परंपराएं बदली भी जा सकती हैं।

March 1966

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जो बातें आज के समाज के लिये प्रथायें अथवा परम्परायें बनी हुई हैं वे वास्तव में कभी के समाज के लिये ऐसे नियम रही होंगी जिनको अपनाये बिना समाज की व्यवस्था न बन रही होगी।

यह अनिवार्य नहीं कि आज की बदलती हुई परिस्थितियों में कल की वे बातें यथावत हितकारक हों। कल जो नियम हमारे पूर्व पुरुषों ने बनाये थे, वे उस समय की परिस्थितियों के अनुसार ही बनाये थे। ऐसा करते समय उन्होंने कोई ऐसी व्यवस्था अथवा आदेश नहीं दिया था कि यदि यह नियम आगे चलकर हितकर सिद्ध न भी हों तब भी इन्हें अपनाये रहना चाहिये। इसी प्रकार आज की परिस्थितियों के अनुसार जो नियम हम बनायेंगे वे आगे आने वाली पीढ़ियों के लिए आज की तरह ही हितकारी होंगे, यह आवश्यक नहीं? परिवर्तन जहाँ अनिवार्य है वहाँ वाँछनीय भी है।

यह सही है कि बन्धन बन गई परम्पराओं को अवश्य त्याग देना चाहिये। प्राचीनता किसी बात को अपनाए रहने के लिये शपथ नहीं है, किन्तु यह भी सत्य नहीं है कि कोई बात पुरानी होने से त्याज्य ही है।

संग्रह अथवा त्याग की कसौटी नवीनता अथवा प्राचीनता नहीं है, बल्कि इन दोनों में रहने वाला हितकारक तत्व ही है। आज अनेकों ऐसी पुरानी बातें, परम्परायें, प्रथायें, विश्वास एवं विचार धारायें हैं जिनको त्याग देने से अतुलनीय हानि हो सकती है। यहाँ तक कि मानव मनुष्यता से योजनों दूर जा सकता है। साथ ही अनेकों ऐसी नवीनताएं हैं जिनको अपनाये बिना मनुष्य का एक कदम बढ़ सकना असम्भव हो जायेगा। नवीनता एवं प्राचीनता के संग्रह त्याग में कोई दुराग्रह नहीं करना चाहिये, बल्कि किसी बात को विवेक एवं अनुभव के आधार पर अपनाना अथवा छोड़ना चाहिये।

जिस बात को अन्तरात्मा स्वीकार न करती हो, विवेक जिसे मानने से इनकार कर दे उसे अवश्य ही त्याग देना चाहिए, फिर वह कितनी ही पुरानी क्यों न हो।

समाज की सुव्यवस्था, सुविधा और हित के लिये जो नियम बहुत समय पहले बनाये गये हैं वह आज के भी परिवर्तित समाज के लिये यथावत हितकारक हों, यह आवश्यक नहीं। किसी भी नियम की हितकारिता की एक साधारण कसौटी है—वह यह कि देखो पूर्व नियम जिस प्रकार समाज के विकास और उसकी उन्नति में सहायक होता था आज भी हो रहा है या नहीं। यदि वह पहले की अपेक्षा आज अपनी उपयोगिता खो चुका है, तो वह आवश्यकता एवं समयानुसार परिवर्तनीय अथवा त्याज्य है। उसे त्याग कर नये हितकारी नियम अपनाना चाहिये। इसमें संकोच करने का अर्थ है स्वयं अपनी प्रगति में रोड़े अटकाना।

अनुपयोगी परम्पराओं से चिपटा रहना इस बात का प्रमाण है कि अमुक व्यक्ति अथवा समाज में नव-जीवन का अभाव हो गया है। जागरूक तथा जीवित समाज का यह एक निश्चित लक्षण है, कि वह अवाँछनीय अथवा असामयिक प्राचीनता को त्याग कर उसके स्थान पर एक नवीन प्रगतिशीलता को स्थान देता है।

कोई भी विचारशील व्यक्ति किसी अविवेकपूर्ण प्रथा को इसलिये अपनाए नहीं रह सकता कि वह बहुत जमाने से चली आ रही है, किसी बात की प्राचीनता ही उसकी उत्तमता की कसौटी नहीं है।

प्रथायें और परम्परायें कोई ईश्वरीय आदेश नहीं होतीं। ये सुख, सुविधा तथा सुव्यवस्था के लिये मानव-समाज द्वारा ही बनाई जाती हैं। जब इनका उक्त उद्देश्य नष्ट हो जाये तो इन्हें भी किसी प्राचीन तथा निर्जीव वस्तु की भाँति त्याग देना चाहिये।

यदि हम सड़ी-गली पुरानी रूढ़ियों को हानि उठाकर भी प्राचीनता के लोभ में अपनाये रहेंगे तो अवश्य शीघ्र ही ऐसा समय आ सकता है कि हम जमाने से इतने पीछे रह जायें कि जो हमसे छोटे हैं बाद के हैं वे हम से आगे निकल जायें और हमसे जेष्ठ और श्रेष्ठ बनने लगें।

किसी प्रगति अथवा उन्नति से ईर्ष्या न करते हुये हमें स्वयं अपनी उन्नति का पथ प्रशस्त करना है और यह होता तभी है जब हम अपनी विवेक बुद्धि का समुचित उपयोग करेंगे। जब तक हम आँख मूँदकर रूढ़ियों के पीछे चलते रहेंगे और विवेक की पुकार की अपेक्षा करेंगे तब तक बढ़ते हुए समय के साथ न चल सकेंगे।

कोई एक नियम किसी एक समय में प्रगति में सहायक हो सकता है, वही कालान्तर में बन्धन का रूप धारण कर सकता है। बन्धन बनते हुए नियम का त्याग ही हितकर है।

अनेक परम्पराओं के भक्त होते हैं और अनेक उसके विरोधी। एक पक्ष परम्पराओं को यथावत बनाये रखना चाहता है फिर चाहे वे मानव-विकास के बन्धन ही क्यों न बन गई हों और दूसरा पक्ष उन्हें जड़ मूल से नष्ट कर देना चाहता है फिर चाहे वे कितनी ही उपयोगी क्यों न हों। यह दोनों बातें ठीक नहीं। इनमें से जहाँ एक में जड़ता है वहाँ दूसरे में अविवेक है।

परम्परा अतीत की देन होती है और परिवर्तन भविष्य का प्रतीक। मनुष्य का जितना मतलब वर्तमान से होता है उतना भूत अथवा भविष्यत् से नहीं। मनुष्य को वर्तमान में रहना होता है। अतीत का वैभव उसका कोई कार्य सम्पादित नहीं कर पाता और भविष्य के स्वप्न भी कुछ काम नहीं आते। मनुष्य को अपने वर्तमान का ही निर्माण करना चाहिये। किन्तु इस निर्माण के लिये आवश्यक सामग्री वर्तमान में नहीं होती उसके लिये उसे अतीत अनुभवों और भविष्य की कल्पनाओं का भी उपयोग करना होगा। वर्तमान का भवन भूत भविष्यत् की ही आधारशिलाओं पर बनाया जा सकता है।

परिवर्तन संसार का एक अपरिवर्तनीय नियम है। जो कल था वह आज बदल गया है और जो आज है, वह कल बदल जायेगा। संसार के विकास में परिवर्तन का बहुत हाथ रहता है। यदि परिवर्तन न हो, संसार में एक जैसी परिस्थितियाँ सदैव बनी रहें तो यह संसार नीरस और निःसार होकर रह जाये।

एक नैसर्गिक नियम होते हुये भी परिवर्तन स्वतः घटित नहीं होता। यह भी मनुष्य द्वारा ही लाया जाता है। बुद्धिमान और विवेकी पुरुष अपनी आत्मा में आवश्यक परिवर्तन की स्फुरणा का अनुभव करके उसे संसार में प्रचारित करते हैं। तदनुसार गतिविधि अपनाने के लिए मानव-समाज को निर्देश देते हैं और उसी प्रकार जन साधारण अपने जीवन की गतिविधि बदल लेता है।

परिवर्तन कोई बुरी बात नहीं। इसका स्वागत हर व्यक्ति को करना चाहिये—बशर्ते कि वह परिवर्तन नवीन उपयोगी, उन्नति और विकास मूलक हो।

परिवर्तन कोई बुरी बात नहीं। इसका स्वागत हर व्यक्ति को करना चाहिये—बशर्ते कि वह परिवर्तन नवीन उपयोगी, उन्नति और विकास मूलक हो।


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