार कम्पन पहुँचकर वहाँ की स्थिति का रहस्य आत्मा को बता सकते हैं।

मस्तिष्क का ‘कोनीला अणु’ बेतार के तार की तरह अदृश्य जगत् के सूक्ष्म से सूक्ष्म कम्पन को भी पकड़ लेता हैं, इसीलिये जो बात मन में तो न हो पर अवचेतन मन में हो, उसे भी जाना जा सकता है। उदाहरण के लिये कौड़ी वाले बैल देखे होंगे, जो अपनी स्वामी के संकेत पर बता देते हैं कि 5 ) का नोट किसकी जेब में है-बैल चलता है और उस आदमी के पास जा पहुँचता है। वह आदमी पूछता है-इनमें ‘रामशंकर’ कौन है, उस समय भीड़ में खड़ा रामशंकर अपने मन में अपना नाम भी नहीं लेता, उस समय तो उसे केवल कौतूहल होता है पर चूँकि उसके अवचेतन मस्तिष्क में यह बात रहती है कि मैं रामशंकर हूँ, उसी का बैल का वह अवयव पकड़ लेता है और उस व्यक्ति के पास जाकर बता देता है।

ऐसे खेल प्रायः सभी ने देखे होंगे। अभी तक इनको चमत्कार माना जाता है पर मनुष्य और जीव दोनों में इस तरह की ज्ञान शक्ति के आधार पर कुछ दिन में यह भी पता चल जायेगा कि आत्मा का अस्तित्व मनुष्य में ही नहीं अन्य प्राणियों में भी है। जिस दिन यह मान्यता लोगों के मस्तिष्क में उतर जायेगी, उस दिन पुनर्जन्म और कर्मफल के अनेक रहस्य भी मालूम होने लगेंगे और तब अब की तरह चोरी, छल कपट, धोखा, अपराध, अत्याचार करने वाले लोगों को मालूम होगा कि इनके कारण उन्हें दूसरी योनियों में रहकर किस तरह कष्ट उठाना पड़ा और देहासक्ति से अब किस तरह बचा जा सकता है। तब लोग बिना समझाए हुए भी शुभ्र और पवित्र जीवन के अभ्यास के लिये समुद्यत होंगे।

आत्मा की यह गुप्त इन्द्रियाँ सब के होती हैं, जैसा कि अमेरिका के डाक्टर मूज ने माना। अभी उसे जीवन के क्रिय-कलापों से संगति देना शेष है। थोड़े से मनुष्यों ने ही इनका ऐसा विकास किया है कि वे इनका सचेतन उपयोग कर सके। रूस की यह घटनायें उसी का उदाहरण हैं, भारतवर्ष में ऐसी घटनायें तो आये दिन स्थान स्थान पर घटित होती रहती हैं।

पाण्डिचेरी के चीफ जस्टिस श्री जंकालियट अन्ध-विश्वासी व्यक्ति नहीं थे, उनकी समालोचना शक्ति बहुत बढ़ी चढ़ी थी, जब पाल ब्रन्टन भारतवर्ष आये और यहाँ की गुप्त अध्यात्म विद्या पर एक पुस्तक लिखी तो उसकी भूमिका उन्होंने जंकालियट से लिखाई, उन्होंने लिखा है-

“मैं ऐसे कई साधुओं से मिला हूँ, जो मन की बात ऐसे बता देते हैं, जैसे वह उनकी ही बात हो। एक बार एक साधु ने मुझसे कुछ लिखकर अपने पास रखने को कहा, मैंने कुछ लिखा और उसे थैली में बन्द कर लिया, साधु ने ध्यान लगाया और एक कागज पर लिखकर दिया। उस पर लिखा था-एलबेन बूनियर, बोर्ग इन ब्रेस्सी (एन) में 3 जनवरी सन् 1856 में मरा था।” मैं यह देखकर आश्चर्यचकित रह गया कि मेरे प्रश्न का ठीक यही उत्तर था। नाम स्थान और तिथि इतने सही ढंग से बताया जायेगा, उसकी मैंने कल्पना ही न की थीं। अब मुझे ऐसा लगता है कि सचमुच कोई ऐसी नैसर्गिक शक्ति है, जिसने मेरे और साधु के बीच बातचीत का मार्ग स्थापित किया।”

कुछ दिन पूर्व अणुव्रत संघ के तत्त्वावधान में एक योग प्रदर्शन कार्यक्रम रखा गया था, उसमें अणुव्रत आन्दोलन के एक मुनि ने ऐसे चमत्कार दिखाये थे। तमाम देशों के राजदूत उसमें सम्मिलित थे। योगी ने अरब के राजदूत की धर्मपत्नी के बटुये में कितने नोट है, बताये थे।

मास्को न्यूज के 22 अगस्त अंक में ऐ बोल्दया देन्शिक नामक आठ वर्षीय बालिका का विवरण छपा हैं। यह बालिका अँधेरे में भी अपने ओठों से देख लेती है। अत्यन्त सूक्ष्म लिखे कागज के ऊपर पच्चीसों कागज ढक देने पर भी वह सब कुछ बता देती है कि नीचे वाले कागज में क्या लिखा है।

यह सब आश्चर्य सी दिखने वाली बातें आत्म विद्या की एक अरबों अंश सी छोटी किरण हैं। आत्मा की ज्ञान शक्ति अनन्त और अपार है, अपने शुद्ध और सनातन रूप में उसे जान लेने पर मनुष्य उसी तरह त्रिकालदर्शी हो जाता है, जैसे हमारे ऋषि थे।


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