पुत्र से पिता के स्वरूप का आभास मिल जाता है। पुत्र पिता का प्रतिनिधि माना गया है। प्रतिनिधित्व का आशय है, उसी रीति-नीति का प्रतिपादन करना जो प्रधान की हो। जो प्रतिनिधि ऐसा नहीं करते, वे विद्रोही ही माने जाते है।
मनुष्य का अस्तित्व उसका अपना मूल अस्तित्व नहीं है। वह किसी एक महानतम अस्तित्व का अंश है, उसका प्रतिनिधि है। सर्वोच्च प्रधान है, जिसकी इच्छा से मानव-जीवन अस्तित्व में आया है। उसकी ही इच्छा के फल स्वरूप वह पृथ्वी पर उसका प्रतिनिधि बनकर अवतरित हुआ है।
मनुष्य में परमात्मा के सारे गुण बीज रूप में वर्तमान है। इस बात की साक्षी उसकी वह उन्नति और विकास है, जो अब तक मनुष्य ने किया है और करता जा रहा है।
तथापि एक समान ईश्वर का अंश होने पर भी सारे मनुष्य समान रूप से उन्नति और विकास नहीं कर पाते। कुछ तो उन्नति के उच्चतर सोपान चढ़ते चले जाते है और दूसरे यथा-स्थान पड़े कालचक्र में निर्जीव जैसे घूमते रहते है। इस अन्तर का प्रमुख कारण यही है कि यथास्थान स्थगित रहने वाले व्यक्ति अपने उस अस्तित्व से अनभिज्ञ बने रहते है, जिसका सम्बन्ध ईश्वरीय प्रतिनिधित्व से है। अपने अज्ञान के कारण न तो वह अनुभव करते है और न विश्वास कि वे ईश्वर के पुत्र है और संसार में उसके प्रतिनिधि।
जिनकी अपनी पैतृक महानता का बोध होता है, उसकी शक्ति सामर्थ्य और गरिमा के प्रति आत्मीयता होती है, वह स्वभावतः उसी के अनुसार अपनी गतिविधि निर्धारित करता है। उसे इस बात का आग्रह रहता है कि कहीं ऐसा न हो कि उसका कोई काम उसकी पैतृक महिमा में ऋणात्मक तत्त्व का काम करे। ऐसा शीलवान पुत्र पैतृक मर्यादा के अनुसार व्यवहार करता है ओर उसी के अनुरूप उन्नत होता है।
अपनी पैतृक मर्यादा से अबोध व्यक्ति जीवन की दीन स्थिति से उठने की प्रेरणा कदाचित ही पाते है। साधारण जीवों की तरह सुख-दुःख का भोग भोगते ओर मर कर चले जाते है। अपने इस अज्ञान के कारण वे उस महनीय स्थिति से वंचित रह जाते है, ईश्वर के पुत्र होने के कारण जिसके वे सहज अधिकारी होते है।
ईश्वर का पुत्र और प्रतिनिधि होने के नाते हर मनुष्य सत् चित और आनन्द का सहज अधिकारी है। अपने इस अधिकार को प्राप्त करने के लिये, उसे यह विश्वास जगाना ही होगा कि वह ईश्वर का पुत्र है। उस ईश्वर का पुत्र जिसकी शक्ति अपार है। जो सर्वशक्तिमान और निखिल ब्रह्माण्डों का स्वामी है। जिसके संकेत से सृष्टि की रचना उसका पालन और प्रलय होता है। जो सार्वकालिक और सर्वदर्शी हैं। जो अणु-अणु में आदि, मध्य, और अन्य रूप में ओत-प्रोत है। मेरा जन्म और जीवन उसके ही अधीन उसकी सत्ता का ही एक अंश है। हमारे कर्म और वैचारिक क्रियाओं में उसकी प्रेरणा और चेतना प्रतिबिम्बित होती है।
इस दिव्य विश्वास के स्थिर होते ही मनुष्य में आत्मगौरव की स्फुरण होगी और वह अपने को ईश्वर का उचित प्रतिनिधि प्रकट करने का प्रयत्न करने लगेगा। प्रतिनिधित्व का प्रकट गुणों के सिवाय और किसी उपाय से नहीं हो सकता। गुणों का विकास होते ही मनुष्य का अस्तित्व विस्तृत होगा और वह ईश्वर की सारी सम्पदाओं का स्वामित्व पाने लगेगा। दीनता-हीनता और दरिद्रता का कलुष हटने और हृदय में सुख-शांति और सन्तोष कर सम्पन्नता का समावेश होने लगेगा। जीवन धन्य बन जायेगा।
यदि आप में दैन्य और दरिद्र का अंश शेष है। आप सत्-चित् और आनन्द के अपने अधिकार से वंचित है, तो निश्चय ही आप अज्ञान के कारण अपनी पैतृक गरिमा को भूले हुए है। अपने को एक सामान्य प्राणी समझकर जी रहे है। विश्वास करिये आप सामान्य प्राणी मात्र नहीं है। आप ईश्वर के पुत्र और संसार में उसके प्रतिनिधि है। सोचिये, समझिये, मानिए ओर कहिए कि आप सर्वशक्तिमान ईश्वर के पुत्र है। यह विश्वास, यह स्वीकृति आप में वे सारे गुण और सारी शक्तियाँ जगा देगी, जो ईश्वर में है और जो अंश रूप में आपके भीतर सोई पड़ी है।
जिस प्रकार किसकी वनस्पति की विशेषताएँ, उसका गुण-दोष और खाद, उसकी जड़, तने, शाखा, छाल, माँस यहाँ तक फूल, फल और पत्ती आदि प्रत्येक अंश में ओत-प्रोत होते है, उसी प्रकार निश्चय ही ईश्वर के सारे गुण सारी विशेषताएँ आप में है, उसका अंश उसका पुत्र और उसका प्रतिनिधि होने के नाते ओत-प्रोत है। उनमें विश्वास करिये,उन्हें जगाइए और अपनी प्राकृत पदवी के स्वामी बन जाइये।
उत्तराधिकार का बोध होते ही मनुष्य को अपनी पैतृक सम्पत्ति से आत्मीयता हो जाती है। वह उन्हें अपनी समझने लगता है। अपने में ईश्वरत्व का बोध होते ही आपको सृष्टि का विस्तार, सूर्य का प्रकाश, चन्द्रमा का सौंदर्य और नक्षत्रों की ज्योति अपनी लगेगी। वायु की गति, जल का रस और पृथ्वी की गन्ध आपको अपनी सम्पत्ति लगेगी। आपको अनुभव होगा कि यह सारी सृष्टि आप में और आप उसमें रमे है। इस महान् और महनीय स्थिति में आते ही आप अपने अधिकार सत्-चित्-आनन्द के अधिकारी बन जायेंगे
अधिकार के साथ कर्तव्य का योग स्वाभाविक है। जहाँ अधिकार है,वहाँ कर्तव्य भी है। जिस प्रकार आप ईश्वरीय अधिकार के पात्र है, उसी प्रकार ईश्वरीय कर्तव्य का दायित्व भी आपके कन्धों पर है। अधिकार और कर्तव्यों के क्रम में कर्तव्य का स्थान पहले है। कर्तव्य के आधार पर ही अधिकार की प्राप्ति होती है और उसकी चरितार्थता भी कर्तव्य पर निर्भर है। केवल यह बौद्धिक विश्वास कि हम ईश्वर के पुत्र है, उसके अंश ओर प्रतिनिधि है-ईश्वरीय अधिकार का स्वामी न बना देगा। उसके लिये निश्चय ही ईश्वरीय कर्तव्य का पालन करते हुए अपने विश्वास की वास्तविकता परिमाणित करनी ही होगी। अस्तु अधिकारों की भाँति अपने उस ईश्वरीय कर्तव्य का बोध कर लेना भी आवश्यक है। बोध होने पर ही उसके पालन में सुविधा हो सकेगी।
ईश्वर ने सृष्टि रचना करने तक ही अपने कर्तव्य की सीमित नहीं रखा। उसने अपनी इस सृष्टि का पालन भी अपने कर्तव्यों में सम्मिलित किया हुआ है। इसी कर्तव्य की पूर्ति के लिए उसने विविध प्रकार की वनस्पतियाँ, विविध प्रकार के अन्न, वायु, जल और अग्नि आदि साधन उत्पन्न किए। साथ ही जीवों को जीवन रक्षा ओर उसके साथ आनन्द अनुभूति की चेतना भी अनुग्रह की है। उसकी इस कृपा के आधार पर ही जीव-मात्र संसार में आनन्द पूर्वक जी रहे है।
ईश्वर के इस कर्तव्य के अनुसार उसके प्रतिनिधि मनुष्य पर भी यह कर्तव्य आता है कि वह सृष्टि पालन और उसके संचालन में अपने परमपूज्य, अपने परमपिता के साथ योग करे। इस योगदान करने की विधि इसके सिवाय क्या हो सकती है कि वह ऐसे काम करे,जिनसे संसार की प्रगति हो और उसमें सुख शांति का समावेश हो। यह मन्तव्य तभी पूरा हो सकता है, जब मनुष्य स्वयं अपने को उदात्त और आदर्श चरित्र वाला बनाये। वह मानवीय संयम का पालन ओर ईश्वरीय नियमों का निर्वाह करे। यह नियम और संयम उसके दिये धर्म में पूरी तरह वर्णित है। धर्म का पालन करते रहने से ईश्वरीय कर्तव्य का पालन होता चलेगा।
केवल अपने सुख, अपने मंगल और अपने कल्याण में व्यस्त, उसका ही ध्यान रखने वाले लोग ईश्वरीय कर्तव्य से विमुख रहते है। अपना मंगल और अपना कल्याण भी वाँछनीय है, लेकिन सबके साथ मिलकर, एकाकी नहीं। अपने हित तक बँधे रहने वाले बहुतायत स्वार्थी हो जाते है। स्वार्थ और ईश्वरीय कर्तव्य में विरोध है। जो स्वार्थी होगा, वह कर्तव्य विमुख ही चलता रहेगा। ईश्वर ने सृष्टि उत्पन्न की। एक से एक बढ़कर आनन्ददायक पदार्थों का निर्माण किया। वह निखिल ब्रह्माण्डों के प्रत्येक का स्वामी है। पर क्या वह उनका उपभोग स्वयं करता है? नहीं वह उनका उपयोग स्वयं नहीं करता है। उसने सारी सम्पदायें और साधन अपने बच्चों के लिये ही सुरक्षित कर दिए है। वह अपने आप में महान् त्यागी और परोपकारी है।
इसी प्रकार हम मनुष्यों का भी कर्तव्य है कि हम परोपकारी और परमार्थी बने। हमारे पास जो भी बल-बुद्धि-विधा-धन-सम्पत्ति आदि उस प्रभु के दिए हुये पदार्थ है, उनका एक अंश परोपकार और परमार्थ में लगाये। ऐसा कभी न सोचे कि यह सब तो मेरा है, में ही इसका उपभोग करूँगा। गरीबों, असहायों और आवश्यकता ग्रस्तों की सहायता करना, दुखी और अपाहिजों की सेवा करना ईश्वरीय कर्तव्य है, जो पूरा करना ही चाहिये। ईश्वर अपने विरचित जीव मात्र से प्रेम करता है। उसके पुत्र उसके प्रतिनिधि मनुष्य का भी कर्तव्य है कि वह सृष्टि के सारे जीवों से प्रेम करे
ईश्वरीय कर्तव्य के पालन की प्रेरणा, सामर्थ्य और क्षमता लाने के लिए मनुष्य को चाहिये कि वह संसार कर नश्वर और भ्रामक वासनाओं से दूर रहे। उनसे सुरक्षित रहकर अपनी शक्ति और स्वरूप को पहचाने। निकृष्ट भोग-वासनायें पाशविक प्रवृत्ति की घोतक है, ईश्वरीय कर्तव्य की नहीं। ईश्वरीय कर्तव्य का घोतक तो आत्मसंयम, आत्म-विकास और आत्म-विस्तार से ही होता है। यदि हमारे हृदयों में यह धारणा दृढ़ हो जाये कि हम उस परम पवित्र, महान् और सर्वोपरि सत्ताधारी ईश्वरीय के पुत्र और संसार में उसके प्रतिनिधि है तो संसार की निकृष्ट वासनाओं और तुच्छ भोगों से विरक्ति हो जाना आसान हो जाये। जब तक अपने उच्च-स्वरूप का विश्वास नहीं होता मनुष्य निम्नता की ओर झुकता रहता है।
कितना ही शक्तिशाली और कितना ही उच्च पद वाला क्यों न हो, किन्तु मनुष्य अपने आत्म-स्वरूप को तब तक नहीं पहचान पाता, जब तक वह विषय वासनाओं के अन्धकार से निकल कर अपने स्वरूप का दर्शन आत्मा के प्रकाश में नहीं करता। मनुष्य का कर्तव्य है कि वह विचार करे व उसके फलस्वरूप अनुभव भी कि वह कितना विशाल, कितना महान् और कितना प्रचुर है। उसका स्वरूप ठीक वैसा ही है, जैसा कि उसके परमपिता परमात्मा का। इस प्रकार की ईश्वरीय अनुभूति होते ही मनुष्य अपने को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान्, सर्वहितकारी और सर्व-सम्पन्न पायेगा। उसकी सारी क्षुद्रताएँ, सारी दीनताएँ और सारी निकृष्टताएँ आपसे आप स्खलित हो जायेंगी और वह अपने को सच्चिदानन्द स्थिति में पाकर शुद्ध और बुद्ध बन जायेगा।
मनुष्य का वास्तविक स्वरूप सच्चिदानन्द ही है। अपनी साँसारिक निकृष्टताओं के कारण ही वह इस स्वरूप को भूले है। अपने में आत्म-श्रद्धा और आस्था का विकास करिये। मिथ्या से निकलकर सत्य में आइए। जीवतत्व से ईश्वरत्व की और बढ़िए। ईश्वर का पुत्र उसका प्रतिनिधि होने में विश्वास करिये। ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन करने के लिये धर्म को धारण करिये। उपकारी और परमार्थी बनकर सत्य, सेवा, त्याग, और आत्मीयता के भाव जगाइए। निश्चय ही आप अपना वह अधिकार और स्वत्व पा लेंगे, जो ईश्वर में सन्निहित है और जिसकी सत्ता है-
सत्+चित्+आनन्द=सच्चिदानंद।