अध्यात्म से मानव-जीवन का चरमोत्कर्ष

January 1969

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इस संसार में मानव-जीवन से अधिक श्रेष्ठ अन्य कोई उपलब्धि नहीं मानी गई है। एकमात्र मानव-जीवन ही वह अवसर है, जिसमें मनुष्य जो भी चाहे प्राप्त कर सकता है। इसका सदुपयोग मनुष्य को कल्पवृक्ष की भाँति फलीभूत होता है।

जो मनुष्य इस सुरदुर्लभ मानव-जीवन को पाकर उसे सुचारु रूप से संचालित करने की कला नहीं जानता है अथवा उसे जानने में प्रमाद करता है, तो यह उसका एक बड़ा दुर्भाग्य ही कहा जायेगा। मानव-जीवन वह पवित्र क्षेत्र है, जिसमें परमात्मा ने सारी विभूतियाँ बीज रूप में रख दी है, जिनका विकास नर को नारायण बना देता है। किन्तु इन विभूतियों का विकास होता तभी है, जब जीवन का व्यवस्थित रूप से संचालन किया जाय। अन्यथा अव्यवस्थित जीवन, जीवन का ऐसा दुरुपयोग है, जो विभूतियों के स्थान पर दरिद्रता की वृद्धि कर देता है।

जीवन को व्यवस्थित रूप से चलाने की एक वैज्ञानिक पद्धति है। उसे अपनाकर चलने पर ही इसमें वाँछित फलों की उपलब्धि की जा सकती है। अन्यथा इसकी भी वही गति होती है, जो अन्य पशु-प्राणियों की होती है। जीवन को सुचारु रूप से चलाने की वह वैज्ञानिक पद्धति एकमात्र अध्यात्म ही है। जिसे जीवन जीने की कला भी कहा जा सकता है। इस सर्वश्रेष्ठ कला को जाने बिना जो मनुष्य जीवन को अस्त-व्यस्त ढंग से बिताता रहता है। उसे, उनमें से कोई भी ऐश्वर्य उपलब्ध नहीं हो सकता, जो लोक से लेकर परलोक तक फैले पड़े है। धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिनके अंतर्गत आदि से लेकर अन्त तक की सारी सफलतायें सन्निहित है, इसी जीवन कला के आधार पर ही तो मिलते है।

सामान्य लोगों के बीच प्रायः यह भ्रम फैला हुआ है कि अध्यात्मवाद का लौकिक जीवन से कोई सम्बन्ध नहीं है। वह तो योगी तपस्वियों का क्षेत्र है, जो जीवन में दैवी वरदान प्राप्त करना चाहते है। जो साँसारिक जीवनयापन करना चाहते है। घर-बार बसाकर रहना चाहते है, उनसे अध्यात्म का सम्बन्ध नहीं। इसी भ्रम के कारण बहुत से गृहस्थ भी, जो दैवी वरदान की लालसा के फेर में पड़ जाते है, अध्यात्म मार्ग पर चलने का प्रयत्न करते है। किन्तु अध्यात्म का सही अर्थ न जानने के कारण थोड़ा -सा पूजा-पाठ कर लेने को ही अध्यात्म मान लेते है।

यह बात सही है कि अध्यात्म मार्ग पर चलने ये उसकी साधना करने से दैवी वरदान भी मिलते है और ऋद्धि-सिद्धि की भी प्राप्ति होती है। किन्तु वह उच्च स्तरीय सूक्ष्म-साधना का फल है। कुछ दिनों पूजा-पाठ करने अथवा जीवन भर यों ही कार्यक्रम के अंतर्गत पूजा करते रहने पर भी ऋषियों वाला ऐश्वर्य प्राप्त नहीं हो सकता। उस स्तर की साधना कुछ भिन्न प्रकार की होती है। वह सर्व सामान्य लोगों के लिये सम्भव नहीं। उन्हें इस तपसाध्य अध्यात्म में न पड़कर अपने आवश्यक कर्तव्यों में ही आध्यात्मिक निष्ठा रखकर जीवन को आगे बढ़ाते रहना चाहिये। उनके साधारण पूजा-पाठ का जो कि जीवन का एक अनिवार्य अंग होना चाहिये, अपनी तरह से लाभ मिलता रहेगा।

थोड़ी सी साधारण पूजा, उपासना करके जो जीवन में अलौकिक ऋद्धि-सिद्धि पाने की लालसा रखते है, वे किसी जुआरी की तरह नगण्य सा धन लगाकर बहुत अधिक लाभ उठाना चाहते है। बिना श्रम के मालामाल होना चाहते हैं। लोभी उपासकों की यह अनुचित आशा कभी भी पूरी नहीं हो सकती और हो वह भी सकता है कि इस लोभ के कारण उनकी अपनी उस सामान्य उपासना का भी कोई फल न मिले। देवताओं का वरदान वस्तुतः इतना सस्ता नहीं होता, जितना कि लोगों ने समझ रखा हे। वे मन्दिर में जाकर हाथ जोड़ जाने या अक्षत-पुष्प जैसी तुच्छ वस्तुएँ चढ़ा देने से प्रसन्न हो जायेंगे और अपने वरदान लुटाने लगेंगे-ऐसा सोचना अज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सामान्य पूजा-पाठ का अपना जो पुरस्कार है, मिलेगा वही, उससे अधिक कुछ नहीं।

वरदायी अथवा अलौकिक ऐश्वर्य का आधार अध्यात्म सामान्य उपासना मात्र नहीं है। उसका क्षेत्र आत्मा के सूक्ष्म संस्थानों की साधना है। उन शक्तियों के प्रबोधन की प्रक्रिया है, जो मनुष्य के अन्तःकरण में बीज रूप में सन्निहित रहती है। आत्मिक अध्यात्म के उस क्षेत्र में एक से एक बढ़कर सिद्धियाँ एवं समृद्धियाँ भरी पड़ी है। किन्तु उनकी प्राप्ति तभी सम्भव है, जब मन, बुद्धि, चित, अहंकार से निर्मित अन्तःकरण पंचकोशों, छहों चक्रों, मस्तिष्कीय ब्रह्म-रन्ध्र में अवस्थित कमल, हृदय स्थित सूर्यचक्र, नाभि की ब्रह्म-ग्रन्थि और मूलाधार वासिनी कुण्डलिनी आदि के शक्ति संस्थानों और कोश-केन्द्रों को प्रबुद्ध, प्रयुक्त और अनुकूलता पूर्वक निर्धारित दिशा में सक्रिय बनाया जा सके। यह बड़ी गहन, सूक्ष्म और योग साध्य तपस्या है। जन्म-जन्म से तैयारी किए हुये कोई बिरले ही यह साधना कर पाते है और अलौकिक सिद्धियों को प्राप्त करते है। यह साधना न सामान्य है और न सर्वसाधारण के वश की।

तथापि असम्भव भी नहीं है। एक समय था, जब भारतवर्ष में अध्यात्म की इस साधना पद्धति का पर्याप्त प्रचलन रहा। देश का ऋषि वर्ग उसी समय की देन है। जो-जो पुरुषार्थी इस सूक्ष्म साधना को पूरा करते गये, वे ऋषियों की श्रेणी में आते गये। यद्यपि आज इस साधना के सर्वथा उपयुक्त न तो साधन है और न समय, तथापि वह परम्परा पूरी तरह से उठ नहीं गई है। अब भी यदाकदा, यत्र-तत्र इस साधना के सिद्ध पुरुष देखे सुने जाते है। किन्तु इनकी संख्या बहुत विरल है। वैसे योग का स्वांग दिखा कर और सिद्धों का वेश बनाकर पैसा कमाने वाले रगें सियार तो बहुत देखे जाते है। किन्तु उच्च स्तरीय अध्यात्म विद्या की पूर्वोक्त वैज्ञानिक पद्धति से सिद्धि की दिशा में अग्रसर होने वाले सच्चे योगी नहीं के बराबर ही है। जिन्होंने साहसिक तपस्या के बल पर आत्मा की सूक्ष्म शक्तियों को जागृत कर प्रयोग योग्य बना लिया होता है, वे संसार के मोह जाल से दूर प्रायः अप्रत्यक्ष ही रहा करते है। शीघ्र किसी को प्राप्त नहीं होते और पुण्य अथवा सौभाग्य से जिसको मिल जाते है, उसका जीवन उनके दर्शनमात्र से ही धन्य हो जाता है।

इतनी बड़ी तपस्या को छोटी-मोटी साधना अथवा थोड़े से कर्मकाण्ड द्वारा पूरी कर लेने की आशा करने वाले बाल-बुद्धि के व्यक्ति ही माने जायेंगे। यह उच्च स्तरीय आध्यात्मिक साधना शीघ्र पूरी नहीं की जा सकती। स्तर के अनुरूप ही पर्याप्त समय, धैर्य, पुरुषार्थ एवं शक्ति की आवश्यकता होती है। इस आवश्यकता की पूर्ति धीरे धीरे अपने बाह्य जीवन के परिष्कार से प्रारम्भ होती है। बाह्य की उपेक्षा कर सहसा है, जिसमें सफलता की आशा नहीं की जा सकती।

आज हम सब जिस स्थिति में चल रहे है, उसमें जीवन निर्माण की सरल आध्यात्मिक साधना ही सम्भव है। इस स्तर से शुरू किए बिना काम भी तो नहीं चल सकता। बाह्य जीवन को यथास्थिति में छोड़कर आत्मिक स्तर पर पहुँच सकना भी तो सम्भव नहीं है। अस्तु हमें उस अध्यात्म को लेकर ही चलना होगा, जिसे जीवन जीने की कला कहा गया है।

जीवन विषयक अध्यात्म हमारे गुण, कर्म, स्वभाव से सम्बन्धित है। हमें चाहिये कि हम अपने में गुणों की वृद्धि करते रहे। ब्रह्मचर्य, सच्चरित्रता, सदाचार, मर्यादा-पालन और अपनी सीमा में अनुशासित रहना आदि ऐसे गुण हैं, जो जीवन जीने की कला के नियम माने गये हैं। व्यसन, अव्यवस्था, अस्तव्यस्तता व आलस्य अथवा प्रमाद जीवनकाल के विरोधी दुर्गुण है। इनका त्याग करने से जीवनकाल को बल प्राप्त होता है। हमारे कर्म भी गुणों के अनुसार ही होने चाहिये। गुण और कर्म में परस्पर विरोध रहने से जीवन में न शांति का आगमन होता है और न प्रगतिशीलता का समावेश। हममें सत्य-निष्ठा का गुण तो हो पर उसे कर्मों में मूर्तिमान् करने का साहस न हो तो कर्म तो जीवन कला के प्रतिकूल होते ही है, वह गुण भी मिथ्या हो जाता है।

सत्कर्म में हमारी आस्था तो हो पर पुण्य परमार्थ की सक्रियता से दूर ही रहें तो जीवन कला के क्षेत्र में यह एक आत्म प्रवंचना ही होगी। इसी प्रकार हमारा स्वभाव भी इन दोनों के अनुरूप ही होना चाहिये। हममें दानशीलता का गुण भी हो और अवसरानुसार सक्रिय भी होता हो, किन्तु उसके साथ यदि अहंकार भी जुड़ा है तो यह उस गुण कर्म का स्वाभाविक विरोध होगा, जो जीवन कला के अनुरूप नहीं है। हम सदाशयी, परमार्थी और सेवाभावी तो हे और कर्मों में अपनी इन भावनाओं को मूर्तिमान् भी करते है, किन्तु यदि स्वभाव से क्रोधी, कठोर अथवा निर्बल है तो इन सद्गुणों और सत्कर्मों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। किसी को यदि परोपकार द्वारा सुखी करते है और किसी को अपने क्रोध का लक्ष्य बनाते है तो एक ओर का पुण्य दूसरे ओर के पाप से ऋण होकर शून्य रह जायेगा। गुण, कर्म, स्वभाव तीनों का सामंजस्य एवं अनुरूपता ही वह विशेषता है, जो जीवन जीने की कला में सहायक होती है।

जीवन यापन की वह विधि ही जीवन जीने की कला है, जिसके द्वारा हम स्वयं अधिकाधिक सुखी, शान्त और संतुष्ट रह सकें, साथ ही दूसरों को भी उसी प्रकार रहने में सहयोगी बना सकें और यही वह प्रारम्भिक अध्यात्म है, जिसके द्वारा जीवन निर्माण होता है और आत्मा की सूक्ष्म अध्यात्म साधना का पथ प्रशस्त होता है। हम सबको इसी सरल एवं साध्य अध्यात्म को लेकर क्रम क्रम से आगे बढ़ना चाहिये। सहसा आदि से अन्त पर कूद जाने का प्रयत्न करना एक ऐसी असफलता को आमन्त्रित करना है, जिससे न तो ठीक से जीवन जिया जा सकता है और न उच्च स्तरीय साधना को सामान्य बनाया जा सकता है।

पूर्वकालीन ऋषि मुनियों ने भी उच्च स्तरीय अध्यात्म में सहसा छलाँग नहीं लगाई। उन्होंने भी अभ्यास द्वारा पहले अपने बाह्य जीवन को ही परिष्कृत किया और तब क्रम क्रम से उस आत्मिक जीवन में उच्च साधना के लिये पहुँचे थे। इस नियम का-कि पहले बाह्य जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म का समावेश करके उसे सुख शान्तिमय बनाया जाय। इस प्रसंग में जो भी पुण्य परमार्थ अथवा पूजा उपासना अपेक्षित हो उसे करते रहा जाये। लौकिक जीवन को सुविकसित एवं सुसंस्कृत बना लेने के बाद ही आत्मिक अथवा अलौकिक जीवन में प्रवेश किया जाय-उल्लंघन करने वाले कभी सफलता के अधिकारी नहीं बन सकते। लौकिक जीवन की निकृष्टता आत्मिक जीवन के मार्ग में पर्वत के समान अवरोध सिद्ध होती है।

अध्यात्म मानव जीवन के चरमोत्कर्ष की आधार शिला है, मानवता का मेरुदण्ड है। इसके अभाव में असुखकर अशान्ति एवं असन्तोष की ज्वालाएँ मनुष्य को घेरे रहती है। मनुष्य जाति की अगणित समस्याओं को हल करने और सफल जीवन जीने के लिये अध्यात्म से बढ़कर कोई उपाय नहीं है। पूर्वकाल में, जीवन में सुख समृद्धियों के बहुतायत के कारण जिस युग को सतयुग के नाम से याद किया जाता है, उसमें और कोई विशेषता नहीं थी-यदि विशेषता थी तो यह कि उस युग के मनुष्यों का जीवन अध्यात्म की प्रेरणा से ही अनुशासित रहता था। आज उस तत्व की उपेक्षा होने से जीवन में चारों ओर अभाव, अशान्ति और असन्तोष व्याप्त हो गया है और इन्हीं अभिशापों के कारण ही आज का युग कलियुग के कलंकित नाम से पुकारा जाता है।

अपने युग का यह कलंक आध्यात्मिक जीवन पद्धति अपनाकर जब मिटाया जा सकता है तो क्यों न मिटाया जाना चाहिये? मिटाया जाना चाहिये और अवश्य मिटाया जाना चाहिये। अपने युग को लाँछित अथवा यशस्वी बनाना उस युग के मनुष्यों पर ही निर्भर है, तब क्यों न हम सब जीवन में आध्यात्मिक पद्धति का समावेश कर अपने युग को भी उतना ही सम्मानित एवं स्मरणीय बना दें, जितना कि सतयुग के मनुष्यों ने अपने आचरण द्वारा अपने युग को बनाया था?


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