निग्रहाँत मन की सामर्थ्य अपार

January 1969

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एक बार स्वामी विवेकानन्द हैदराबाद गये। वहाँ एक ब्राह्मण रहता था, जिसके सम्बन्ध में उन्होंने सुना था कि “वह मनुष्य न जाने कहाँ से अनेक वस्तुएँ उत्पन्न कर देता है-वह उच्च खानदान का और शहर का नामी व्यापारी था। स्वामी जी उसके पास गये और अपने चमत्कार दिखाने को कहा। उस समय वह बेचारा बीमार था। भारतवर्ष में ऐसा विश्वास है कि अगर कोई पवित्र मनुष्य किसी के सिर पर हाथ रख दे तो उसकी बीमारी ठीक हो जाती है। वह ब्राह्मण स्वामी जी के समीप जाकर बोला-भगवान पहले आप मेरे सिर पर हाथ रख दें तो मेरा बुखार भाग जाय। अनन्तर में अपने चमत्कार दिखाऊँगा।” स्वामी जी ने शर्त स्वीकार करली।

वह मनुष्य अपनी कमर में एक चिथड़ा पहने था। अन्य सब कपड़े उतार कर रख दिये। अब उसे केवल एक कम्बल ओढ़ने को दिया गया। शीत के दिन थे और भी अनेक लोग एकत्रित हो गये। उसने कम्बल ओढ़ा और एक कोने में बैठ गया।

इसके बाद उसने कहा-आप लोगों को जो कुछ चाहिये वह लिखकर दीजिये।” सबने कुछ लिख लिखकर दिया, स्वामी जी ने स्वयं भी उन फलों के नाम लिखकर दिये, जो प्रान्त में पैदा ही नहीं होते थे, किन्तु आश्चर्य कि उसने कम्बल में से अंगूर के गुच्छे तथा सन्तरे इतनी अधिक मात्रा में निकाल कर दिये कि उनका वजन उस मनुष्य के वजन से दोगुना होता। वह फल सबने खाये भी। खाने योग्य थे भी अन्त में स्वामी जी के आग्रह पर उसने सौ डेढ़ सौ गुलाब के फूल निकाल कर दिये। प्रत्येक फूल बढ़िया खिला हुआ पंखुड़ियों पर सवेरे के ओस बिन्दु विद्यमान् थे, न कोई खण्डित फूल था, न मुरझाया और न टूटा।

इस घटना पर अपनी सम्मति व्यक्त करते हुए स्वामी विवेकानन्द जी लिखते है-” लोग इसे जादू मानते है, चमत्कार कहते है। अवांछित है ऐसी मान्यता है, किन्तु मैं ऐसा नहीं मानता। यह सत्य का ही प्रदर्शन था। जो है ही उसकी छाया कहाँ से आ सकती है, इसलिये यह माया नहीं थी।”

‘यह मन की अनन्त शक्तियों का प्रमाण है, हम मन से जो चाहें उत्पन्न कर सकते है। मन के भीतर सारी सृष्टि की समृद्धि और सम्पत्ति है। शर्त यही है कि हम मन से काम ले। अनियन्त्रित मन अपना भी बुरा ब्राह्मण मन से तो काम लेता है, मगर यह नहीं जानता कि मन से काम ले रहा है, वह भी भ्रांत है, इसलिये वह चमत्कार की दुनिया तक ही सीमित रह गया। अपने अन्दर ईश्वर को व्यक्त नहीं कर पाया।”

मानव मन की अद्भुत और अविश्वसनीय शक्तियाँ कई प्रकार से सिद्ध हो चुकी है, उसमें वह क्षमता है कि मात्र कल्पना शक्ति से समय और अन्तरिक्ष पर विजय प्राप्त कर चेतन को अचेतन से पृथक् कर सकता है।

लिथूयानिया निवासी रैबी एलिजा के सम्बन्ध में कहा जाता है कि उस विचित्र मानसिक शक्ति प्राप्त थी पर उस पर उसका नियन्त्रण न होने के कारण वह शक्ति भी जीवन में कुछ काम न आई। उसने अपने जीवन में दो हजार से अधिक पुस्तकों को एक बार पढ़कर याद कर लिया था। कोई भी पुस्तक लेकर किसी भी पन्ने को खोलकर पूछने पर वह उसके एक एक अक्षर को दोहरा देता था। उसका मस्तिष्क सदैव क्रियाशील रहता था, इसलिये पुस्तकालय के बाद भी उसे अपने हाथ में पुस्तक रखनी पड़ती थी, दूसरे कामों से चित्त हटते ही वह पुस्तक पढ़ने लग जाता था।

पिल्सबरी अमेरिका के हैरी नेल्सन को भी ऐसी विलक्षण मानसिक शक्ति प्राप्त थी। उसे शतरंज का जादूगर कहा जाता था। वह एक साथ बीस शतरंज के खिलाड़ियों की चाल को याद रख सकता था। बीस बीस खिलाड़ियों से खेलते समय कई बार उसे मानसिक थकावट होने लगती थी, उस थकावट को उतारने के लिये वह ताश भी खेलने लगता था।

जर्मनी के राजा की एक लाइब्रेरी फाँस में थी। इसके लाइब्रेरियन मैथुरिन बेसिरे को आवाज सम्बन्धी याददाश्त अद्भुत थी। एक बार उसकी परीक्षा के लिये बारह देशों के राजदूत पहुँचें ओर उन्होंने अपनी अपनी भाषा में बारह वाक्य ज्यों के त्यों दोहरा दिये। वह एक बार में ही कई व्यक्तियों की आवाज सुनता रहता था और आश्रय यह था कि सब की बात उसे अक्षरशः याद होती जाती थी ऐसी विलक्षण प्रतिभा फ्राँस के प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ लिआन गैम्बाटा और रिचार्ड पोरसन नामक ग्रीक पण्डित को भी उपलब्ध थी।

मन की शक्ति की तीव्रता का अंकन नहीं किया जा सकता। हजारों घोड़ों की क्षमता वाले इंजिन और राकेट भी इतना तेज नहीं दौड़ सकते। यदि मन को वश में किया जा सके तो मनुष्य हजारों कोस दूर बैठे हुए किन्हीं दो व्यक्तियों की बातचीत को ऐसे सुन सकता है, जैसे वह अपनी बगल में बैठे बातचीत कर रहे है। ऐसे दिखाई देने लगते है, जैसे अपनी उनसे एक फुट की भी दूरी नहीं है। यही नहीं हजारों कोस दूर बैठे हुए व्यक्ति के मन की भी बातें जानी जा सकती है। दूर दर्शन, दूर श्रवण आदि कई सिद्धियाँ निग्रहित मन की ही देन होती है। महामुनि पतंजलि ने योग का लक्षण बताते हुए लिखा है- ‘‘योगश्चित्तवृत्ति निरोध” अर्थात्-चित्त की वृत्तियों को रोके रहना योग है। योग सिद्ध पुरुष सब कुछ कर सकता है वह ब्रह्मा प्राप्ति का अनिर्वचनीय सुख प्राप्त कर सकता है। चमत्कार दिखाकर लोगों की दृष्टि में प्रभावशाली बन सकता है। मैस्ममैराइज और हिप्नोटिज्म यह सब मन की तुच्छ कलायें है कहा जाता है, इनसे साधक का कोई आत्म कल्याण नहीं होता, उसके लिये मनोबल आध्यात्मिक शोध में नियोजित किया जाता है।

अन्तर्बोध की स्थिति को यद्यपि इस तरह अभिव्यक्ति नहीं किया जा सकता तो भी विचारशील व्यक्ति मन की इस अद्भुत शक्ति और उसके चमत्कारों का विवरण पढ़ सुन और देखकर इस दैवी शक्ति के विकास का प्रयास अवश्य कर सकते है। भारतवर्ष जैसे योग प्रणेता देश में ऐसे चमत्कारों की कमी नहीं है। इसे विदेशी लोग भी मानते हैं। एक अमेरिकी संवाददाता ने एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखा -”भारतवर्ष की एक नदी में जहाज द्वारा यात्रा कर रहा था। जैसे ही जहाज बन्दरगाह पर पहुँच, एक भारतीय एक गठरी लिये, लंगोटी लगाये जहाज पर चढ़ आया। उसने वहाँ पड़ी हुई रस्सी का एक गोला बण्डल उठा लिया, उसका एक सिरा खोल कर गाँठ लगा दी और उसे उसने बड़े जोर से आकाशं की ओर फेंक दिया। गाँठ ऊपर चढ़ती जाती थी ओर नीचे का गोला अपने आप खुलता जाता थी और नीचे का गोला अपने आप खुलता जाता था। थोड़ी देर में सारी रस्सी आकाशं में उड़कर लोप हो गई। पास में एक टूटा नारियल पड़ा था। साधु ने उसे उठाकर पानी भरा, छोटा सा नारियल उसमें थोड़ा ही पानी आया पर उससे उसने एक पूरी बाल्टी भर दी। फिर दूसरा डोल मँगाकर उसे भी भर दिया। इस तरह उसने कोई पन्द्रह डोल भर दिये, इसके बाद उसने नारियल को उठाकर कुछ पढ़ा नारियल तो लोप हो गया और जब हाथ नीचे किया तो उसके स्थान पर एक डोल हाथ में था। हम यह देखकर बहुत आश्चर्यचकित थे कि यह सब क्या हो रहा हैं”

पास ब्रान्टन ने भारतवर्ष में इस तरह के चमत्कारों को ढूँढ़-ढूँढ़कर देखा और बाद में इस गुप्त विद्या के प्रतिपादन में पुस्तक लिखी। पाण्डिचेरी के फ्राँसीसी न्यायाधीश लुई जंकालियट ने भी एक ऐसी ही पुस्तक लिखी है, जिसमें भारतवर्ष की इस पुरातन विद्या की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।

जिसे दूसरे लोग चमत्कार, आश्चर्य और गुप्त विद्या मानते हे, उसे भारतीय ऋषियों, योगियों ने मन की शक्ति का छोटा सा चमत्कार माना है, जो आकर्षक तो लगता है, किन्तु आत्म कल्याण में बाधक है। मनोनिग्रह का लक्ष्य आत्मा का वेधन करना है, जिसे प्राप्त कर मनुष्य जीवन मुक्त और स्वर्ग का अधिकारी बनता है।

श्रीरामोत्तरतापनीयोपनिषद् में मनोमय शक्ति का विवेचन करते हुए बताया गया है कि भौहों और नासिका की जहाँ सन्धि है, वही स्वर्ग तथा उससे भी उच्च परम-धाम का सन्धि स्थान है, वही अविमुक्त है। ब्रह्मज्ञानी जन इसी सन्धि की संध्या रूप में साधना करते है। जो साधक इस प्रकार जानने वाला है कि अव्यक्त ब्रह्म की साधना का स्थान अविमुक्त क्षेत्र आधिभौतिक स्थान है और भौहों तथा नासिका का संधि-स्थान (यहीं मन का ध्यान किया जाता है) आध्यात्मिक काशी है, वहीं ज्ञानी यथार्थ ज्ञानोपदेश में समर्थ हो सकता है। यही सबसे बड़ा तीर्थ और देवताओं के लिये भी पवित्र हैं, यही परमात्मा प्राप्ति का स्थल है। यहाँ से जब प्राणी के प्राण निकलते हैं तो अमृतत्व की प्राप्ति होती है।” मनोमय शक्ति की यही साधना सही अर्थों में अभीष्ट भी हे, चमत्कारों से कुछ भला नहीं होता।

योग कुंडल्युपनिषद् में-ब्रह्मा जी ने योग विद्या का प्राकट्य किया है द्वितीय अध्याय की प्रथम पाँच ऋचाओं में उन्होंने मन को ही ब्रह्म प्राप्ति का मुख्य साधन बताते हुए लिखा है-मनुष्य कामनाओं से ग्रसित होकर विषयाकांक्षी होता हे। विषय में पड़कर कामनायें घटती नहीं, बढ़ती ही रहती हैं, मन की शक्ति इस तरह विश्रृंखलित और केवल लौकिक कार्यों में ही नष्ट होती रहती हैं। इसलिये शुद्ध परमात्मा-भाव की प्राप्ति के लिये विषय और कामना दोनों का त्याग करना और आत्मा में ध्यान लगाना आवश्यक है, जो अपने हित की इच्छा रखता है, उसे विषयों में इस शक्ति को नष्ट नहीं करना चाहिये और शक्ति में प्रवेश कर उसी में स्थित रहना चाहिये। मन द्वारा मन को देखकर और समझकर उसका त्याग करना ही परमपद है, उत्पत्ति और स्थिति का प्रधान बिन्दु मन नहीं है।” आगे के मन्त्रों में मन दारा षट्चक्रों के वेधन का विस्तृत विधान भी मिलता है, यह बहुत ही महत्त्वपूर्ण योग विद्या हैं ‘पंचकोशी साधना’ इसे ही कहते हैं, उसके लाभ अनन्त हैं पर पूर्व में मनोविग्रह और उस शक्ति को आत्मा में नियोजित करना अत्यावश्यक है।

मनुष्य का मन उस तलवार की तरह है, जिसमें पुरानी वस्तुएँ भी होती हैं और नई भी। जीवन नित्य नूतन है, किन्तु मन सदैव ही पुरातन बना रहता है, उसमें अतीत की धूल इकट्ठी होती रहती है, यह धूल चेतना के दर्पण को ढक देती है, पदार्थ जन्य मोह ही जागृत रहता है। तब यह मन बन्धन हो जाता है। यह संस्कार जितने जटिल होते हैं, आधिभौतिक दुःख भी उतने ही बढ़ते जाते हैं। आत्मा पर इसलिये बन्धन भी मन नहीं है। जीवन के अनुभव के लिये मन की कारा से मुक्ति आवश्यक है। इस महाशक्ति को आत्मा में ढाल देने से ही सच्चे सुख और स्वर्ग की प्राप्ति होती है।


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