भारतीय मस्तिष्क के गौरव सर जगदीशचन्द्र वसु

March 1966

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सर जगदीशचन्द्र वसु संसार की उन वैज्ञानिक विभूतियों में से हैं, जिन्हें लोकष्णु विदेशी वैज्ञानिकों ने अनेक छल-प्रपंचों द्वारा बुझा देना चाहा, किन्तु भारत माता के उस अमृत पुत्र ने एक अविचल प्रकाश स्तंभ की तरह अपनी प्रतिभा के बल पर पराधीन भारत का मुख उज्ज्वल कर ही दिया। श्री वसु एक अग्रिणी भारतीय वैज्ञानिक थे। उन्होंने भारत के वेदान्त दर्शन का गहनतम अध्ययन एवं मनन किया था। उन्हें विश्वास था कि संसार की सारी जड़-चेतन प्रकृति में एक चैतन्य सत्ता का निवास है जो कि ‘ब्रह्म’ नाम से भारत के विज्ञान-दर्शन में विख्यात है। श्री वसु ने इसी सत्य को भौतिक यन्त्रों द्वारा खोज निकालने में अपना जीवन लगा दिया और जीवितों की भाँति जड़ों पर भी भौतिक परिवर्तनों तथा प्रतिक्रियाओं को सिद्ध कर दिखाया। इससे भारतीय दर्शन सिद्धान्तों की गरिमा में अभिवृद्धि हुई।

भारत के इस विलक्षण वैज्ञानिक का जन्म 30 नवम्बर 1858 ई. को बंगाल के ढ़ाका जिले के राढ़ीखाल नामक ग्राम में हुआ। इनके पिता का नाम भगवान चन्द्र वसु था और वे उस समय के अंग्रेजी राज्य में फरीदपुर जिले के डिप्टी-कलेक्टर थे।

साधन सम्पन्न होने पर भी भगवान चन्द्र वसु ने अपने बेटे जगदीशचन्द्र वसु की प्रारम्भिक शिक्षा फरीदपुर की एक ग्रामीण पाठशाला में ही कराई। ऐसा करने में उनका एक महान् उद्देश्य छिपा हुआ था। भगवान चन्द्र वसु नहीं चाहते थे कि उनका पुत्र प्रारम्भ से अंग्रेजी स्कूल में पढ़ कर अंग्रेजियत का गुलाम बन जाये और विदेशी नौकर-शाही का सहायक बने।

भगवान चन्द्र वसु न केवल पुत्र के लिये ही राष्ट्रीय भावना रखते थे, अपितु अपनी मर्यादाओं के अनुसार स्वयं भी देशोद्धार के कार्य किया करते थे। डिप्टी-कलेक्टर होने के कारण अवश्य ही वे सक्रिय जन-सेवा के कार्य तो न कर पाते थे, किन्तु फिर भी अपनी सेवा के फलस्वरूप वेतन के रूप में जो कुछ सरकार से प्राप्त करते थे, वहाँ से थोड़ा-सा भाग परिवार संचालन के लिए निकाल के बाकी सब पद-दलित जनता की सेवा में लगा देते थे उन्हें मिटते हुए देशी उद्योग-धन्धों से बहुत सहानुभूति थी और वे जीवन भर उनके पुनरुद्धार के लिये अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा व्यय करते रहे।

शुभ-संस्कृत जगदीशचन्द्र वसु ने कलकत्ते के सेंट जेवरों कॉलेज से ही बी. ए. की उपाधि प्राप्त की और इच्छा प्रकट की कि उन्हें आई.सी.एस. की परीक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा जाये, जिससे वे पिता की ही तरह डिप्टी-कलेक्टर बनें और उनकी उदारतापूर्ण उस परम्परा को आगे बढ़ा सकें, जो देशी उद्योग-धन्धों से सम्बन्धित थी। किन्तु भगवान चन्द्र वसु पुत्र की इस इच्छा से सहमत न हुए। वे बाहर से प्रतिष्ठापूर्ण एवं अधिकार सम्पन्न दीखने वाली आई.सी. एस. सेवा का आन्तरिक खोखलापन देख चुके थे। वे नहीं चाहते थे कि उनकी तरह ही उनका पुत्र भी अंग्रेज नौकरशाही का विवश यन्त्र बनकर अपनी प्रतिभा का बेच दे।

दूरदर्शी पिता ने उन्हें डॉक्टरी पढ़ने का परामर्श दिया और स्नेहमयी माता ने अपने सारे आभूषण बेच कर विदेश यात्रा का व्यय जुटाया। जगदीशचन्द्र वसु ने पिता के परामर्श को पिता का मात्र आदेश समझ कर ही नहीं माना, बल्कि पिता के अनुभवपूर्ण परामर्श को अपने विचारों की कसौटी पर परखा भी। ऐसा करने से वे जिस निष्कर्ष पर पहुँचे, उससे अपने पिता के प्रति कृतज्ञ हुए बिना न रह सके। उन्होंने मन ही मन पिता को धन्यवाद दिया और इस विश्वास को दोहराया कि अनुभवी गुरुजनों के किसी भी सद्-परामर्श में बहुत बड़ा हित निहित रहता है।

किन्तु इंग्लैंड में मेडिकल कॉलेज में भरती हो सकने से पूर्व उन्हें मलेरिया ने घेर लिया। रोग की लम्बी अवधि के कारण उनकी डॉक्टरी पढ़ाई में विलम्ब हो गया और उन्हें विवश होकर डॉक्टरी के बजाय भौतिक विज्ञान अध्ययन में प्रवेश करना पड़ा, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया और यथा समय लंदन-विश्व विद्यालय से बी. एस. सी. उपाधि प्राप्त की।

जगदीशचन्द्र वसु जिस समय भारत लौटे तो उनके पास बी. एस. सी. का एक उपाधि-पत्र ही नहीं था, बल्कि बहुत से बहुमूल्य विचार रत्न भी थे, जो उन्होंने अपने समय काल में विज्ञान क्षेत्र के उर्वर मस्तिष्कों के सतत् संपर्क में रहकर संचय किये थे।

अपने परिश्रम पूर्ण अध्यवसाय से उपार्जित जगदीशचन्द्र वसु ने अपनी जिस योग्यता की छाप विश्व-विद्यालय में छोड़ी थी, वह अखबारों में छप कर भारत आई, जिसे देखकर दूरदर्शी लार्ड रिपन ने उनको शासन के अनुकूल अपनाने और स्वतन्त्र विकास न करने देने के लिये कलकत्ता में प्रेजीडेन्सी कॉलेज की प्रोफेसरी का स्वर्ण जाल बिछा दिया। जगदीशचन्द्र वसु उसमें फँसे नहीं, बल्कि स्वयं स्वीकार किया। इसलिये कि वे अपनी प्रखर प्रतिभा के बल से कॉलेज के उस वैतनिक भेद-भाव की परम्परा को मिटा सके, जो अंग्रेज तथा हिन्दुस्तानी प्रोफेसरों के बीच चली आ रही थी।

कॉलेज के स्थायी, हिन्दुस्तानी प्रोफेसरों को अंग्रेजों के वेतन का केवल दो तिहाई ही दिया जाता था और स्थानापन्न प्रोफेसरों को तो उसका भी आधा। प्रखर प्रतिभा को ऊँचे पद के लोभ में फाँस कर नीचे वेतन से हतप्रभ करने की लार्ड रिपन की नीति को जगदीशचन्द्र ने समझा और अवैतनिक सेवा की घोषणा करके कूटज्ञ पक्ष-पातियों का न केवल अस्त्र ही खुट्टल कर दिया, बल्कि भारतीय त्याग के तेज से उनके मुँह भी मैले कर दिये।

इसी बीच जगदीशचन्द्र का विवाह हो गया था, जिससे यह अर्थाभाव और भी कंटकित हो उठा था, किन्तु संकल्पशील भारतीय आचार्य तिल−भर भी विचलित न हुआ और विचलित होता भी कैसे? जब उनकी नव- विवाहिता ने उनके इस त्याग में पूर्णाञ्जलि सहयोग किया और उस नाव को नदी के आर-पार स्वयं, खेकर ले जाती रही, जिस पर जगदीशचन्द्र वसु बैठ कर अपने उस मकान से आया करते थे, जो किराये की तंगी के कारण उन्हें कलकत्ते के बजाय नदी पार चन्द्र नगर में लेना पड़ा था। उनकी पत्नी अबला वसु ने अपना यह नाविक व्रत दो साल निभाया।

सब कुछ आर्थिक कठिनाइयों के होते हुए भी जगदीशचन्द्र ने अपनी आनुसान्धानिक गतिविधियों को प्रारम्भ ही कर दिया। कार्य-व्रती आत्मायें जब कर्तव्य पथ पर पहाड़ जैसे अवरोधों की आन नहीं मानती तब एक आर्थिक अवरोध भला वसु को अपने उद्देश्य से किस प्रकार रोक पाता। उन्होंने अपने हाथ से एक छोटी-सी प्रयोगशाला अपने अध्ययन कक्ष में ही बना ली और फोटोग्राफी के लेट तथा संगीत के रिकार्ड बनाने की विधि निकाल डाली।

जगदीशचन्द्र वसु को अपने इन अनुसन्धानों से सन्तोष न हुआ और उन्होंने विद्युत की चुम्बकीय तरंगों के गंभीर अनुसंधान का कार्य अपने हाथ में लिया, जिन पर अनेक जर्मन वैज्ञानिक बहुत समय से प्रयोग करते हुए सफलता के लिये लालायित हो रहे थे। अपने इस अनुसंधान में उन्होंने अनेक महत्वपूर्ण सिद्धान्तों की खोज कर ली, जिनकी मदद से बेतार के तार (रेडियो विधि) का यन्त्र निर्माण किया। उनके इस आविष्कार से विज्ञान जगत में एक हलचल मच गई। उन्होंने अपने इस विलक्षण यंत्र का प्रदर्शन इंग्लैंड में किया, तब विदेशी वैज्ञानिक आश्चर्य चकित रह गये।

इसी बीच विद्युत तरंगों के चुम्बकीय प्रभाव की प्रतिक्रिया अन्य भौतिक पदार्थों पर देखकर श्री वसु इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि प्रकृति के प्रत्येक पदार्थ में चेतन की भाँति ही किसी भी अनुभूति को अनुभव करने का संवेदनशील तत्व मौजूद है। अपनी इस खोज से वे स्वयं ही इतने प्रभावित हो उठे कि बेतार के तार का अन्वेषण अधूरा छोड़कर इस नये अनुभव के अनुसंधान में लग गये। उनकी इस उत्सुकता का अनुचित लाभ उठा कर विदेशी वैज्ञानिकों में से मार्कोनी नामक एक वैज्ञानिक ने वसु के सिद्धान्तों पर ही उनके पूर्ण प्रायः बेतार के तार के यन्त्र को पूर्ण कर रेडियो आविष्कर्ता का श्रेय प्राप्त कर लिया। निःसन्देह रेडियो के जिस आविष्कार का श्रेय भारतीय वैज्ञानिक श्री जगदीशचन्द्र वसु को मिलना चाहिये था, वह उनकी उत्सुकता तथा विदेशियों के पक्षपात के कारण मार्कोनी को मिल गया। हाथ के किसी कार्य को अपूर्ण छोड़ने की जो हानि हुआ करती है, वह जगदीशचन्द्र वसु को भी हुई।

किन्तु उन्हें इसका जरा भी खेद न हुआ और वह जड़ में चेतन सत्ता की खोज में इसलिये पूरी तरह जुट गये, जिससे कि भारतीय मनीषियों के इन वेदान्त वाक्यों को भौतिक विज्ञान की कसौटी पर सत्य सिद्ध कर सकें कि “संसार के सारे जड़-चेतन पदार्थों में एक ही चैतन्य शक्ति विद्यमान है” — “सर्व खल्विदंब्रह्म नेह नान्यस्ति किंचन।”

भारत के तत्वदर्शी वैज्ञानिक की तपस्या सफल हुई और उसने एक ऐसा यन्त्र बना लिया, जिसकी सहायता से उसने न केवल स्वयं ही देख लिया, बल्कि सारे संसार को दिखला दिया कि संसार की यह वनस्पतियाँ जिन्हें कि जड़ माना जाता है, मनुष्य की तरह हर प्रतिक्रिया को अनुभव करती हैं। मनुष्य की तरह ही पेड़ पौधे भी हँसते हैं, रोते हैं, उदास और प्रसन्न होते हैं। वे भी जीवों की तरह ही भूख और प्यास के कष्ट को अनुभव करते हैं।

जगदीशचन्द्र वसु का यह अद्भुत आविष्कार जहाँ भौतिक विज्ञान में एक चमत्कार है वहाँ तत्व-दर्शन में एक शाश्वत सत्य की ऐसी खोज है जो भारतीय दर्शन की प्रमाणिकता सिद्ध करती है, चेतन विज्ञान में विश्वास का सन्देश देती है।

जिस समय श्री वसु ने इंग्लैंड की राँयल सोसाइटी के सम्मुख अपनी क्राँतिकारी खोज का प्रदर्शन किया। भारतीय दर्शन शास्त्र के प्रकाश में उसकी व्याख्या करते हुए भाषण दिया तो वहाँ उनके प्रतिपादन की जाँच हुई और जगदीशचन्द्र वसु की मौलिकता स्वीकार की गई। संसार ने उनकी महत्ता को स्वीकार किया और वे सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक घोषित किये गये।

इसके अनन्तर उन्होंने देश-विदेश की यात्रा की और भारतीय मस्तिष्क की धाक सारे संसार में जमा दी। प्रेजीडेन्सी कॉलेज ने अपनी परम्परा में सुधार किया उन्हें सारे समय का पूरा वेतन दिया और संसार की बड़ी-बड़ी संस्थाओं ने उन्हें सम्मानित एवं पुरस्कृत किया। अनेक विश्व विद्यालयों ने डॉक्टर की उपाधि देकर अपने को धन्य माना और भारत सरकार ने उन्हें क्रमशः सी. आई. ई, सी. एस. आई. और “ सर” की उपाधियों से विभूषित किया।

अन्त में उन्होंने अपने जीवन भर की कमाई लगाकर, जिसको कि इसी उद्देश्य से बचाते चले आ रहे थे, “ वसु रिसर्च इन्स्टीटय़ूट” नामक एक विशाल वैज्ञानिक संस्था की स्थापना करके 23 नवम्बर 1936 को परमधाम प्राप्त किया।

सर जगदीशचन्द्र वसु आज संसार में नहीं हैं किन्तु उनके दिये हुए आलोक में संसार का विज्ञान-स्पन्दन दिनों-दिनों प्रगति-पथ पर बढ़ता जायेगा।

सर जगदीशचन्द्र वसु आज संसार में नहीं हैं किन्तु उनके दिये हुए आलोक में संसार का विज्ञान-स्पन्दन दिनों-दिनों प्रगति-पथ पर बढ़ता जायेगा।


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