नये युग के तीन आधार-सत्य साम्य और ऐक्य

January 1969

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नये युग के नये निर्माण का जो दैवी प्रयास चल रहा है, उसके तीन आधार हैं। प्रथम सत्य, द्वितीय साम्य, तृतीय ऐक्य। इन तीन आधारों को लेकर ही उस नई दुनियाँ का सृजन होगा, जिसमें हर व्यक्ति को-हर प्राणी को-ईश्वर प्रदत्त सुविधाओं और अधिकारों का निर्बाध उपयोग करने का अवसर मिलेगा। यह विश्व परमात्मा की पवित्र प्रतिकृति है। यहाँ आनन्द, सौंदर्य और उल्लास के असीम साधन विद्यमान् हैं। स्वर्ग की कल्पना उन्हीं परिस्थितियों पर लागू होती हैं, जिनमें समाज का निर्माण उपरोक्त तीन आधारों पर- सत्य, साम्य और ऐक्य के आदर्शों पर किया गया होता है। चिर अतीत में ऐसी परिस्थितियों लाखों करोड़ों वर्षों तक रही हैं, जब इस संसार में स्वर्गीय वातावरण बना रहा, हर किसी ने संतोष और आनन्द का परिपूर्ण अनुभव किया। ऐसा काल ‘सत युग’ कहलाता है।

सतयुग और कुछ नहीं मानवीय आस्थाओं में, मान्यताओं में, गतिविधियों में, आदर्शवादिता और उत्कृष्टता के समुचित समावेश की प्रतिक्रिया मात्र है। समाज का निर्माण उच्च आदर्शों पर आधारित होगा और व्यक्ति अपनी मानवीय उत्कृष्टता का गौरव अनुभव करते हुए तद्नुरूप सदाचरण करेगा तो इस संसार में सुख-शान्ति की अजस्र धारा बहती ही रहेगी। अभाव, कष्ट, क्लेश, संघर्ष, द्वेष, दुर्भाव और शोक संताप का तब कोई कारण ही शेष न रहेगा।

वर्तमान की समस्त विकृतियाँ मानवीय आदर्शों का स्तर गिर जाने से उत्पन्न हुई है। असत्य, वैषम्य और संकीर्ण स्वार्थ परता की अभिवृद्धि ने संसार में अगणित प्रकार की उलझनें एवं समस्यायें उत्पन्न की हैं। अपने चारों ओर जिन कुत्साओं और कुण्ठाओं का घटाटोप छाया हुआ हम देखते हैं, उनके पीछे मानवीय दुर्बुद्धियों और दुष्प्रवृत्तियों का ही खेल है। आधार जब तक विद्यमान् है, तब तक सुधार की आशा किस प्रकार की जाय? शरीर में विष भरा रहे तो रोगों से छुटकारा कैसे मिले? आग को हाथ में लेकर जलने से बचाव कैसे हो?

असत्य, असंयम, अन्याय, अविवेक और असंतोष के पाँच असुरों ने इस संसार में विविध विधि कष्ट क्लेशों से भरी अवांछनीय परिस्थितियों का सृजन किया है। लोग कष्टों को देखते हैं, उनके कारणों को नहीं। कष्ट दूर करना चाहते हैं पर कारणों को बनाये रखना चाहते हैं। इसलिये बहुत माथा पच्ची करने पर भी कुछ आशाजनक परिणाम नहीं निकलता, व्यक्ति व समाज को सुखी बनाने के लिये विभिन्न क्षेत्रों से, विभिन्न स्तरों पर विभिन्न आकार प्रकार के प्रयत्न चल रहे हैं। समझा जाता है कि शिक्षा एवं सम्पत्ति की कमी में हमें कष्ट सहने पड़ रहे हैं, इसलिये ऐसे उपाय करने चाहिये, जिनसे अधिक शिक्षा और अधिक आजीविका मिले। यह दो लाभ मिलते ही समस्याओं का समाधान हो जायेगा। यह मान्यता एक छोटी सीमा तक ही सही है। शिक्षा और आजीविका की उपयोगिता से इनकार नहीं किया जा सकता पर थोड़ा गम्भीरता से सोचने पर यह भी सहज ही प्रतीत हो जाता हैं कि इन साधनों के अभाव ने संसार में फैली हुई अगणित समस्याओं को जन्म नहीं दिया वरन् वास्तविक कारण कुछ दूसरे ही हैं।

गरीबी का असर स्वस्थ पर और शिक्षा का असर व्यवहार पर हो सकता है। दुष्टताओं का जन्म तो अन्तः करण में जमी हुई दुर्बुद्धि ही करती है। अनेकों व्यक्ति गरीबी में रहते ईमानदार रहे हैं। साधु और ब्राह्मण तो जानबूझ कर गरीबी का व्रत लेते थे और सिद्ध करते थे कि आर्थिक अभावों ने उनके चरित्र एवं भाव-स्तर पर कोई बुरा प्रभाव नहीं डाला। इसी प्रकार साक्षरता का अभाव रहने पर भी पर्वतीय प्रदेशों में व्यक्ति अभी भी अधिक नैतिक और संतुलित पाये जाते हैं। इसके विपरीत उच्च शिक्षितों में और सम्पन्न लोगों में चरित्र का अधिक अभाव पाया जाता है। लोग अपनी शिक्षा और सम्पन्नता का दुरुपयोग करके समाज का इतनी अधिक क्षति पहुँचाते देखे लगे हैं, जितनी बेचारे निर्धन और अशिक्षित लाख प्रयत्न करने पर भी नहीं पहुँचा सकते हैं।

उद्धत, असंतुष्ट, पथ-भ्रष्ट रुग्ण और असंतुलित लोगों की गणना की जाय तो उसमें भी शिक्षितों और सम्पन्नों की ही संख्या अधिक होगी। इन तथ्यों पर विचार करने से उसी निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अशिक्षा और निर्धनता कष्ट-कारक और निवारणीय तो हैं पर उन्हें समाज और व्यक्ति की अत्यधिक समस्या, ग्रस्त बना देने का दोषी नहीं माना जा सकता है। पैर में जूता न होना ठीक नहीं, जूते की आवश्यकता है ओर उस आवश्यकता को पूरा करना चाहिये पर यह कहना ठीक नहीं, हमारे शत्रु अधिक हैं उसका कारण जूते का न होना है। शत्रु अधिक होने का कारण हमारे व्यवहार एवं स्वभाव की त्रुटियाँ ही हो सकती हैं। जूता न होने से पैर में काँटा लग जाने, सर्दी-जुकाम हो जाने जैसी कठिनाई उत्पन्न होती तो समझ में आती है, पर शत्रुओं का बढ़ना नहीं। इसी प्रकार शिक्षा और गरीबी की कमी से उत्पन्न कठिनाइयों को समझा जा सकता है और उनके दूर करने में समान रूप से सहमत रहा जा सकता है। पर यह कहना ठीक नहीं कि इन्हीं दो कारणों से वातावरण को क्षुब्ध बनाये हुए, जो अगणित समस्यायें हानिकारक परिस्थितियाँ उत्पन्न किए सामने खड़ी हैं- वें उत्पन्न हुई। वस्तुतः मानव समाज का भावनात्मक स्तर, चरित्र बल गिर जाना ही इन उलझनों का कारण है, जो दिन दिन बढ़ती हुई, सुविधाओं के बावजूद संसार को नरक बनाती चली जा रही है।

नव युग निर्माण का आधार भौतिक नहीं आध्यात्मिक ही हो सकता है। भौतिक उन्नति की जाय सो ठीक है। उसकी आवश्यकता है और उपयोगिता भी। समृद्धि बढ़े इसमें किसी को क्या ऐतराज हो सकता है। पर यह आशा करना अनुचित है कि शिक्षा समृद्धि एवं अन्यान्य सुविधा साधनों की बढ़ोत्तरी उन समस्याओं को हल कर देगी, जिनका मूल उद्गम हमारी चारित्रिक और भावनात्मक दुर्बलता ही है। नवयुग के सृजन का आधार आध्यात्मिक ही होगा। भावनात्मक नव निर्माण द्वारा ही बाह्य परिस्थितियों में सुधार एवं संतुलन उत्पन्न हो सकता है।

सत्य, साम्य और ऐक्य यही तीन अध्यात्म के आधार हैं। सारा तत्व ज्ञान और उपासनात्मक क्रिया कलाप उन तीन महा-सत्यों के प्रतिपादन के लिये विनिर्मित हुआ है। धर्म ग्रन्थों का समस्त कलेवर विभिन्न आधार लेकर इन्हीं तथ्यों के इर्द गिर्द परिक्रमा करता है। आस्तिकता और उपासना का चरम लक्ष्य किसी मनुष्य आकृति या प्रकृति के देवता विशेष भगवान के साथ रिश्तेदारी या आदान प्रदान की प्रक्रिया जोड़ना नहीं वरन् अन्तःकरण के गहन मर्म स्थलों में सत्य, साम्य और ऐक्य के महान् सत्यों में प्रगाढ़ निष्ठा उत्पन्न करना है। शास्त्र विवेचन का यही निष्कर्ष है।

ऋषियों की गतिविधियों और विचारणाओं की समीक्षा करने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। अस्तु युग निर्माण योजना के उद्देश्यों एवं प्रयोजनों को देखते हुए उसे धर्म एवं अध्यात्म के पुनरुत्थान का एक अभिनव सत्प्रयत्न भी कहा जा सकता है।

ऋषियों की गतिविधियों और विचारणाओं की समीक्षा करने पर भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है। अस्तु युग निर्माण योजना के उद्देश्यों एवं प्रयोजनों को देखते हुए उसे धर्म एवं अध्यात्म के पुनरुत्थान का एक अभिनव सत्प्रयत्न भी कहा जा सकता है।


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