बच्चा जन्म से कायर नहीं होता। उसकी नैसर्गिक प्रकृति इतनी निर्भीक होती है कि वह साँप, चूहे, बिल्ली, बन्दर जो भी पास आये पकड़ने को दौड़ता है। उसे प्रत्येक वस्तु खेल की, विनोद की वस्तु लगती है और संभवतः वह इसीलिये बिना हिचक के, प्रत्येक वस्तु की ओर दौड़ पड़ता है। बच्चे के मस्तिष्क में पूर्वारम्भ में भय की भावना न जगायी जाय तो हमारा विश्वास है कि वह कभी कायर नहीं हो सकता। घर का वातावरण और माता-पिता का त्रुटिपूर्ण संरक्षण ही उन्हें भीरु बनाता है। भारतवर्ष की अतीत कालीन परम्पराओं की दृष्टि से यह अभिशाप-सा लगता है कि हमारे बच्चे डरपोक बनें। वीर-प्रसविनी वसुन्धरा के लाड़लों को तो वीर और बाँकुरा ही होना चाहिए।
इस निर्माण में आप बहुत अधिक सहयोग दे सकते हैं। निर्भीक प्रकृति के बालकों में भय की भावना पैदा कर देने का बहुत कुछ उत्तरदायित्व अभिभावकों का है। व्यक्तिगत सावधानी और समीप वर्ती वातावरण को शुद्ध रखकर आप अपने बच्चों को निर्भय प्रकृति का बना सकते हैं।
माता-पिता की अविश्वासी प्रकृति हमारी दृष्टि में मुख्य विकार है। उन्हें अपने बालकों पर विश्वास नहीं होता और वे छोटी-छोटी आशंकाओं को लेकर बालकों की क्रीड़ाओं में हस्तक्षेप करते रहते हैं। इसमें केवल परावलम्बी हो जाने का ही दोष नहीं है वरन् बच्चों में भी अपनी शक्तियों के प्रति विश्वास उठने लगता है। वह अपने को दीन-दयनीय स्थिति वाला समझने लगता है। कायरता की मुख्य जड़ यही है। बच्चे की कुशलता की देख-रेख तो रखिये पर इतना नहीं कि उसकी अपनी क्रिया-शक्ति परावलम्बी हो जाय। इसमें इतना ही संभव है कि बच्चा कहीं फिसल कर गिर पड़े और मामूली चोट आ जाय या उँगली में थोड़ा जल जाय। घर में और किसी बड़े खतरे की आशंका नहीं होती, यदि हो भी तो कारण को दूर कर देना चाहिये पर बच्चे के कार्यों में जितना कम सम्भव हो, हस्तक्षेप करना चाहिए। स्वानुभूतियाँ बालक का नैसर्गिक विकास करती हैं, प्रबुद्ध और निर्भय बनाती हैं।
अज्ञान और असत्य मूलक विश्वास से बच्चों को परिचित करा देना बहुत बड़ी भूल है। मनुष्य का जैसा विश्वास होता है वैसा ही उसके कार्यों का फल भी उसे मिलता है। यदि विश्वास सत्य, ज्ञान और प्रेम मूलक होगा तो उससे विकास होगा, इसके विपरीत यदि विश्वास असत्य और अज्ञान परक हुआ तो वह घृणा और पतन की ओर ले जायगा। बहुधा माताएं बच्चों को चुप करने के लिए या सुलाने के लिए बाबाजी, सिपाही, हौवा, भूत, बुढ़िया डायन, जूजू आदि का भय दिखाती हैं। बेचारा बच्चा डरकर दुबक जाता है। माताएँ अपनी इस सफलता पर बहुत प्रसन्न होती हैं पर उसका बुरा असर बच्चों के जीवन पर पड़ता है। वह सदा के लिए भीरु बन जाता है। उसमें अन्धविश्वास की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगती है। बालकों को कमजोर बनाने में इसका मुख्य हाथ है।
बच्चों के आगे डरावने दृश्यों का वर्णन या भयोत्पादक कहानियाँ नहीं सुनाना चाहिये। भूत-मसानी के किस्से और रोमाँचकारी घटनाओं के चित्रण करना बड़ी भूल होगी। इस प्रकार की बातों से उसके प्रसुप्त मन में भयोत्पादक ग्रन्थियाँ जम जाती हैं जो बाद में स्वयं अपना कार्य प्रारम्भ कर बच्चे को डरपोक बना देती हैं।
कहीं से आपके बच्चे के मस्तिष्क में इस प्रकार का भय छा गया हो तो उसका हर सम्भव तरीके से निवारण करना चाहिए। इस प्रकार भ्रान्त-धारणा को पूर्व में ही निर्मूल कर दिया जाय तो बच्चे का न केवल भय ही दूर हो जाता है वरन् भय की निरर्थकता भी मालूम पड़ जाती है।
स्वामी विवेकानन्द जी जब बालक थे तो एक बार उनकी बहनों ने उन्हें पास के पेड़ में भूत होने की बात सुनाकर डरा दिया। एक रोज बालक विवेकानन्द उसी पेड़ पर जा बैठे और बड़ी देर तक भूत के आने की प्रतीक्षा करते रहे। काफी देर हो जाने पर घर में तलाश हुई। उनकी माता जी उसी पेड़ की ओर गई तो वे पेड़ पर बैठे मिले। माँ ने वहाँ बैठने का कारण पूछा तो बालक ने बताया कि वह भूत देखने आये थे। माँ ने समझाया बेटा भूत कुछ नहीं होता, न माने तो और परीक्षा कर ले। बालक के मन से भूत की कल्पना दूर हो गई और उसका भय मिट गया।
प्रत्येक माता-पिता का यह कर्त्तव्य है कि यदि उन्हें ऐसा मालूम पड़े कि किसी बात को लेकर बच्चे के मस्तिष्क में भय पैदा हो रहा है तो उसे तुरन्त दूर कर दिया जाय ताकि वैसी भावना मस्तिष्क में जड़ न जमा ले।
भय केवल डराने, मनगढ़न्त भयोत्पादक कहानियाँ सुनाने से ही नहीं पैदा होता। कई बार लड़ाई-झगड़ों के कारण वातावरण में एक प्रकार का भयोत्पादक कम्पन छा जाता है इससे बच्चों के कोमल मस्तिष्क में आघात होता है और वे बहुत जल्दी डर जाते हैं। जोर-जोर से चिल्ला कर लड़ने, गालियाँ बकने, चीखने मारपीट करने से जो डरावना वातावरण बनता है उससे बच्चों को सदैव दूर रखना चाहिए।
यह सब इसलिए आवश्यक है कि बच्चे के मन में भय न पैदा हो और वह कायर एवं कमजोर न बने। इनसे अधिक बच्चे के रचनात्मक विकास में सहयोग देने का महत्व है। बच्चों को प्रारम्भिक अवस्था से ही वीर-बाँकुरा बनाना चाहिए।
शकुन्तला का भरत सिंहों के बच्चों के साथ खेला करता था। अब वैसा संकल्प और आत्म-बल न हो तो भी साहसपूर्ण कहानियाँ, बाल-निर्माण के रोचक संस्मरण तो उन्हें सुनाये ही जा सकते हैं। छोटे-छोटे बच्चों के वीरतापूर्ण कार्यों की चर्चा करनी चाहिए। ऐसी कहानियाँ काल्पनिक भी हो सकती हैं, ऐतिहासिक भी। जिनसे बच्चे पर अनुकूल प्रभाव पड़े ऐसी कथायें रात को लेटते समय या दिन के किसी भी अवकाश के समय बच्चों को सुनाना चाहिए।
कहानियों की तरह ही काव्य भी बच्चों को प्रिय होता है। उन्हें गाना सुनने, सुनाने का शौक होता है पर लोगों की भूल यह होती है कि वे दोषपूर्ण गीतों के द्वारा बच्चों के मस्तिष्क में विकार उत्पन्न कर देते हैं। यों नहीं, बच्चों को ऐसी रचनायें सुनानी और याद करानी चाहिए जिनसे उनकी भावनाओं में दृढ़ता, वीरता और आदर जागृत होता हो। बुद्धिमान स्त्रियाँ बच्चों को लोरियाँ गाकर सुलाती हैं। उन लोरियों में भय नहीं, प्रेम, श्रद्धा और वीरता की बातें होती हैं। भूत आदि की अन्धविश्वास की बातों से बालक का मन कमजोर नहीं करतीं। इसलिए ऐसे लोग वीर होते हैं। बालक के मन को भय और विकार जन्य संस्कारों से बचाना नितान्त आवश्यक है।
बच्चों को स्वस्थ रखने की सामान्य जानकारी प्रत्येक अभिभावक को होनी चाहिये। आहार-विहार, खेलकूद नियमोपनियम तथा सुव्यवस्था की जानकारी खुद न हो तो अपने मित्रों और पड़ोसियों से सीख लेनी चाहिये।
यदि किसी बच्चे का वजन प्रतिमास बढ़ता रहता है श्वास-प्रश्वास नियमपूर्वक चलते हैं, सोते समय उसे किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता और खूब गहरी नींद आती है। दिन में उसे टट्टी एक या दो बार साफ आती है, तो समझना चाहिये बच्चा स्वस्थ है। और उसे कोई शारीरिक बीमारी नहीं है। अस्वस्थ होने पर बच्चे मुरझाये रहते हैं खेलते नहीं और उनका वजन भी नहीं बढ़ता। ऐसा कोई कारण जान पड़े तो उसका तुरन्त उपचार करना चाहिए।
घर की बैठक के कमरे में शिवाजी, राणाप्रताप, गुरुगोविन्दसिंह, रणजीतसिंह, सुभाषचन्द्र बोस आदि वीर पुरुषों के चित्र रहने चाहिये। अवकाश होने पर बच्चों को उनसे संबंधित ऐतिहासिक वर्णन भी सुनाते रहना चाहिए।
माताएं और कुछ न करें तो भी केवल अपने संकल्प से बच्चों में वीरतापूर्ण, शौर्य और साहसपूर्ण भावनाओं का जागरण कर सकती हैं। बच्चे को दूध पिलाते समय ऐसी भावना की जाती रहे कि मेरे स्तनों से यह जो मधुर दुग्ध बच्चे के शरीर में पहुँच रहा है उससे उसका शरीर, और आत्मा सभी बलिष्ठ हो रहे हैं, मेरा बच्चा कर्ण, अर्जुन, अभिमन्यु, राम, भरत, गोरा, बादल, फतेहसिंह, जोराबर सिंह, आदि की तरह ही वीर-बाँकुरा और बलशाली बनेगा वह धर्मनिष्ठ होगा पर दुष्टता एवं अनैतिक जूझने में भी पीठ न दिखायेगा। हमारे बच्चे वीर बाँकुरे बनें यह हमारे उत्तरदायित्व है।